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श्री रंग स्तुती २

विनय पत्रिका - श्री रंग स्तुती २

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


देव

देहि अवलंब कर कमल, कमलारमन, दमन - दुख, शमन - संताप भारी ।

अज्ञान - राकेश - ग्रासन विधुंतुद, गर्व - काम - करिमत्त - हरि, दूषणारी ॥१॥

वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका - दुर्ग, रचित मन दनुज मय - रुपधारी ।

विविध कोशौघ, अति रुचिर - मंदिर - निकर, सत्त्वगुण प्रमुख त्रैकटककारी ॥२॥

कुणप - अभिमान सागर भयंकर घोर, विपुल अवगाह, दुस्तर अपारं ।

नक्र - रागादि - संकुल मनोरथ सकल, संग - संकल्प वीची - विकारं ॥३॥

मोह दशमौलि, तदभ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी ।

लोभ अतिकाय, मत्सर महोदर दुष्ट, क्रोध पापिष्ठ - विबुधांतकारी ॥४॥

द्वेष दुर्मुख, दंभ खर, अकंपन कपट, दर्प मनुजाद मद - शूलपानी ।

अमितबल परम दुर्जय निशाचर - निकर सहित षडवर्ग गो - यातुधानी ॥५॥

जीव भवदंघ्रि - सेवक विभीषण बसत मध्य दुष्टाटवी ग्रसितचिंता ।

नियम - यम - सकल सुरलोक - लोकेश लंकेश - वश नाथ ! अत्यंत भीता ॥६॥

ज्ञान - अवधेश - गृह गेहिनी भक्ति शुभ, तत्र अवतार भूभार - हर्ता ।

भक्त - संकष्ट अवलोकि पितु - वाक्य कृत गमन किय गहन वैदेहि - भर्ता ॥७॥

कैवल्य - साधन अखिल भालु मर्कट विपुल ज्ञान - सुग्रीवकृत जलाधिसेतू ।

प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन - तनय, विषय वन भवनमिव धूमकेतू ॥८॥

दुष्ट दनुजेश निर्वंशकृत दासहित, विश्वदुख - हरण बोधैकरासी ।

अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी हदय कमलवासी ॥९॥

भावार्थः-- हे लक्ष्मीरमण ! इस संसार - सागरमें डूबते हुए मुझको अपने कर - कमलका सहारा दीजिये । क्योंकि आप दुःखोंके दूर करनेवाले और बड़े - बड़े सन्तापोंके नाश करनेवाले हैं । हे दूषणनाशक ! आपक अज्ञानरुपी चन्द्रमाको ग्रसनेके लिये राहु और गर्व तथा कामरुपी मतवाले हाथियोंके मर्दन करनेके लिये सिंह हैं ॥१॥

शरीररुपी ब्रह्माण्डमें प्रवृत्ति ही लंकाका किला है । मनरुपी मयदानवने इसे बनाया है । इसमें जो अनेक कोश ( शरीरमें पाँच कोश हैं - अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ) हैं; वे इसके अत्यन्त सुन्दर महल हैं, सत्त्वगुण आदि तीनों गुण इसके सेनापति हैं ॥२॥

देहाभिमान अत्यन्त भयंकर, अथाह, अपार, दुस्तर समुद्र है, जिसमें राग - द्वेष और कामना आदि अनेक घड़ियाल भरे हैं और आसक्ति तथा संकल्पोंकी लहरें उठ रही हैं ॥३॥

इस लंकामें मोहरुपी रावण, अहंकाररुपी उसका भाई कुम्भकर्ण और शान्ति नष्ट करनेवाला कामरुपी मेघनाद है । यहाँ लोभरुपी अतिकाय, मत्सररुपी दुष्ट महोदर, क्रोधरुपी महापापी देवान्तक, द्वेषरुपी दुर्मुख, दम्भरुपी खर, कपटरुपी अकम्पन, दर्परुपी मनुजाद और मदरुपी शूलपाणि राक्षस हैं, यह ( दुष्ट राजपरिवार और उसके सेनापतिरुपी ) राक्षसोंका समूह अत्यन्त पराक्रमी और जीतनेमें बड़ा कठिन है । इन मोह आदि छः राक्षसोंके साथ इन्द्रियरुपी राक्षसियाँ भी हैं ॥४ - ५॥

हे नाथ ! आपके चरणकमलोंका सेवक जीव विभीषण है, जो इन दुष्टोंसे भरे हुए वनमें सर्वथा चिन्ताग्रस्त हुआ निवास कर रहा है । यम - नियमरुपी दसों दिकपाल और इन्द्र इस रावणके अधीन होकर अत्यन्त भयभीत रहते हैं ॥६॥

इसलिये जैसे आपने महाराज दशरथ और कौशल्याके यहाँ पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अवतार लिया था, वैसे ही हे जानकीवल्लभ ! ज्ञानरुपी दशरथके घर, शुभ भक्तिरुपी कौशल्याजीके द्वारा ( इन मोहादि राक्षसोंका नाश करनेके लिये ) प्रकट होइये और जैसे भक्तोंका कष्ट देखकर पिताकी आज्ञासे आप उस समय वन पधारे थे, ( वैसे ही मेरे हदयरुपी वनमें पधारिये ) ॥७॥

मोक्षके जो सब साधन हैं, उन अनेक रीछ - बंदरोंके द्वारा ज्ञानरुपी सुग्रीवसे ( संसार ) सागरपर पुल बँधा दीजिये । फीर प्रबल वैराग्यरुपी महाबलवान् पवनकुमार हनुमानजी विषयरुपी वन और महलोको अग्निके समान भस्म कर देंगे ॥८॥

तदनन्तर हे केवल ज्ञानघन ! हे सारे विश्वका दुःख हरनेवाले श्रीरामजी ! जीवरुपी दासके लिये मोहरुपी दुष्ट दानवका वंशसहित नाश कर दीजिये और तुलसीदासके हदयकमलमें सदासर्वदा छोटे भाई लक्ष्मण और श्रीजानकीजीसहित निवास कीजिये ॥९॥

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Last Updated : August 25, 2009

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