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विनयावली ९६

विनय पत्रिका - विनयावली ९६

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


ऐसे राम - दीन हितकारी ।

अतिकोमल करुनानिधान बिनु कारन पर - उपकारी ॥१॥

साधन - हीन दीन निज अघ - बस , सिला भई मुनि - नारी ।

गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारी ॥२॥

हिंसारत निषाद तामस बपु , पसु - समान बनचारी ।

भेंट्यो हदय लगाइ प्रेमबस , नहिं कुल जाति बिचारी ॥३॥

जद्यपि द्रोह कियो सुरपति - सुत , कहि न जाय अति भारी ।

सकल लोक अवलोकि सोकहत , सरन गये भय टारी ॥४॥

बिहँग जोनि आमिष अहार पर , गीध कौन ब्रतधारी ।

जनक - समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी ॥५॥

अधम जाति सबरी जोषित जड़ , लोक - बेद तें न्यारी ।

जानि प्रीति , दै दरस कृपानिधि , सोउ रघुनाथ उधारी ॥६॥

कपि सुग्रीव बंधु - भय - ब्याकुल आयो सरन पुकारी ।

सहि न सके दारुन दुख जनके , हत्यो बालि , सहि गारी ॥७॥

रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर , कौन भजन अधिकारी ।

सरन गये आगे ह्लै लीन्हों भेंट्यो भुजा पसारी ॥८॥

असुभ होइ जिन्हके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी ।

बेद - बिदित पावन किये ते सब , महिमा नाथ ! तुम्हारी ॥९॥

कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी ।

कलिमल - ग्रसित दासतुलसीपर , काहे कृपा बिसारी ? ॥१०॥

भावार्थः - दीनोंका ऐसा हित करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी हैं , वे अति कोमल , करुणाके भण्डार और बिना ही कारण दूसरोंका उपकार करनेवाले हैं ॥१॥

साधनोंसे रहित , दीन , गौतम ऋषिकी स्त्री अहल्या , अपने पापोंके कारण शिला हो गयी थी । उसे आपने घरसे चलकर , अपने पवित्र चरणसे छूकर , घोर शापसे छुड़ा दिया ॥२॥

हिंसामें रत गुह निषाद जिसका तामसी शरीर था , और जो पशुकी तरह वनमें फिरता रहता था , उसे आपने वंश और जातिका विचार किये बिना ही , प्रेमके वश होकर हदयसे लगा लिया ॥३॥

यद्यपि इन्द्रके पुत्र जयन्तने ( काकरुपसे श्रीसीताजीके चरणमें चोंच मारकर ) इतना भारी अपराध किया था , कि कुछ कहा नहीं जा सकता तथापि जब वह ( बाणके मारे घबराकर रक्षाके लिये ) सब लोकोंको देख फिरा और फिर शोकसे व्याकुल होकर शरणमें आया , तब उसका सारा भय दूर कर दिया ॥४॥

जटायु गीध पक्षीकी योनिका था , सदा मांस खाया करता था । उसने ऐसा कौन - सा व्रत धारण किया था कि जिसकी आपने अपने हाथसे , पिताके समान अन्त्येष्टि - क्रिया कर सब बातें सुधार दीं , अर्थात् मुक्ति प्रदान कर दी ॥५॥

शबरी नीच जातिकी मूर्खा स्त्री थी । जो लोक और वेद दोनोंसे ही बाहर थी । परन्तु उसका सच्चा प्रेम समझकर कृपालु रघुनाथजीने उसे भी कृपापूर्वक दर्शन देकर उद्धार कर दिया ॥६॥

सुग्रीव बन्दर अपने भाई ( बालि ) - के भयसे उस दासका दारुण दुःख नहीं सह सके और गालियाँ सहकर भी बालिका वध कर डाला ॥७॥

विभीषण , शत्रु ( रावण ) - का भाई था और जातिका राक्षस था ! वह किस भजनका अधिकारी था ? किन्तु जब वह आपकी शरणमें आया तब आपने उसे आगे बढ़कर लिया और भुजा पसारकर हदयसे लगाया ॥८॥

बन्दर और रीछ ऐसे अधर्मी हैं कि उनका नामतक लेनेसे अमंगल होता है , किंतु हे नाथ ! उनको भी आपने पवित्र बना दिया । वेद इस बातके साक्षी है । यह सब आपकी हैं ॥९॥

मैं कहाँतक कहूँ ऐसे असंख्य दीन हैं , जिनकी विपत्तियाँ आपने दूर कर दी हैं , किन्तु न जाने इस तुलसीदासपर , जो कलियुगके पापोंसे जकड़ा हुआ है , आप कृपा करना क्यों भूल गये ॥१०॥

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Last Updated : November 11, 2010

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