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श्रीराम स्तुति ४

विनय पत्रिका - श्रीराम स्तुति ४

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


देव

भानुकुल - कमल - रवि, कोटि - कंदर्प - छवि, काल - कलि - व्यालामिव वैनतेयं ।

प्रबल भुजदंड परचंड - कोदंड - धर तूणवर विशिख बलमप्रमेयं ॥१॥

अरुण राजीवदल - नयन, सुषमा - अयन, श्याम तन - कांति वर वरिदाभं ।

तप्त कांचन - वस्त्र, शस्त्र - विद्या - निपुण, सिद्ध - सुर - सेव्य, पाथोजनाभं ॥२॥

अखिल लावण्य - गृह, विश्व - विग्रह, परम प्रौढ, गुणगूढ, महिमा उदारं ।

दुर्धर्ष, दुस्तर, दुर्ग, स्वर्ग - अपवर्ग - पति, भग्न संसार - पादप कुठारं ॥३॥

शापवश मुनिवधू - मुक्तकृत, विप्रहित, यज्ञ - रक्षण - दक्ष, पक्षकर्ता ।

जनक - नृप - सदसि शिवचाप - भंजन, उग्र भार्गवागर्व - गरिमापहर्ता ॥४॥

गुरु - गिरा - गौरवामर - सुदुस्त्यज राज्य त्यक्त, श्रीसहित सौमित्रि - भ्राता ।

संग जनकात्मजा, मनुजमनुसृत्य अज, दुष्ट - वध - निरत, त्रैलोक्यत्राता ॥५॥

दंडकारण्य कृतपुण्य पावन चरण, हरण मारीच - मायाकुरंगं ।

बालि बलमत्त गजराज इव केसरी, सुहद - सुग्रीव - दुख - राशि - भंगं ॥६॥

ऋक्ष, मर्कट विकट सुभट उदभट समर, शैल - संकाश रिपु त्रासकारी ।

बद्धपाथोधि, सुर - निकर - मोचन, सकुल दलन दससीस - भुजबीस भारी ॥७॥

दुष्ट विबुधारी - संघात, अपहरण महि - भार, अवतार कारण अनूपं ।

अमल, अनवद्य, अद्वैत, निर्गुण, सगुण, ब्रह्म सुमिरामि नरभूप - रुपं ॥८॥

शेष - श्रुति - शारदा - शंभु - नारद - सनक गनत गुन अंत नहिं तव चरित्रं ।

सोइ राम कामारि - प्रिय अवधपति सर्वदा दासतुलसी - त्रास - निधि वहित्रं ॥९॥

भावार्थः-- सूर्यवंशरुपी कमलको खिलानेके लिये जो सूर्य हैं, करोड़ों कामदेवोंके समान जिनकी सुन्दरता है, कलिकालरुपी सर्पको ग्रसनेके लिये जो गरुड़ हैं, अपने प्रबल भुजदण्डोंमें जिन्होंने प्रचण्ड धनुष और बाण धारण कर रखे हैं, जो तरकस बाँधे हैं और जिनका बल असीम हैं ॥१॥

लाल कमलकी पँखुड़ियों - जैसे जिनके नेत्र हैं, जो शोभाके धाम हैं, जिनके साँवरे शरीरकी सुन्दर कान्ति मेघके समान है । जो तपे हुए सोनेके समान पीताम्बर धारण किये हैं, जो शस्त्र - विद्यामें निपुण और सिद्धों तथा देवताओंके उपास्य हैं और जिनकी नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ है ॥२॥

जो सम्पूर्ण सुन्दरताके स्थान हैं, सारा विश्व ही जिनकी मूर्ति है, जो बड़े ही बुद्धिमान् और रहस्यमय गुणवाले हैं, जिनकी अपार महिमा है, जिनको कोई भी नहीं जीत सकता और जिनकी लीलाका पार कोई भी नहीं पा सकता, जिनको पहचानना बड़ा कठिन है, जो स्वर्ग और मोक्षके स्वामी तथा आवागमनरुपी संसारके वृक्षकी जड़ काटनेके लिये कुठार हैं ॥३॥

जो गौतम मुनिकी स्त्री अहल्याको शापसे मुक्त करनेवाले, विश्वामित्रके यज्ञकी यज्ञकी रक्षा करनेमें बड़े चतुर और अपने भक्तोंका पक्ष करनेवाले हैं, तथा राजा जनककी सभामें शिवजीके धनुषको तोड़कर महान् तेजस्वी एवं क्रोधी परशुरामजीके गर्व और महत्त्वको हरण करनेवाले हैं ॥४॥

जिन्होंने पिताके वचनोंका गौरव रखनेके लिये, देवता भी जिसको बड़ी कठिनतासे छोड़ सकते हैं, ऐसे राज्यको सहजमें ही त्याग दिया और भाई लक्ष्मण तथा श्रीजानकीजीको साथ लेकर, अजन्मा परब्रह्म होकर भी नरलीलासे तीनों लोकोंकी रक्षाके लिये रावणादि दुष्ट राक्षसोंका संहार किया ॥५॥

जिन्होंने अपने पावन चरणकमलोंसे दण्डक वनको पवित्र कर दिया, कपट मृगरुपी मारीचका नाश कर दिया, जो बालिरुपी महान् बलसे मतवाले हाथीके संहारके लिये सिंहरुप हैं और सुग्रीवके समस्त दुःखोंका नाश करनेवाले परम सुहद हैं ॥६॥

जिन्होंने भयंकर और बड़े भारी शूरवीर रीछ - बन्दरोंको साथ लेकर संग्राममें कुम्भकर्ण - सरीखे पर्वतके समान आकारवाले योद्धाओंको डरा दिया, समुद्रको बाँध लिया, देवताओंके समूहको रावणके बन्धनसे छुड़ा दिया और दस सिर तथा विशाल बीस भुजाओंवाले रावणका कुलसहित नाश कर दिया ॥७॥

देवताओंके शत्रु दुष्ट राक्षसोंके समूहका, जो पृथ्वीपर भाररुप था, संहार करनेके लिये अवतार लेनेमें उपमारहित कारणवाले, निर्मल, निर्दोष, अद्वैतरुप, वास्तवमें निर्गुण, मायाको साथ लेकर सगुण, परब्रह्म नररुप राजराजेश्वर श्रीरामका मैं स्मरण करता हूँ ॥८॥

शेषजी, वेद, सरस्वती, शिवजी, नारद और सनकादि सदा जिनके गुण गाते हैं, परंतु जिनकी लीलाका पार नहीं पा सकते, वही शिवजीके प्यारे अयोध्यानाथ श्रीराम इस तुलसीदासको दुःखरुपी समुद्रसे पार उतारनेके लिये सदा - सर्वदा जहाजरुप हैं ॥९॥

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Last Updated : August 25, 2009

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