तुम अपनायो तब जानिहौं , जब मन फिरि परिहै ।
जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो , तेहि सहज नाथ सौं नेह छाड़ि छल करिहै ॥१॥
सुतकी प्रीति , प्रतीति मीतकी , नृप ज्यों डर डरिहै ।
अपनो सो स्वारथ स्वामिसों , चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै ॥२॥
हरषिहै न अति आदरे , निदरे न जरि मरिहै ।
हानि - लाभ दुख - सुख सबै समचित हित - अनहित , कलि - कुचालि परिहरिहै ॥३॥
प्रभु - गुन सुनि मन हरषिहै , नीर नयननि ढरिहै ।
तुलसिदास भयो रामको बिस्वास , प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै ॥४॥
भावार्थः - जब मेरा मन ( आपकी ओरको ) फिर जायगा , तभी मैं समझूँगा कि आपने मुझे अपना लिया । जब यह मन , जिस सहज स्वभावसे ही विषयोंमें लग रहा है , उसी प्रकार कपट छोड़कर आपके साथ प्रेम करेगा ( जबतक ऐसा नहीं होता तबतक मैं कैसे समझूँ कि मुझको आपने अपना दास मान लिया ) ॥१॥
जैसे मेरा वह मन पुत्रसे प्रेम करता है , मित्रपर विश्वास करता है और राज - भयसे डरता है , वैसे ही जब वह अपना सब स्वार्थ केवल स्वामीसे ही रखेगा और चारों ओरसे चातककी तरह अपनी अनन्य टेकसे नहीं टलेगा ( एक प्रभुपर ही निर्भर करेगा ) ॥२॥
अत्यन्त आदर पानेपर जब उसे हर्ष न होगा , निरादर होनेपर वह जलकर न मरेगा और हानि - लाभ , सुख - दुःख , भलाई - बुराई सबमें चित्तको सम रखेगा और कलिकालकी कुचालोंको ( सर्वथा ) छोड़ देगा ( तभी मानूँगा कि नाथ मुझे अपना रहे हैं ) ॥३॥
और जब मेरा मन प्रभुका गुणानुवाद सुनते ही हर्षमें विह्वल हो जायगा , मेरे नेत्रोंसे प्रेमके आँसुओंकी धारा बहने लगेगी तभी तुलसीदासको यह विश्वास होगा कि वह श्रीरामजीका हो गया । तब उस ( अनन्य ) प्रेमको देखकर हदयमें आनन्द उमड़कर भर जायगा । ( हे प्रभो ! शीघ्र ही अपनाकर मेरी ऐसी दशा कर दीजिये ) ॥४॥