पाहि , पाहि राम ! पाहि रामभद्र , रामचंद्र !
सुजस स्रवन सुनि आयो हौं सरन ।
दीनबन्धु ! दीनता - दरिद्र - दाह - दोष - दुख
दारुन दुसह दर - दुरित - हरन ॥१॥
जब जब जग - जाल ब्याकुल करम काल ,
सब खल भूप भये भूतल - भरन ।
तब तब तनु धरि , भूमि - भार दूरि करि
थापे मुनि , सुर , साधु , आस्त्रम , बरन ॥२॥
बेद , लोक , सब साखी , काहूकी रती न राखी ,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन ।
ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ
रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥३॥
सिला , गुह , गीध , कपि , भील , भालु , रातिचर ,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन - तरन ।
पील - उद्धरन ! सीलसिंधु ! ढील देखियतु
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥४॥
भावार्थः - हे श्रीरामजी ! हे कल्याणस्वरुप रघुनाथजी ! रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये । आपका सुयश सुनकर शरण आया हूँ । हे दीनबन्धो ! आप दीनता , दरिद्रता , सन्ताप , दोष , दारुण दुःख और असहनीय भय तथा पापोंका नाश करनेवाले हैं ॥१॥
जब - जब साधु ( संत और गौ - ब्राह्मण ) काल और कर्मके वश हो जगज्जालमें फँसकर व्याकुल हुए और सब दुष्ट राजा पृथ्वीपर भारस्वरुप हुए , तब - तब आपने अवतार - शरीर धारण कर ( दुष्टोंका संहार कर ) पृथ्वीका भार दूर कर दिया और मुनि , देवता , संत एवं वर्णाश्रम - धर्मकी पुनः स्थापना की ॥२॥
वेद और संसार दोनों ही इसके साक्षी हैं कि जब रावणने किसीकी भी प्रतिष्ठा नहीं रहने दी और देवतागण उसके कैदखानेमें पड़े - पड़े मरने लगे , तब हे भगवन् ! आपहीने उन लोक - पतियोंको - इन्द्र , कुबेर आदिको आश्रय देकर शोकरहित किया और उन्हें फिरसे अपने - अपने लोकोंका स्वामी बनाया , और हे रामजी ! आपके राज्यमें धर्म चारों चरणोंसे युक्त ( धर्मराज्य ) हो गया ( सत्य , तप , दया और दान विकसित हो उठे ) ॥३॥
हे कृपालो ! आपने लीलापूर्वक ही अहल्या , निषाद , जटायु , बंदर , भील , भालु और राक्षसोंको तरण - तारण कर दिया , ( उन्हें तो तार ही दिया , परन्तु दूसरोंको तारनेकी शक्ति भी उनको दे दी । जिस किसीने उनका संग या अनुकरण किया , वह भी तर गया । ) हे गजराजके उद्धारक ! हे शीलके सागर ! इस तुलसीपर जो आपकी ओरसे कुछ ढील - सी दिखायी देती है , इससे वह मारे ग्लानिके गला चाहता है । अतएव कृपाकर इसका भी शीघ्र ही उद्धार कीजिये ॥४॥