मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो ।
याके लिये सुनहु करुनामय , मैं जग जनमि - जनमि दुख रोयो ॥१॥
सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो ।
बहु भाँतिन स्रम करत मोहबस , बृथहि मंदमति बारि बिलोयो ॥२॥
करम - कीच जिय जानि , सानि चित , चाहत कुटिल मलहि मल धोयो ।
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि - फिरि बिकल अकास निचोयो ॥३॥
तुलसिदास प्रभु ! कृपा करहु अब , मैं निज दोष कछू नहिं गोयो ।
डासत ही गइ बीति निसा सब , कबहुँ न नाथ ! नींद भरि सोयो ॥४॥
भावार्थः - इस मूर्ख मनने मुझको खूब ही छकाया । हे करुणामय ! सुनिये , इसीके कारण मैं बारंबार जगतमें जनम - जनमकर दुःखसे रोता फिरा ॥१॥
शीतल और मधुर अमृतरुप सहजसुख ( ब्रह्मानन्द ) जो अत्यन्त निकट ही रहता है , ( आत्माका स्वरुप ही सत , चित , आनन्दघन है ) मैंने इस मनके फेरमें पड़कर उसे यों भुला दिया , मानो वह बहुत ही दूर हो । मोहवश अनेक प्रकारसे परिश्रम कर मुझ मुर्खने व्यर्थ ही पानीको बिलोया ( विषयरुपी जलको मथकर उससे परमानन्दरुपी घी निकालना चाहा ) ॥२॥
यद्यपि मनमें यह जानता था कि कर्म कीचड़ है , ( उसमें पड़ते ही सब ओरसे मलिनता छा जायगी ) फिर भी चित्तको उसीमें सानकर ( प्यास बुझानेके लिये ) मैं कुटिल , मलसे ही मलको धोना चाहता हूँ । प्यास लग रही है , पर मैं ऐसा दुष्ट हूँ कि श्रीगंगाजीको छोड़कर बार - बार व्याकुल हो आकाश निचोड़ता फिरता हूँ , ( सच्चे सुखकी प्राप्तिके लिये दुःखरुप विषयोंमें भटकता हूँ ) ॥३॥
हे नाथ ! मैंने अपना एक भी दोष आपसे नहीं छिपाया है , अतः अब इस तुलसीदासपर कृपा कीजिये । मुझे बिछौना बिछाते - बिछाते ही सारी रात बीत गयी , पर हे नाथ ! कभी नींदभर नहीं सोया । ( सुखप्राप्तिके उपाय करते - करते ही जीवन बीत गया , आपको प्राप्त कर पूर्णकाम हो बोधरुम सुखकी नींदमें कभी नहीं सो पाया । अब तो कृपा कीजिये ) ॥४॥