जागु, जागु, जीव जड़ ! जोहै जग - जामिनी ।
देह - गेह - नेह जानि जैसे घन - दामिनी ॥१॥
सोवत सपनेहूँ सहै संसृति - संताप रे ।
बूड्यो मृग - बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥२॥
कहैं बेद - बुध, तू तो बूझि मनमाहिं रे ।
दोष - दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे ॥३॥
तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे ।
राम - नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥४॥
भावार्थः-- अरे मूर्ख जीव ! जाग, जाग ! इस संसाररुपी रात्रिको देख ! शरीर और घर - कुटुम्बके प्रेमको ऐसा क्षणभंगुर समझ जैसे बादलोंके बीचकी बिजली, जो क्षणभर चमककर ही छिप जाती है ॥१॥
( जागनेके समय ही नहीं ) तू सोते समय सपनेमें भी संसारके कष्ट ही सह रहा हैं; अरे ! तू भ्रमसे मृग - तृष्णाके जलमें डूबा जा रहा है और तुझे रस्सीका सर्प डँस रहा है ॥२॥
वेद और विद्वान् पुकार - पुकारकर कह रहे हैं, तू अपने मनमें विचार कर समझ ले कि स्वप्नके सारे दुःख और दोष वास्तवमें जागनेपर ही नष्ट होते हैं ॥३॥
हे तुलसी ! संसारके तीनों ताप अज्ञानरुपी निद्रासे जागनेपर ही नष्ट होते हैं और तभी श्रीराम - नाममें अहैतुकी स्वाभाविक विशुद्ध प्रीति उत्पन्न होती हैं ॥४॥