ऐसेहि जनम - समूह सिराने ।
प्राननाथ रघुनाथ - से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥१॥
जे जड़ जीव कुटिल , कायर , खल , केवल कलिमल - साने ।
सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ , हरितें अधिक करि माने ॥२॥
सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने ।
सदा मलीन पंथके जल ज्यों , कबहुँ न हदय थिराने ॥३॥
यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने ।
तुलसी चित - चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥४॥
भावार्थः - इसी प्रकार अनेक जन्म ( व्यर्थ ) बीत गये । प्राणनाथ रघुनाथजी - सरीखे स्वामीको छोड़कर दूसरोंके चरणोंकी सेवा करता रहा ! ॥१॥
जो मूर्ख जीव कुटिल , कायर और दुष्ट है९ तथा जो केवल कलिके पापोंसे सने हुए हैं , उनकी प्रशंसा करते - करते मुँह सूख गया है और उनको भगवानसे भे अधिक समझ रखा है ॥२॥
सुखके लिये निरन्तर करोड़ों उपाय करते - करते कभी पैर नहीं दुखे ( दिन - रात विषय - भोगोंके सुखोंमें इधर - उधर भटकता फिरा ) । हदय रास्तेके जलकी भाँति सदा मैला ही बना रहा , कभी निर्मल अथवा स्थिर नहीं हुआ ॥३॥
इस दीनताको दूर करनेके लिये अगणित उपाय मनमें सोचे , पर हे तुलसी ! चिन्तामणि ( श्रीरघुनाथजी ) - को पहचाने बिना चित्तकी चिन्ता नहीं मिट सकती ( परमात्माका और उनकी सुहदताका ज्ञान होनेसे ही चिन्ताओंका नाश होगा ) ॥४॥