नाहिंन चरन - रति ताहि तें सहौं बिपति ,
कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर ।
बसै जो ससि - उछंग सुधा - स्वादित कुरंग ,
ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर - नीर ॥१॥
सुनिय नाना पुरान , मिटत नाहिं अग्यान ,
पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर ।
बँधत बिनहिं पास सेमर - सुमन - आस ,
करत चरत तेइ फल बिनु हीर ॥२॥
कछु न साधन - सिधि , जानौं न निगम - बिधि ,
नहिं जप - तप , बस मन , न समीर ।
तुलसिदास भरोस परम करुना - कोस ,
प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर ॥३॥
भावार्थः - श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें मेरा प्रेम नहीं है , इसीसे मैं विपत्तियोंको भोग रहा हूँ , ( मेरा ही नहीं ) वेदों और समस्त बुद्धिमान् मुनियोंका ( भी ) यही कहना है । क्योंकि जो हिरण चन्द्रमाकी गोदमें बैठा अमृतका स्वाद ले रहा है , उसे भला मृगतृष्णाके जलमें भ्रम क्यों होगा ? ( जिस जीवने श्रीरामपद कमलोंके प्रेमानन्दका अनुभव कर लिया , वह मिथ्या संसारी सुखोंमें क्यों भूलेगा ? ) ॥१॥
जैसे पक्षी ( तोता ) पढ़ता तो सब है , पर समझता कुछ नहीं है , वैसे ही बिना समझे अनेक पुराण सुननेसे अज्ञान नहीं मिटता । ( अज्ञानी ) तोता बिना ही फंदेके स्वयं बँध जाता है , आप ही चौंगली पकड़कर लटक रहता है ; वह ( मूर्ख तोता ) सेमरके फूलकी आशा करता है ; पर ज्यों ही उसमें चोंच मारता है , उसे बिना गूदेका फल मिलता है अर्थात् रुईके सिवा उसमें खानेके लिये कुछ भी नहीं मिलता , तब पछतात है ( इसी प्रकार मनुष्य विषयरुपी चौंगली पकड़कर आप ही बँधा रहता है तथा विषयोंसे सुखी होनेकी आशासे उनके बटोरनेमें लगा रहता है । परन्तु बिछुड़ते ही दुःखी हो जाता है ) ॥२॥
न तो मेरे पास कोई साधन है और न मुझे कोई सिद्धि ही प्राप्त है । न मैं वैदिक विधियोंको ही जानता हूँ , न मुझे जप - तप करना आता है और न प्राणायामासे ही मैंने मन वशमें किया है । इस तुलसीदासको तो करुणाके भण्डार भगवान् रामचन्द्रजीका ही एकमात्र भरोसा है । वही इसकी भयानक सांसारिक विपत्तिको दूर करेंगे , जन्म - मरणसे मुक्त करेंगे ॥३॥