ऐसेहू साहबकी सेवा सों होत चोरु रे ।
आपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरु रे ॥१॥
मुनि - मन - अगम, सुगम माइ - बापु सों ।
कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों ॥२॥
लोक - बेद - बिदित बड़ो न रघुनाथ सों ।
सब दिन सब देस, सबहिके साथ सों ॥३॥
स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी ।
प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी ॥४॥
काय न कलेस - लेस, लेत मान मनकी ।
सुमिरे सकुचि रुचि जोगवत जनकी ॥५॥
रीझे बस होत, खीझे देत निज धाम रे ।
फलत सकल फल कामतरु नाम रे ॥६॥
बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे ।
सोऊ तुलसी निवाज्य ऐसो राजाराम रे ॥७॥
भावार्थः-- अरे ! तू ऐसे स्वामीकी सेवासे भी अपना जी चुराता है । तुझमे न तो अपनी समझ है और न तुझे दूसरेके कहेका ही कुछ खयाल है, तू तो किसी भी कामका नहीं, पत्थरका रोड़ा है ॥१॥
जो भगवान् श्रीराम मुनियोंके मनको भी अगम हैं, वही भक्तोंके लिये माता - पिताके समान हैं, वे कृपाके समुद्र हैं, स्वभावसे ही मित्र और अपने - आप ही प्रेम करनेवाले हैं ॥२॥
या बात लोक और वेदमें प्रसिद्ध है कि श्रीरघुनाथजीसे बड़ा कोई भी नहीं है, वे सर्वदा सर्वत्र और सभीके साथ रहते हैं ॥३॥
( सच्चे मनसे श्रीरामसे प्रेम कर, क्योकि ) वे स्वामी सर्वज्ञ हैं, उनसे सेवककी चोरी छिपी नहीं रह सकती । वहाँ प्रेमकी ही पहचान होती है, यही उनके दरबारकी नीति है ॥४॥
उनकी सेवामें शरीरको जरा - सा भी कष्ट नहीं पहुँचता, वे स्वामी मनके प्रेम और सेवाको ही मान लेते हैं । प्रेमसे स्मरण करते ही वे संकोचमें पड़ जाते हैं और सेवककी रुचि देखने लगते हैं, अर्थात् भक्तोंको मनमानी वस्तु देकर भी इसी संकोचमें रहते हैं कि हमने कुछ भी नहीं दिया ॥५॥
वह जिसपर प्रसन्न होते हैं, उसके वशमें हो जाते हैं और जिसपर नाराज होते हैं उसे ( देहके बन्धनसे छुड़ाकर ) अपने परम धाममें भेज देते हैं । उनका नाम कल्पवृक्षके समान है, जिसमें सब प्रकारके फल फलते हैं ॥६॥
जिसके बेचनेपर एक खोटा पैसा नहीं मिलता और रखनेसे कुछ काम नहीं निकलता, ऐसे तुलसीदासको भी जिन्होंने निहाल कर दिया, ऐसे राजाधिराज श्रीरामजीका क्या कहना है ? ॥७॥