जो पै जिय जानकी - नाथ न जाने ।
तौ सब करम - धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने ॥१॥
जे सुर , सिद्ध , मुनीस , जोगबिद बेद - पुरान बखाने ।
पूजा लेत , देत पलटे सुख हानि - लाभ अनुमाने ॥२॥
काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने ।
बिप्र - बधिक , गज - गीध कोटि खल कौनके पेट समाने ॥३॥
मेरु - से दोष दूरि करि जनके , रेनु - से गुन उर आने ।
तुलसिदास तेहि सकल आस तजि भजहि न अजहुँ अयाने ॥४॥
भावार्थः - अरे जीव ! यदि तूने जानकीनाथ श्रीरघुनाथजीको ( तत्त्वसे ) नहीं जाना तो तेरे सब कर्म , धर्म केवल परिश्रम ही देनेवाले हैं । ( उनसे कोई असली लाभ नहीं होगा ) बुद्धिमान पुरुषोंने ऐसा ही कहा है । ( श्रीरामचन्द्रजीको तत्त्वसे जान लेनेमें ही सारे कर्म - धर्मोंकी सिद्धि है ) ॥१॥
वेद और पुराण कहते हैं कि जितने देवता , सिद्ध , मुनीश्वर और योगके ज्ञाता हैं वे सब पूजा लेकर उसके बदलेमें ( नाशवान् सांसारिक विषय ) सुख देते हैं और ऐसा भी वे अपनी हानि और लाभका विचार करके करते हैं ॥२॥
आपके सिवा ( ऐसा ) किसका नाम है जिसका धोखेसे भी स्मरण करनेसे पापोंके समूह नष्ट हो जाते हैं ? अजामिल ब्राह्मण , वाल्मीकि व्याध , गजराज , जटायु गीध आदि करोड़ों दुष्ट किसके अंदर समा गये ? ( आपने ही उनको स्वीकार कर अपना परम धाम दे दिया ॥३॥
जो अपने सेवकोंके सुमेरु पहाड़के समान ( बड़े - बड़े ) अपराधोंको भुलाकर उनकी रजके कणके समान ( जरा - जरा - से ) गुणोंको हदयमें रख लेते हैं , हे तुलसीदास ! हे मूर्ख ! सारी आशा छोड़कर तू उन्हींको क्यों नहीं भजता ? ॥४॥