मन मेरे, मानहि सिख मेरी । जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥१॥
उर आनहि प्रभु - कृत हित जेते । सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥२॥
दुख - सुख अरु अपमान - बड़ाई । सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥३॥
सुनु सठ काल - ग्रसित यह देही । जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥४॥
तुलसिदास बिनु असि मति आये । मिलहिं न राम कपट लौ लाये ॥५॥
भावार्थः- हे मेरे मन ! यदि तू अपने हदयमें भगवानकी शक्ति चाहता है, ते मेरी सीख मान ॥१॥
भगवानने ( गर्भवाससे लेकर अबतक ) तेरे ऊपर जो ( अपार ) उपकार किये हैं उनको याद कर, और अहंकार छोड़कर, बड़ी सावधानीसे तत्पर होकर उनकी सेवा कर ॥२॥
सुख - दुःख, मान - अपमान, सबको समान समझ; तभी तेरी विपत्ति दूर होगी ॥३॥
अरे दुष्ट ! इस शरीरको तो कालने ग्रस ही रखा है, इसके लिये किसीको दोष मत दे ॥४॥
तुलसीदास कहता है कि ऐसी बुद्धि हुए बिना, केवल कपट - समाधि लगानेसे श्रीरामजी कभी नहीं मिलते, वे तो सच्चे प्रेमसे ही मिलते हैं ॥५॥