भयेहूँ उदास राम , मेरे आस रावरी ।
आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी ॥१॥
जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये ।
प्रेम - नेमके निबाहे चातक सराहिये ॥२॥
मीनतें न लाभ - लेस पानी पुन्य पीनको ।
जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको ॥३॥
बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैं ।
चलत खरेके संग जहाँ - तहाँ खोटे हैं ॥४॥
यहि दरबार भलो दाहिनेहु - बामको ।
मोको सुभदायक भरोसो राम - नामको ॥५॥
कहत नसानी ह्वैहै हिये नाथ नीकी है ।
जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है ॥६॥
भावार्थः - हे रामजी ! आप चाहे मुझसे उदासीन हो जायँ , पर मुझे तो आपकी ही आशा है । ( मेरे ऐसा कहनेसे आप नाराज न होइयेगा ) आर्त अथवा स्वार्थी तो पागलोंकी - सी ही बातें किया करते हैं । भाव यह कि आप जो नित्य अपने जनोंपर कृपा - दृष्टि रखते हैं उनके लिये तो मैं कहता हूँ कि आप चाहे उदासीन हो जायँ और मेरे लिये , यह अभिमानकी बात कहता हूँ कि मुझे तो आपकी ही आशा है , यह पागलोंकी - सी बातें ही तो हैं ॥१॥
जो मेघ पानीका दान करता है , सारे प्राणियोंकी रक्षा करता है उसे किस वस्तुकी कमी है ? पानी देकर जीवनकी रक्षा करनेवाले मेघको क्या चाहिये ? परन्तु प्रेमका अटल नियम निबाहनेके कारण पपीहेकी ही सराहना होती है । भाव यह कि मेघ पपीहेको बिना ही किसी स्वार्थके स्वातिका जल देता है , इसमें उदारता मेघकी ही है , परन्तु दूसरी ओर न ताकनेके कारण सराहना चातककी हुआ करती है ॥२॥
पवित्र और पुष्ट करनेवाले जलको मछलीसे लेशमात्र भी लाभ नहीं है , पर मछलीके लिये जलको छोड़कर , ऐसा कौन - सा स्थान है , जहाँ वह अपने प्राण बचा सके ? भाव यह कि वह जलको छोड़कर कहीं भी जीवित नहीं रह सकती । इसी प्रकार आपको मुझसे कोई लाभ नहीं , परन्तु मैं आपको छोड़कर कहाँ जाऊँ ?आपको आपनी शरणमें रखना भी होगा और तारीफ भी मेरी ही होगी ॥३॥
मैं आपकी बलैया लेता हूँ , देखिये बड़ोंके सहारे ही छोटे ( सदा ) बचते आये हैं , जहाँ - तहाँ खरे सिक्कोंके साथ खोटे भी चला करते हैं । भाव यह है कि आपके सच्चे भक्त असली सिक्के हैं , और मैं पाखण्डी , नकली सिक्का होनेपर भी आपके नामकी छापसे भवसागरसे तर जाऊँगा ॥४॥
आपके दरबारमें भले - बुरे सभीका कल्याण होता है , चाहे कोई आपके अनुकूल हो या प्रतिकुल हो ( जैसे विभीषण सम्मुख था तथा रावण विमुख था पर दोनों ही मुक्त हो गये ) हे श्रीरामजी ! मुझे तो केवल आपके कल्याणकारी नामका ही भरोसा है ॥५॥
हे नाथ ! कह देनेसे सब बात बिगड़ जायगी , ( सारा भेद खुल जायगा ) इससे मनकी मनहीमें रखना अच्छा है ; फिर आप तो हे कृपानिधान ! तुलसीके मनकी सब जानते ही हैं ॥६॥