ईस - सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ - पताल - धरनि ।
सुर - नर - मुनि - नाग - सिद्ध - सुजन मंगल - करनि ॥१॥
देखत दुख - दोष - दुरित - दाह - दारिद - दरनि ।
सगर - सुवन साँसति - समनि, जलनिधि जल भरनि ॥२॥
महिमाकी अवधि करसि बहु बिधि हरि - हरनि ।
तुलसी करु बानि बिमल, बिमल बारि बरनि ॥३॥
भावार्थः-- हे गंगाजी ! तुम शिवजीके सिरपर विराजती हो; आकाश, पाताल और पृथ्वी - इन तीनों मार्गोंसे बहती हुई शोभायमान होती हो । देवता, मनुष्य, मुनि, नाग, सिद्ध और सज्जनोंका तुम कल्याण करती हो ॥१॥
तुम देखते ही दुःख, दोष, पाप, ताप और दरिद्रताका नाश कर देती हो । तुमने सगरके साठ हजार पुत्रोंको यम - यातनासे छुड़ा दिया । जलनिधि समुद्रमें तुम सदा जल भरा करती हो ॥२॥
ब्रह्माके कमण्डलुमें रहकर, विष्णुके चरणसे निकलकर और शिवजीके मस्तकपर विराजकर तुम्हींने तीनोंकी महिमा बढ़ा रखी है । हे गंगाजी ! जैसा तुम्हारा निर्मल पापनाशक जल है, तुलसीदासकी वाणीको भी वैसी ही निर्मल बना दो, जिससे वह सर्वपापनाशक रामचरितका गान कर सके ॥३॥