श्रीरघुबीरकी यह बानि ।
नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥१॥
परम अधम निषाद पाँवर , कौन ताकी कानि ?
लियो सो उर लाइ सुत ज्यों प्रेमको पहिचानि ॥२॥
गीध कौन दयालु , जो बिधि रच्यो हिंसा सानि ?
जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि ॥३॥
प्रकृति - मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन - खानि ।
खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि ॥४॥
रजनिचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि ।
भरत ज्यों उठि ताहि भेंटत देह - दसा भुलानि ॥५॥
कौन सुभग सुसील बानर , जिनहिं सुमिरत हानि ।
किये ते सब सखा , पूजे भवन अपने आनि ॥६॥
राम सहज कृपालु कोमल दीनहीत दिनदानि ।
भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥७॥
भावार्थः - श्रीरघुनाथजीकी ऐसी ही आदत है कि वे मनमें विशुद्ध और अनन्य प्रेम समझकर नीचके साथ भी स्नेह करते हैं ॥१॥
( प्रमाण सुनिये ) गुह निषाद महान् नीच और पापी था , उसकी क्या इज्जत थी ? किन्तु भगवानने उसका ( अनन्य और विशुद्ध ) प्रेम पहचानकर उसे पुत्रकी तरह हदयसे लगा लिया ॥२॥
जटायु गीध , जिसे ब्रह्माने हिंसामय ही बनाया था , कौन - सा दयालु था ? किन्तु रघुनाथजीने अपने पिताके समान उसको अपने हाथसे जलांजलि दी ॥३॥
शबरी स्वभावसे ही मैली - कुचैली , नीच जातिकी और सभी अवगुणोंकी खानि थी ; परन्तु ( उसकी विशुद्ध और अनन्य प्रीति देखकर ) उसके हाथके फल स्वाद बखान - बखानकर आपके बड़े प्रेमसे खाये ॥४॥
राक्षस एवं शत्रु विभीषणको शरणमें आया जानकर आपने उठकर उसे भरतकी भाँति ऐसे प्रेमसे हदयसे लगा लिया कि उस प्रेमविह्वलतामें आप अपने शरीरकी सुध - बुध भी भूल गये ॥५॥
बंदर कौन - से सुन्दर और शील - स्वभावके थे ? जिनका नाम लेनेसे भी हानि हुआ करती है , उन्हें भी आपने अपना मित्र बना लिया और अपने घरपर लाकर उनका सब प्रकार आदर - सत्कार किया ॥६॥
( इन सब प्रमाणोंसे सिद्ध है , कि ) श्रीरामचन्द्रजी स्वभावसे ही कृपालु , कोमल स्वभाववाले , गरीबोंके हितू और सदा दान देनेवाले हैं । अतएव हे तुलसी ! तू तो कुतिलता और कपट छोड़कर ऐसे प्रभु श्रीरामजीका ही ( विशुद्ध और अनन्य प्रेमसे सदा ) भजन किया कर ॥७॥