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विनयावली ५६

विनय पत्रिका - विनयावली ५६

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


मन मेरे, मानहि सिख मेरी । जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥१॥

उर आनहि प्रभु - कृत हित जेते । सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥२॥

दुख - सुख अरु अपमान - बड़ाई । सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥३॥

सुनु सठ काल - ग्रसित यह देही । जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥४॥

तुलसिदास बिनु असि मति आये । मिलहिं न राम कपट लौ लाये ॥५॥

भावार्थः- हे मेरे मन ! यदि तू अपने हदयमें भगवानकी शक्ति चाहता है, ते मेरी सीख मान ॥१॥

भगवानने ( गर्भवाससे लेकर अबतक ) तेरे ऊपर जो ( अपार ) उपकार किये हैं उनको याद कर, और अहंकार छोड़कर, बड़ी सावधानीसे तत्पर होकर उनकी सेवा कर ॥२॥

सुख - दुःख, मान - अपमान, सबको समान समझ; तभी तेरी विपत्ति दूर होगी ॥३॥

अरे दुष्ट ! इस शरीरको तो कालने ग्रस ही रखा है, इसके लिये किसीको दोष मत दे ॥४॥

तुलसीदास कहता है कि ऐसी बुद्धि हुए बिना, केवल कपट - समाधि लगानेसे श्रीरामजी कभी नहीं मिलते, वे तो सच्चे प्रेमसे ही मिलते हैं ॥५॥

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Last Updated : March 22, 2010

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