बिस्वास एक राम - नामको ।
मानत नहिं परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको ॥१॥
पढ़िबो पर्यो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको ।
ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को ? ॥२॥
करम - जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको ।
ग्यान बिराग जोग जप तप , भय लोभ मोह कोह कामको ॥३॥
सब दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन - ग्रामको ।
बैठे नाम - कामतरु - तर डर कौन घोर घन घामको ॥४॥
को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको ।
तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको ॥५॥
भावार्थः - मुझे तो एक राम - नामका ही विश्वास है । मेरे कुटिल मनका कुछ ऐसा ही स्वभाव है कि वह और कहीं विश्वास ही नहीं करता ॥१॥
छः ( न्याय , वैशेषिक , सांख्य , योग , मीमांसा , वेदान्त ) शास्त्रोंका तथा ऋक , यजु , अथर्वण और साम वेदोंका पढ़ना तो मेरी छठीमें ही नहीं पड़ा ( भाग्यमें ही नहीं लिखा गया ) है , और व्रत , तीर्थ , तप आदिका तो नाम सुनकर मन डर रहा है । कौन ( इन साधनोंमें ) पच - पचकर मरे या शरीरको क्षीण करे ? ॥२॥
कर्मकाण्ड ( यज्ञादि ) कलियुगमें कठिन है और उसका होना भी धनके अधीन है । ( अब रहे ) ज्ञान , वैराग्य , योग , जप और तप आदि साधन , सो इनके करनेमें काम , क्रोध , लोभ , मोह आदिका भय लगा है ॥३॥
इस भव ( संसार ) - में श्रीरघुनाथजीके गुणसमूहको गानेवाले ही सदा सब प्रकारसे योग्य हैं । जो राम - नामरुपे कल्पवृक्षकी छायामें बैठे हैं , उन्हें घनघोर घटा योग्य हैं । जो राम - नामरुपी कल्पवृक्षकी छायामें बैठे हैं , उन्हें घनघोर घटा ( तमोमय अज्ञान ) अथवा तेज धूप ( विषयोंकी चकाचौंध ) - का क्या डर हैं ? भाव यह है कि वे अज्ञानके वश होकर विषयोंमें नहीं फँस सकते । इससे पाप - ताप उनसे सदा दूर रहते हैं ॥४॥
कौन जानता है कि कौन नरक जायगा , कौन स्वर्ग जायगा और कौन परमधाम जायगा ? तुलसीदासको तो इस संसारमें रामजीका गुलाम होकर जीना ही बहुत अच्छा लगता है ॥५॥