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विनयावली १५२

विनय पत्रिका - विनयावली १५२

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


बलि जाउँ , और कासों कहौं ?

सदगुनसिंधु स्वामि सेवक - हित कहुँ न कृपानिधि - सो लहौं ॥१॥

जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं ।

तहँ तहँ तरनि तकर उलूक ज्यों भटकि कुतरु - कोटर गहौं ॥२॥

काल - सुभाउ - करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं ।

मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारुन दहौं ॥३॥

उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ ! किंकर न हौं ।

अब रावरो कहाइ न बूझिये , सरनपाल ! साँसति सहौं ॥४॥

महाराज ! राजीवबिलोचन ! मगन - पाप - संताप हौं ।

तुलसी प्रभु ! जब तब जेहि तेहि बिधि राम निबाहे निरबहौं ॥५॥

भावार्थः - प्रभो ! बलिहारी ! ( मैं अपने दुःख ) और किसे सुनाऊँ ? आपके सदृश सदगुणोंका समुद्र , सेवकोंका कल्याण करनेवाला और कृपानिधान स्वामी अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता ॥१॥

जहाँ - जहाँ लोभ और लालचवश चंचल चित्तमें अपने कल्याणकी कामना करता हूँ , वहाँ - वहाँसे मैं इस तरह निराश हो लौट आता हूँ , जैसे सूर्यको देखते ही उल्लू भटकता हुआ आकर वृक्षके कोटरमें घुस जाता है । ( जहाँ जिसके पास जाता हूँ , वहीं दुःखकी आग तैयार मिलती है ) ॥२॥

जब यह सुनता हूँ कि काल , स्वभाव और कर्म विचित्र फल देनेवाले हैं , तब सिर धुन - धुनकर रह जाता हूँ , क्योंकि मेरे लिये तो ये तीनों सदा एक - से ही हैं , मैं तो सदा ही दुःसह और दारुण दाहसे जला करता हूँ ॥३॥

हे नाथ ! मैं अबतक अपनेको अनाथ समझकर दुःखोंका पात्र बन रहा था सो उचित ही था , क्योंकि मैं आपका दास नहीं बना था ; किन्तु हे शरणागत - रक्षक ! अब आपका दास कहाकर भी मैं दुःख भोग रहा हूँ , इसका कारण समझमें नहीं आ रहा है ॥४॥

हे महाराज ! हे कमलनेत्र ! मैं पाप - सन्तापमें डूब रहा हूँ । हे प्रभो ! तुलसीदासका तभी निर्वाह हो सकता है , जब आप ही जिस - किसी प्रकारसे उसका निर्वाह करेंगे ॥५॥

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Last Updated : November 13, 2010

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