आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै ।
तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै ॥१॥
निज अवगुन , गुन राम ! रावरे लखि - सुनि मति - मन रुझै ।
रहनि - कहनि - समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै ॥२॥
भावार्थः - हे नाथ ! यदि इस जीवको अपना कल्याण आपके द्वारा होता दीख पड़े , तो यह जबतक शरीरपर सिर है तबतक ( बिना सिरके ) कबन्धकी तरह क्यों लड़ता फीरे ? ( भगवानकी कृपाका भरोसा नहीं है , इसीसे तो सिर रहते हुए ही - सिरपर भगवानके रहते हुए ही - यह अपनेको मस्तकहीन मानकर - भगवानको भुलाकर - अन्धेकी - ज्यों सुखके लिये हर किसीसे लड़ रहा है । परन्तु मस्तक बिना - भगवानके आधार बिना - न तो लड़कर जीत ही सकेगा और न कल्याण ही होगा ) ॥१॥
अपने अवगुण और आपके देवदुर्लभ गुणोंको देख - सुनकर , हे रामजी ! मेरी बुद्धि और मन रुक जाते हैं । संकोच होता है कि ऐसे मलिन कर्मोंवाला मैं आप सच्चिदानन्दघनके सामने कैसे जाऊँ । हे कृपालो ! तुलसीका आचरण , कथन और रहस्य आपको छोड़कर और कौन समझ सकता है ? ( आप इस दीनकी सारी स्थिति जानते हैं , अपनी कृपा - दृष्टिसे ही इसका उद्धार कीजिये ) ॥२॥