दीन - दयालु दिवाकर देवा । कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा ॥१॥
हिम - तम - करि - केहरि करमाली । दहन दोष - दुख - दुरित - रुजाली ॥२॥
कोक - कोकनद - लोक - प्रकासी । तेज - प्रताप - रुप - रस - रासी ॥३॥
सारथि - पंगु, दिब्य रथ - गामी । हरि - संकर - बिधि - मूरति स्वामी ॥४॥
बेद - पुरान प्रगट जस जागै । तुलसी राम - भगति बर माँगै ॥५॥
भावार्थः-- हे दीनदयालु भगवान् सूर्य ! मुनि, मनुष्य, देवता और राक्षस सभी आपकी सेवा करते हैं ॥१॥
आप पाले और अन्धकाररुपी हाथियोंको मारनेवाले वनराज सिंह हैं; किरणोंकी माला पहने रहते हैं; दोष, दुःख, दुराचार और रोगोंको भस्म कर डालते हैं ॥२॥
रातके बिछुड़े हुए चकवाचकवियोंको मिलाकर प्रसन्न करनेवाले, कमलको खिलानेवाले तथा समस्त लोकोंको प्रकाशित करनेवाले हैं । तेज, प्रताप, रुप और रसकी आप खानि हैं ॥३॥
आप दिव्य रथपर चलते हैं, आपका सारथी ( अरुण ) लूला है । हे स्वामी ! आप विष्णु, शिव और ब्रह्माके ही रुप हैं ॥४॥
वेद - पुराणोंमें आपकी कीर्ति जगमगा रही है । तुलसीदास आपसे श्रीरामभक्तिका वर माँगता है ॥५॥