केसव ! कहि न जाइ का कहिये ।
देखत तव रचना बिचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये ॥१॥
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे ।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥२॥
रबिकर - नीर बसै अति दारुन मकर रुप तेही माहीं ।
बदन - हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥३॥
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै ।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ॥४॥
भावार्थः- हे केशव ! क्या कहूँ ? कुछ कहा नहीं जाता ! हे हरे ! आपकी यह विचित्र रचना देखकर मन - ही - मन ( आपकी लीला ) समझकर रह जाता हूँ ॥१॥
कैसी अद्भुत लीला है कि इस ( संसाररुपी ) चित्रको निराकार ( अव्यक्त ) चित्रकार ( सृष्टिकर्ता परमात्मा ) ने शून्य ( मायाकी ) दीवारपर बिना ही रंगके ( संकल्पसे ही ) बना दिया । ( साधारण स्थूल - चित्र तो धोनेसे मिट जाते हैं, परन्तु ) यह ( महामायावी - रचित माया - चित्र ) किसी प्रकार धोनेसे नहीं मिटता । ( साधारण चित्र जड है, उसे मृत्युका डर नहीं लगता परन्तु ) इसको मरणका भय बना हुआ है । ( साधारण चित्र देखनेसे सुख मिलता है परन्तु ) इस मरणका भय बना हुआ है । ( साधारण चित्र देखनेसे सुख मिलता है परन्तु ) इस संसाररुपी भयानक चित्रकी ओर देखनेसे दुःख होता है ॥२॥
सूर्यकी किरणोंमें ( भ्रमसे ) जो जल दिखायी देता है उस जलमें एक भयानक मगर रहता है; उस मगरके मुँह नहीं है, तो भी वहाँ जो भी जल पीने जाता है, चाहे वह जड हो या चेतन, यह मगर उसे ग्रस लेता है । भाव यह कि यह संसार सूर्यकी किरणोंमे जलके समान भ्रमजनित है । जैसे सूर्यकी किरणोंमे जल समझकर उनके पीछे दौड़नेवाला मृग जल न पाकर प्यासा ही मर जाता है, उसी प्रकार इस भ्रमात्मक संसारमें सुख समझकर उसके पीछे दौड़नेवालोंको भी बिना मुखका मगर यानी निराकार काल खा जाता है ॥३॥
इस संसारको कोई सत्य कहता है, कोई मिथ्या बतलाता है और कोई सत्यमिथ्यासे मिला हुआ मानता है; तुलसीदासके मतसे तो ( ये तीनों ही भ्रम हैं ) जो इन तीनों भ्रमोंसे निवृत्त हो जाता है ( अर्थात् सब कुछ परमात्माकी लीला ही समझता है ), वही अपने असली स्वरुपको पहचान सकता है ॥४॥