जो अनुराग न राम सनेही सों ।
तौ लह्यो लाहु कहा नर - देही सों ॥१॥
जो तनु धरि , परिहरि सब सुख , भये सुमति राम - अनुरागी ।
सो तनु पाइ अघाइ किये अघ , अवगुन - उदधि अभागी ॥२॥
ग्यान - बिराग , जोग - जप , तप - मख , जग मुद - मग नहिं थोरे ।
राम - प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मृग - जल - जलधि - हिलोरे ॥३॥
लोक - बिलोकि , पुरान - बेद सुनि , समुझि - बूझि गुरु - ग्यानी ।
प्रीति - प्रतीति राम - पद - पंकज सकल - सुमंगल - खानी ॥४॥
अजहुँ जानि जिय , मानि हारि हिय , होइ पलक महँ नीको ।
सुमिरु सनेहसहित हित रामहिं , मानु मतो तुलसीको ॥५॥
भावार्थः - यदि परम स्नेही श्रीरामचन्द्रजीके प्रति प्रेम नहीं हैं तो नर शरीर धारण करनेसे लाभ ही क्या हुआ ? ( भगवानमें अनन्य प्रेम होना ही तो मनुष्य - जीवनका परम लाभ है ) ॥१॥
जिस शरीरको धारण कर शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष सारे संसारी सुखोंको ( विषवत् ) त्याग कर श्रीरामजीके प्रेमी बनते हैं , उस ( दुर्लभ ( शरीरको भी पाकर , अरे महानीच अभागे ! तूने पेट भर - भरकर पाप ही किये ! ॥२॥
जगतमें ज्ञान , वैराग्य , योग , जप , तप , यज्ञ आदि आनन्द ( मोक्ष ) - के मार्गोंकी कमी नहीं हैं ; किन्तु बिना श्रीरामजीके प्रेमके ये सारे साधन वैसे ही व्यर्थ हैं , जैसे मृगतृष्णाके समुद्रकी लहरें ॥३॥
संसारको देखकर , पुराणों और वेदोंको सुनकर तथा ज्ञानी - गुरुजनोंसे समझ - बूझकर श्रीरामजीके चरणारविन्दोंमें प्रेम और विश्वास करना ही समस्त कल्याणोंकी खानि है ॥४॥
यदि अब भी तूने मनमें समझ लिया और अपने हदयमें हार मान ली , ( अभिमान छोड़कर शरण हो गया ) तो एक क्षणमें ही तेरा कल्याण हो जायगा । प्रेमपूर्वक ( सच्चे ) हितकारी श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण कर , तुलसीदासका यह सिद्धान्त मान ले ॥५॥