कीजै मोको जमजातनामई ।
राम ! तुमसे सुचि सुहद साहिबहिं , मैं सठ पीठि दई ॥१॥
गरभबास दस मास पालि पितु - मातु - रुप हित कीन्हों ।
जड़हिं बिबेक , सुसील खलहिं , अपराधिहिं आदर दीन्हों ॥२॥
कपट करौं अंतरजामिहुँ सों , अघ ब्यापकहिं दुरावौं ।
ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं ॥३॥
उदर भरौं किंकर कहाइ बेंच्यौ बिषयनि हाथ हियो है ।
मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि कै छोह कियो है ॥४॥
पल - पलके उपकार रावरे जानि बूझि सुनि नीके ।
भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय - पीके ॥५॥
स्वामीकी सेवक - हितता सब , कछु निज साएँ - द्रोहाई ।
मैं मति - तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरुआई ॥६॥
एतेहु पर हित करत नाथ मेरो , करि आये , अरु करिहैं ।
तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं ॥७॥
भावार्थः - हे नाथ ! मुझे तो आप यमकी यातनामें ही डाल दीजिये , ( नरकोंमें ही भेजिये ), क्योंकि हे श्रीरामजी ! मैं ऐसा दुष्ट हूँ कि मैंने आप सरीखे पवित्र और सुहद ( बिना ही कारण हित करनेवाले ) स्वामीको पीठ दे रखी है ॥१॥
गर्भमें आपने माता - पिताके समान द्स महीनेतक मेरा पालन - पोषण कर ( कितना ) हित किया । मुझ मूर्खको आपने शुद्ध ज्ञान , मुझ दुष्टको सुन्दर शील और मुझ अपराधीको आदर दिया । इतनेपर भी मैं आपका भजन न करके आपसे उलटा ही चलता हूँ ॥२॥
मैं अन्तर्यामी प्रभुके साथ भी कपट करता हूँ , घट - घटमें रमनेवाले सर्वव्यापिसे अपने पाप छिपाता हूँ । ( परन्तु धन्य है आपको कि ) ऐसे दुर्बुद्धि और नीच नौकरपर भी हे रामजी ! आपने अपना मन प्रतिकूल नहीं किया ॥३॥
पेट तो भरता हूँ आपका दास कहाकर , किन्तु हदयको विषयोंके हाथ बेच रखा है तो भी मुझ - सरीखे ठगपर भी हे कृपालु ! आपने निष्कपटभावसे कृपा ही की है ॥४॥
आपके पल - पलके उपकारोंको भलीभाँति जानकर , समझकर और सुनकर भी मेरा वज्रसे भी अधिक कठोर चित्त कभी श्रीजानकीनाथजीके प्रेममें नहीं भिदा ॥५॥
मैंने जब अपनी बुद्धिरुपी तराजूपर एक ओर स्वामीकी सारी सेवक - वत्सलता और दूसरी ओर अपना जरा - सा स्वामीद्रोह रखकर तौला , तब देखनेपर मेरी ही ओरका पलड़ा भारी निकला ॥६॥
इतनेपर भी हे नाथ ! आप कृपा कर मेरा हित ही करते चले आ रहे हैं , करते हैं और करेंगे । तुलसी अपनी ओरसे जानता है कि इस कनौड़ेका ( एहसानसे दबे हुएका ) प्रभु ही पालन करेंगे ॥७॥