काहेको फिरत मन , करत बहु जतन ,
मिटै न दुख बिमुख रघुकुल - बीर ।
कीजै जो कोटि उपाइ , त्रिबिध ताप न जाइ ,
कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर ॥१॥
सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि ,
मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर ।
समुझि तजहि भ्रम , भजहि पद - जुगम ,
सेवत सुगम , गुन गहन गँभीर ॥२॥
आगम निगम ग्रंथ , रिषि - मुनि , सुर - संत ,
सब ही को एक मत सुनु , मतिधीर ।
तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु ,
जद्यपि है निकट सुरसरि - तीर ॥३॥
भावार्थः - अरे मन ! तू किसलिये बहुत - से प्रयत्न करता फिरता है ? जबतक तू श्रीरघुकुल - शिरोमणि रामजीसे विमुख है तबतक ( दूसरे कितने भी साधनोंसे तेरा दुःख नहीं मिटेगा ) । भगवद्विमुख करोड़ों उपाय क्यों न करे , पर उसके दैहिक , दैविक , भौतिक तीनों ताप नष्ट नहीं हो सकते , यह बात मुनिश्रेष्ठ शुकदेवजीने भुजा उठाकर कही है ॥१॥
अपने स्वभावकी टेवको छोड़कर - श्रीराम - विमुखताकी आदत छोड़कर एकाग्र चित्तसे तू ही विचारकर देख कि कहीं पानीके मथनेसे , बिना दूधके घी मिल सकता है ? ( इसी प्रकार विषयोंमें रत रहनेसे कभी सुख नहीं मिल सकता । ) इस बातको समझकर भ्रमको छोड़ दे और श्रीरामचन्द्रजीके उन युगल चरणोंका भजन कर , जो सेवासे सुलभ हैं और सदगुणोंके गम्भीर वन हैं अर्थात् जिन चरणोंकी सेवा करनेसे विवेक , वैराग्य , शान्ति , सुख आदि अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं ॥२॥
बुद्धि स्थिर करके शास्त्रों , वेदों , अन्य ग्रन्थों , ऋषियों , मुनियों , देवताओं और संतोंका जो एक निश्चित सिद्धान्त है , उसे सुन ( वह सिद्धान्त यही है कि सब आशाओंको छोड़कर श्रीभगवानके शरण होना चाहिये ) । हे तुलसीदास ! यद्यपि गंगाका तट निकट है , तो भी बिना स्वामीके पशु प्यासा ही मरा जाता है ( इसी प्रकार यद्यपि भगवत - प्राप्तिरुप परमसुख सहज ही मिल सकता है , पर भगवानकी शरण हुए बिना वह दुर्लभ हो रहा है ) ॥३॥