आपनो कबहुँ करि जानिहौ ।
राम गरीबनिवाज राजमनि , बिरद - लाज उर आनिहौ ॥१॥
सील - सिंधु , सुंदर , सब लायक , समरथ , सदगुन - खानि हौ ।
पाल्यो है , पालत , पालहुगे प्रभु , प्रनत - प्रेम पहिचानिहौ ॥२॥
बेद - पुरान कहत , जग जानत , दीनदयालु दिन - दानि हौ ।
कहि आवत , बलि जाऊँ , मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ ॥३॥
आरत - दीन - अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ ।
है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत - भय - भानि हौ ॥४॥
भावार्थः - हे नाथ ! क्या कभी आप मुझे अपना समझेंगे ? हे राम ! आप गरीबनिवाज और राजाधिराज हैं । क्या आप कभी अपने विरदकी लाजका मनमें विचार करेंगे ? ॥१॥
आप शीलके समुद्र हैं , सुन्दर हैं , सब कुछ करनेयोग्य हैं , समर्थ हैं और सभी सदगुणोंकी खानि हैं । हे प्रभो ! आपने शरणागतका प्रेम भी पहिचानेंगे ? ॥२॥
वेद और पुराण कह रहे हैं , तथा संसार भी जानता है कि आप दीनोंपर दया करनेवाले और प्रतिदिन उन्हें कल्याण - दान देनेवाले हैं । बाध्य होकर कहना ही पड़ता हैं , मैं आपकी बलैया लेता हूँ , आपने मानो मेरी बार अपनी आदतको ही भुला दिया है ॥३॥
आप दीन , दुःखियों और अनाथोंके हितू होनेपर भी क्या संसारका ( यह ) भय मान रहे हैं ? ( कि ऐसे पापीको अपनानेसे कल्याण ही होगा , क्योंकि आप शरणागतके भयको भंजन करनेवाले हैं ॥४॥