जो मोहि राम लागते मीठे ।
तौ नवरस षटरस - रस अनरस ह्वै जाते सब सीठे ॥१॥
बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरु डीठे ।
यह जानत हौं हदय आपने सपने न अघाइ उबीठे ॥२॥
तुलसिदास प्रभु सों एकहिं बल बचन कहत अति ढीठे ।
नामकी लाज राम करुनाकर केहि न दिये कर चीठे ॥३॥
भावार्थः - यदि मुझे श्रीरामचन्द्रजी ही मीठे लगे होते , तो ( साहित्यके ) नवरस एवं ( भोजनके ) छः रस नीरस और फीके पड़ जाते ( पर रामजी मीठे नहीं लगते , इसीलिये विषयभोग मीठे मालूम होते हैं ) ॥१॥
मैं भाँति - भाँतिके शरीर धारण कर यह अनुभव कर चुका हूँ तथा मैंने सुना और देखा भी है कि ( संसारके ) विषय ठग हैं । ( मायामें भुलाकर परमार्थरुपी धन हर लेते हैं ) यद्यपि यह मैं अपने जीमें अच्छी तरह जानता हूँ , तथापि कभी स्वपनमें भी , इनसे तृप्त होकर मेरा मन नहीं उकताया ( कैसी नीचता है ? ) ॥२॥
पर तुलसीदास अपने स्वामी श्रीरघुनाथजीसे एक ही बलपर ये ढिठाईभरे वचन कह रहा है । ( और वह बल यह है कि ) हे नाथ ! आपने अपने नामकी लाजसे किस - किसको दया करके ( भवबन्धनसे छूटनेके लिये ) परवाने नहीं लिख दिये हैं ? ( जिसने आपका नाम लिया , उसीको मुक्तिका परवाना मिल गया , इसीलिये मैं भी यों कह रहा हूँ ) ॥३॥