रामभद्र ! मोहिं आपनो सोच है रु नाहीं ।
जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं ॥१॥
नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ ।
तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ ॥२॥
बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं ।
कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाईं ॥३॥
भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी ।
बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब - सिर गारी ॥४॥
असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै ।
दीनबंधु ! कीजै सोई बनि परै जो बूझै ॥५॥
बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं ।
तुलसी प्रभुको परिहर्यो सरनागत सो हौं ॥६॥
भावार्थः- हे कल्याण - स्वरुप रामचन्द्रजी ! मुझे अपना सोच है भी और नहीं भी है, क्योंकि इस संसारमें जितने जीव हैं वे सभी संतापके पात्र हैं, ( सभी दुःखी हैं ) ॥१॥
पर क्या आप - जैसे बड़े समर्थसे सिर्फ एक मेरी ही ओरसे सम्बन्ध है ? ( शायद यही हो क्योंकि ) आपको तो मेरे - जैसे बहुतेरे हैं, किन्तु मेरे तो एक आप ही हैं ॥२॥
हे नाथ ! आप तो घट - घटकी जानते हैं, मेरे हदयमें बड़ी ग्लानि हो रही है और इसीको मैं हानि समझता हूँ कि, मैं हूँ तो दुष्ट और बुरा सेवक, नमकहराम नौकर, पर बातें कर रहा हूँ सच्चे सेवक - जैसी । भाव यह है कि मेरा यह दम्भ आप सर्वज्ञके सामने कैसे छिप सकता है ? ॥३॥
परन्तु भला हूँ या बुरा, सब स्त्री - पुरुष मुझे कहते तो रामका ही हैं न ? सेवक और कुत्तेके बिगड़नेसे स्वामीके सिर ही गालियाँ पड़ती हैं । भाव यह कि यदि मैं बुराई करुँगा तो लोग आपको ही बुरा कहेंगे ॥४॥
मुझे वह उपाय भी नहीं सूझ रहा है, कि जिससे चित्तका यह असमंजस मिटे अर्थात मेरी नीचता दूर हो जाय और आपको भी कोई भलाबुरा न कहे । अब हे दीनबन्धु ! जो आपको उचित जान पड़े और जो बन सके, वही ( मेरे लिये ) कीजिये ॥५॥
तनिक अपनी विरदावलीकी ओर तो देखिये ! मैं उन्हींमें कोई हूँगा ! ( भाव यह कि आप दीनबन्धु हैं, तो क्या मैं दीन नहीं हूँ, आप पतित - पावन हैं, तो क्या मैं पतित नहीं हूँ, आप प्रणतपाल है, तो क्या मैं प्रणत नहीं हूँ ? इनमेंसे कुछ भी तो हुँगा । ) ( इतनेपर भी ) यदि स्वामी इस तुलसीको छोड़ देंगे, तो भी यह उन्हींके सामने शरणमें जाकर पड़ा रहेगा । ( आपको छोड़कर कहीं जा नहीं सकता ) ॥६॥