रामको गुलाम, नाम रामबोला राख्यौ राम,
काम यहै, नाम द्वै हौं कबहूँ कहत हौं ।
रोटी - लूगा नीके राखै, आगेहूकी बेद भाखै,
भलो ह्वैहै तेरो, ताते आनँद लहत हौं ॥१॥
बाँध्यौ हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़,
सुनत दुसह हौं तौ साँसति सहत हौं ।
आरत - अनाथ - नाथ, कौसलपाल कृपाल,
लीन्हों छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं ॥२॥
बूझ्यौ ज्यौं ही, कह्यो, मैं हूँ चेरो ह्वैहौ रावरो जू
मेरो कोऊ कहूँ नाहिं, चरण गहत हौं ।
मींजो गुरु पीठ, अपनाइ गहि बाँह, बोलि
सेवक - सुखद, सदा बिरत बहत हौं ॥३॥
लोग कहैं पोच, सो न सोच न सँकोच मेरे
ब्याह न बरेखी, जाति - पाँति न चहत हौं ।
तुलसी अकाज - काज राम ही के रीझे - खीझे,
प्रीतिकी प्रतीति मन मुदित रहत हौं ॥४॥
भावार्थः-- मैं श्रीरामजीका गुलाम हूँ । लोग मुझे ' रामबोला ' कहने लगे हैं । काम यही करता हूँ कि कभी - कभी दो - चार बार राम - नाम कह लेता हूँ । इसीसे राम मुझे रोटी - कपड़ोंसे अच्छी तरह रखते हैं । यह तो इस लोककी बात हुई, आगे परलोकके लिये तो वेद पुकार ही रहे हैं कि रामनामके प्रतापसे तेरा कल्याण हो जायगा । बस, इसीसे मैं सदा प्रसन्न रहता हूँ ॥१॥
पहले मुझे जड कर्मोंने अहंकाररुपी कठिन बेड़ियोंसे बाँध लिया था । वह ऐसा भयानक कष्ट था, जो सुननेमें भी बड़ा असह्य है । मैंने दुःखी हो पुकारकर कहा, ' हे आर्त्त और अनाथोंके नाथ ! हे कोसलेश ! हे कृपासिन्धु ! मैं बड़ा कष्ट सह रहा हूँ । ( यह सुनते ही ) श्रीरामने मुझ दीनको पापोंसे जलता हुआ देखकर तुरन्त कर्म - बन्धनसे छुड़ा लिया ॥२॥
ज्यों ही उन्होंने मुझसे पूछा ' तू कौन है ? ' त्यों ही मैंने कहा, ' हे नाथ ! मैं आपका दास बनना चाहता हूँ । मेरे कहीं भी और कोई नहीं हैं, आपके चरणोंमें पड़ा हूँ । ' इसपर भक्तसुखकारी परम गुरु श्रीरामजीने मेरी पीठ ठोंकी, बाँह पकड़कर मुझे अपनाया और आश्वासन दिया । तबसे मैं यह ( कण्ठी, तिलक, माला, रामनाम - जप, अहिंसा, अभेद, नम्रता आदि ) भगवानका वैष्णवी बाना सदा धारण किये रहता हूँ ॥३॥
रामका गुलाम बना देखकर लोग मुझे नीच कहते हैं; परंतु मुझे इसके लिये कुछ भी चिन्ता या संकोच नहीं हैं, क्योंकि न तो मुझे किसीके साथ विवाह - सगाई क नी है और न मुझे जाति - पाँतिसे ही कुछ मतलब है । तुलसीका बनना - बिगड़ना तो श्रीरामजीके रीझने - खीझनेमें ही है । परंतु मुझे आपके प्रेमपर विश्वास है, इसीसे मैं मनमें सदा सानन्द रहता हूँ ॥४॥