इहै कह्यो सुत ! बेद चहूँ ।
श्रीरघुबीर - चरन - चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ ॥१॥
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ ।
सुक - सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ ॥२॥
जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ ।
हरि - पद - पंकज पाइ अचल भए, करम - बचन - मनहूँ ॥३॥
करुनासिंधु, भगत - चिंतामणि, सोभा सेवतहूँ ।
और सकल सुर, असुर - ईस सब खाये उरग छहूँ ॥४॥
सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ ।
तुलसिदास रघुनाथ - बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ ॥५॥
भावार्थः- भक्त ध्रुवजीकी माता सुनीतिने पुत्रसे कहा था - हे पुत्र ! चारों वेदोंने यही कहा है कि श्रीरघुनाथजीके चरणोंके चिन्तनको छोड़कर जीवको और कहीं भी ठिकाना नहीं है ॥१॥
जिनके चरणोंका चिन्तन करके ब्रह्मा और शिवजीने भी सिद्धियाँ प्राप्त की है, ( जिनकी सेवासे ) आज शुक सनकादि जीवन्मुक्त हुए विचर रहे और अब भी जिनका स्मरण कर रहे हैं ॥२॥
यद्यपि लक्ष्मीजी बड़ी ही चंचला हैं, कहीं भी निरन्तर स्थिर नहीं रहतीं, परन्तु वे भी भगवानके चरण - कमलोंको पाकर मन, वचन, कर्मसे अचल हो गयी हैं अर्थात् निरन्तर मन, वाणी, शरीरसे सेवामें ही लगी रहती हैं ॥३॥
वे करुणाके समुद्र और भक्तोंके लिये चिन्तामणिस्वरुप हैं, उनकी सेवा करनेसे ही सारी शोभा है । और जितने देवता, दैत्योंके स्वामी हैं, सो सबी काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य - इन छः सर्पोंसे डसे हुए हैं ॥४॥
हे पुत्र ! ( तेरी विमाता ) सुरुचिने जो कुछ कहा है सो सुननेमें अत्यन्त कठोर होनेपर भी सत्य है । हे तुलसीदास ! श्रीरघुनाथजीसे विमुख रहनेसे विपत्तियोंका नाश कभी नहीं होता ॥५॥