याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो ।
परिहरि हदय - कमल रघुनाथहि , बाहर फिरत बिकल भयो धायो ॥१॥
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि , तरु , लता , भूमि , बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो ॥२॥
ज्यों सर बिमल बारि परिपूजन , ऊपर कछु सिवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजि हौं सठ , चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो ॥३॥
ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारुन , तापर दुसह दरिद्र सतायो ।
अपनेहि धाम नाम - सुरतरु तजि बिषय - बबूर - बाग मन लायो ॥४॥
तुम - सम ग्यान - निधान , मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो ।
तुलसिदास प्रभु ! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो ॥५॥
भावार्थः - हे हरे ! मैंने इसी कारण ज्ञानको खो दिया कि जो मैं अपने हदयकमलमें विराजित आपको छोड़कर ( सुखके लिये ) व्याकुल होकर बाहर इधर - उधरके अनेक साधनोंमें भटकता फिरा ॥१॥
जैसे अत्यन्त बुद्धिहीन हरिण अपने ही शरीरमें सुन्दर कस्तूरी होनेपर भी उसका भेद नहीं जानता और पहाड़ , पेड़ , लता , पृथ्वी और बिलोमें ढूँढता फिरता है कि यह श्रेष्ठ सुगन्ध कहाँसे आ रही है ( वही हालत मेरी है । सुखस्वरुप स्वामीके हदयमें रहनेपर भी मैं बाहर ढूँढ़ रहा हूँ ) ॥२॥
तालाब निर्मल पानीसे लबालब भरा है , किन्तु ऊपरसे कुछ काई और घास छायी है । इसीसे ( भ्रमवश ) उस ( तालाबके स्वच्छ ) जलको छोड़कर मैं दुष्ट अपना हदय जला रहा हूँ , और इस प्रकार अपनी प्यास बुझाना चाहता हूँ । ( हदय - सरोवरमें सच्चिदानन्दघन परमात्मारुपी अनन्त शीतल जल भरा है , परन्तु अज्ञानकी काई आ जानेसे मैं मृगजलरुपी सांसारिक भोगोंको प्राप्त करके उनसे परमसुखकी तृष्णा मिटाना चाहता हूँ ओर फलस्वरुप त्रितापस्से जल रहा हूँ ) ॥३॥
एक तो वैसे ही शरीरमें दारुण त्रिविध ताप व्याप रहे हैं , तिसपर यह ( साधन - धनके अभावकी ) असहनीय दरिद्रता सता रही है । ( मैं कैसा महान् मूर्ख हूँ कि ) अपने ही ( हदयरुपी ) घरमें भगवन्नामरुपी ( मनचाहा फल देनेवाला ) जो कल्पवृक्ष है उसे छोड़कर मैंने विषयरुपी बबूलके बागमें अपना मन लगा रखा है । ( बबूलके बागमें दुःखरुप काँटोंके सिवा और क्या मिल सकता है ? ) ॥४॥
आपके समान तो कोई ज्ञान - निधान नहीं है और मेरे समान और कोई मूर्ख नहीं है , यह बात पुराणोंने कही है । इस बातको विचारकर हे नाथ ! आपको जो उचित प्रतीत हो इस तुलसीदासके लिये वही कीजिये ॥५॥