सुमिरु सनेह - सहित सीतापति । रामचरन तजि नहिंन आनि गति ॥१॥
जप, तप, तीरथ, जोग समाधी । कलिमति बिकल, न कछु निरुपाधी ॥२॥
करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं । रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं ॥३॥
हरति एक अघ - असुर - जालिका । तुलसिदासप्रभु - कृपा - कालिका ॥४॥
भावार्थः -- रे मन ! प्रेमके साथ श्रीजानकी - वल्लभ रामजीका स्मरण कर । क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको छोड़कर तुझे और कहीं गति नहीं हैं ॥१॥
जप, तप, तीर्थ, योगाभ्यास, समाधि आदि साधन हैं; परन्तु कलियुगमें जीवोंकी बुद्धि स्थिर नहीं है इससे इन साधनोंमेंसे कोई भी विघ्नरहित नहीं रहा ॥२॥
आज पुण्य करते भी ( बुद्धि ठिकाने न होनेसे ) पापोंका नाश नहीं होता । रक्तबीज राक्षसकी भाँति ये पाप तो बढ़ते ही जा रहे हैं । भाव यह है कि बुद्धिकी विकलतासे पापमें पुण्य - बुद्धि और पुण्यमें पाप - बुद्धि हो रही हैं, इससे पुण्य करते भी पाप ही बढ़ रहे हैं ॥३॥
हे तुलसीदास ! इस पापरुपी राक्षसोके समूहको नाश तो केवल प्रभुकी कृपारुपी कालिकाजी ही करेंगी । ( भगवत्कृपाकी शरण लेनेके सिवा अब अन्य किसी साधनसे काम नहीं निकलेगा ) ॥४॥