राग बसन्त
सब सोच - बिमोचन चित्रकूट । कलिहरन, करन कल्यान बूट ॥१॥
सुचि अवनि सुहावनि आलबाल । कानन बिचित्र, बारी बिसाल ॥२॥
मंदाकिनि - मालिनि सदा सींच । बर बारि, बिषम नर - नारि नीच ॥३॥
साखा सुसृंग, भूरुह - सुपात । निरझर मधुबर, मृदु मलय बात ॥४॥
सुक, पिक, मधुकर, मुनिबर बिहारु । साधन प्रसून फल चारि चारु ॥५॥
भव - घोरघाम - हर सुखद छाँह । थप्यो थिर प्रभाव जानकी - नाह ॥६॥
साधक - सुपथिक बड़े भाग पाइ । पावत अनेक अभिमत अघाइ ॥७॥
रस एक, रहित - गुन - करम - काल । सिय राम लखन पालक कृपाल ॥८॥
तुलसी जो राम पद चहिय प्रेम । सेइय गिरि करि निरुपाधि नेम ॥९॥
भावार्थः-- चित्रकूट सब तरहके शोकोंसे छुड़ानेवाला है । यह कलियुगका नाश करनेवाला और कल्याण करनेवाला हरा - भरा वृक्ष है ॥१॥
पवित्र भूमि इस वृक्षके लिये सुन्दर थाल्हा और विचित्र वन ही इसकी बड़ी भारी बाड़ है ॥२॥
मन्दाकिनीरुपी मालिन इसे अपने उस उत्तम जलसे सदा सींचती हैं, जिसमें दुष्ट और नीच स्त्री - पुरुषोंके नित्य स्नान करनेसे भी उसपर कोई बुरा असर नहीं पड़ता ॥३॥
यहाँके सुन्दर शिखर ही इसकी शाखाएँ और वृक्ष सुन्दर पत्ते हैं । झरने मधुर मकरन्द हैं और चन्दनकी सुगन्धसे मिली हुई पवन ही इसकी कोमलता है ॥४॥
यहाँ विहार करनेवाले श्रेष्ठ मुनिगण ही इस वृक्षमें रमनेवाले तोते, कोयल और भौरे हैं । उनके नाना प्रकारके साधन इसके फूल हैं और अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष - ये ही चार सुन्दर फल हैं ॥५॥
इस वृक्षकी छाया संसारकी जन्म - मृत्युरुप कड़ी धूपका नाश कर सुन्दर सुख देती है । जानकीनाथ श्रीरामने इसके प्रभावको सदाके लिये स्थिर कर दिया है ॥६॥
साधकरुपी श्रेष्ठ पथिक बड़े सौभाग्यसे इस वृक्षको पाकर, इससे अनेक प्रकारके मनोवांछित सुख प्राप्त करके तृप्त हो जाते हैं ॥७॥
यह मायाके तीनों गुण, काल और कर्मसे रहित सदा एकरस है, अर्थात् इसके सेवन करनेवाले माया, काल और कर्मके बन्धनसे छूट जाते हैं, क्योंकि कृपालु सीता, राम और लक्ष्मण इसके रक्षक हैं ॥८॥
हे तुलसीदास ! जो तु श्रीरामजीके चरणोंसे प्रेम चाहता है तो चित्रकूट - पर्वतका निश्छल नियमपूर्वक सेवन कर ॥९॥