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विनयावली १९३

विनय पत्रिका - विनयावली १९३

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो ।

चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ

तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि - सो ॥१॥

नये - नये नेह अनुभये देह - गेह बसि ,

परखे प्रपंची प्रेम , परत उघरि सो ।

सुहद - समाज दगाबाजिहीको सौदा - सूत ,

जब जाको काज तब मिलै पाँय परि सो ॥२॥

बिबुध सयाने , पहिचाने कैधौं नाहीं नीके ,

देत एक गुन , लेत कोटि गुन भरि सो ।

करम - धरम , श्रम - फल रघुबर बिनु ,

राखको सो होम है , ऊसर कैसो बरिसो ॥३॥

आदि - अंत - बीच भलो भलो करै सबहीको

जाको जस लोक - बेद रह्यो है बगरि - सो ।

सीतापति सारिखो न साहिब सील - निधान ,

कैसे कल परै सठ ! बैठो सो बिसरि - सो ॥४॥

जीवको जीवन - प्रान , प्रानको परम हित

प्रीतम , पुनीतकृत नीचन निदरि सो ।

तुलसी ! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु ,

चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो ॥५॥

भावार्थः - अरे मन ! एक बार तू मेरी बात सुन ले । फिर तुझे जो अच्छा लगे सो करना । तू अपने चारों नेत्रों ( दो बाहरके और मन - बुद्धिरुप दो भीतरके ) - से देखकर बता कि तीनों लोकों और तीनों कालोंमें भगवानके समान तेरा हित करनेवाला कहीं कोई है ? ॥१॥

शरीररुपी घरमें रहकर तून (अनेक योनियोंमें ) नये - नये ( सम्बन्धियोंके ) प्रेमका अनुभव किया और उनके कपटभरे प्रेमको भी परख लिया । अन्तमें सबके प्रेमका भेद खुल गया । ( जगतके इस विषय - जनित सम्बन्धी )मित्रोंका क्या है ! यह दगाबाजीका सौदासूत ( लेन - देनका व्यवहार ) है । जब जिसका काम ( स्वार्थ ) होता है तब वह पैरोंपर गिरने लगता है ( परन्तु काम निकल जानेपर कोई बात भी नहीं पूछता । ) ॥२॥

देवता भी बड़े चतुर हैं , तूने उनको भलीभाँति पहचाना है या नहीं ? वे पहले करोड़गुना लेते हैं तब कहीं एकगुना देते हैं । अब रहे कर्म - धर्म , सो वे भी श्रीरामके ( आधार ) बिना केवल परिश्रममात्र हैं । ( जो भगवानको छोड़कर , ईश्वरकी परवा न केवल अपने सत्कर्मोंपर विश्वास करते हैं उनके वे सत्कर्म ठहर ही नहीं सकते ) उनका करना तो राखमें हवन करने या ऊसर जमीनपर पानी बरसनेके समान ( निष्फल ) है ॥३॥

जो आदिमें , मध्यमें और अन्तमें भले हैं और सभीका सदा कल्याण करते हैं , तथा जिनका यश लोक और वेदमें सर्वत्र फैल रहा है ऐसे श्रीसीतानाथ रामचन्द्रजीके समान शीलनिधान स्वामी दूसरा और कोई नहीं है । अरे दुष्ट ! तू उसे भूलासा बैठा है , फिर तुझे कैसे कल पड़ रहा है ॥४॥

अरे ! जो जीवका जीवन , प्राणोंका परम हितू , अत्यन्त प्रिय और नीचोंको पवित्र करनेवाला है , तू उसका निरादर कर रहा है । तुलसी ! कोशलपति कृपालु श्रीरामजीने तेरे लिये चित्रकूटमें जो लीला रची थी , ( घोडोंपर सवार दो सुन्दर राजपूत वीरोंके वेषमें साक्षात् दर्शन दिये थे ) उसे चित्तमें स्मरण कर ॥५॥

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Last Updated : November 13, 2010

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