हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|पुस्तक|विनय पत्रिका|
विनयावली १७

विनय पत्रिका - विनयावली १७

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


सुनु मन मूढ़ सिखावन मेरो ।

हरि - पद - बिमुख लह्यो न काहु सुख, सठ ! यह समुझ सबेरो ॥१॥

बिछुरे ससि - रबि मन - नैननितें, पावन दुख बहुतेरो ।

भ्रमत श्रमित निसि - दिवस गगन महँ, तहँ रिपु राहु बड़ेरो ॥२॥

जद्यपि अति पुनीत सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो ।

तजे चरन अजहूँ न मिटत नित, बहिबो ताहू केरो ॥३॥

छुटै न बिपति भजे बनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो ।

तुलसिदास सब आस छाँड़ि करि, होहु रामको चेरो ॥४॥

 

भावार्थः- हे मूर्ख मन ! मेरी सीख सुन, हरिके चरणोंसे विमुख होकर किसीने भी सुख नहीं पाया । हे दुष्ट ! इस बातको शीघ्र ही समझ ले ( अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, शरण जानेसे काम बन सकता है ) ॥१॥

देख ! यह सूर्य और चन्द्रमा जबसे भगवानके नेत्र और मनसे अलग हुए तभीसे बड़ा दुःख भोग रहे हैं । रात - दिन आकाशमें चक्कर लगाते बिताने पड़ते हैं, वहाँ भी बलवान् शत्रु राहु पीछा किये रहता है ॥२॥

यद्यपि गंगाजी देवनदी कहाती हैं और बड़ी पवित्र हैं, तीनों लोकोंमें उनका बड़ा यश भी फैल रहा है, परन्तु भगवच्चरणोंसे अलग होनेपर तबसे आजतक उनका भी नित्य बहना कभी बंद नहीं होता ॥३॥

श्रीरघुनाथजीके भजन बिना विपत्तियोंका नाश नहीं होता । इस सिद्धान्तका सन्देह वेदोंने नष्ट कर दिया है । इसलिये हे तुलसीदास ! सब प्रकारकी आशा छोड़कर श्रीरामका दास बन जा ॥४॥

N/A

References : N/A
Last Updated : September 09, 2009

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP