तब तुम मोहूसे सठनिको हठि गति न देते ।
कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर , सुनि सादर आगे ह्वै लेते ॥१॥
पाप - खानि जिय जानि अजामिल जगमन तमकि तये ताको भे ते ।
लियो छुड़ाइ , चले कर मींजत , पीसत दाँत गये रिस - रेते ॥२॥
गौतम - तिय , गज , गीध , बिटप , कपि , हैं नाथहिं नीके मालुम जेते ।
तिन्ह तिन्ह काजनि साधु - समाजु तजि कृपासिंधु तब तब उठिगे ते ॥३॥
तिन्हके काज
अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे , पतित पुनीत होत नहिं केते ।
मेरे पासंगहु न पूजिहैं , ह्वै गये , हैं , होने खल जेते ॥४॥
हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते ।
अब तुलसी पूतरो बाँधिहै , सहि न जात मोपै परिहास एते ॥५॥
भावार्थः - ( जब अनेक दुष्टोंको परम गति दी है ) तब आप मुझ - सरीखे दुष्टोंको हठपूर्वक परम पद क्यों नहीं देते ? कोई भी पापी कैसे ही आपका नाम लेता हो , सुनते ही आप बड़े आदरके साथ उसे आगे होकर ( अपनी गोदमें ले ) लेते हैं , फिर मेरे ही लिये ऐसा क्यों नहीं करते ? ॥१॥
अजामिलको यमदूतोंने अपने मनमें पापोंकी खान समझ , तमककर भय दिखाते हुए उसे कष्ट दिया , किन्तु आपने उसे ( मरते समय धोखेसे ' नारायण ' नाम लेनेपर ही ) उनके हाथसे छुड़ा लिया । यमदूत हाथ मलते और क्रोधस्से मारे दाँत पीसते हुए खाली हाथ ही लौट गये ॥२॥
गौतमकी स्त्री ( अहल्या ), गजराज , गीध ( जटायु ), वृक्ष ( यमलार्जुन ) और बंदर ( सुग्रीव ) आदि कैसे थे सो नाथको अच्छी तरह मालूम है , परन्तु जब उन सबका काम पड़ा , तब आप संत - समाजको भी छोड़कर ( उनकी सहायताके लिये ) वहाँसे चल दिये ॥३॥
आज भी इस आपके दरवाजेपर ऐसोंका ही अधिक आदर है और न जाने कितने पापी नित्य पवित्र बनाये जाते हैं । ऐसा होते हुए भी अबतक मेरी सुनायी क्यों नहीं हुई ? क्या मैं कम पापी हूँ ? संसारमें जितने दुष्ट हुए हैं , और होंगे , वे सब तो मेरे पसंगेमें भी पूरे न होंगे ॥४॥
अबतक तो मैं आपके करतबकी ओर टक लगाये देख रहा था , ( बाट देखता था कि मेरा भी उद्धार कभी कर देंगे ) । परन्तु आपने इधर कोई ध्यान नहीं दिया । इसलिये बस , अब तुलसीदास आपके नामका पुतला बाँधेगा , क्योंकि मुझसे अब इतना उपहास सहन नहीं होता ॥५॥