जाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो ।
सोइ सुसील , पुनीत , बेदबिद , बिद्या - गुननि भर्यो ॥१॥
उतपति पांडु - सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डर्यो ।
ते त्रैलोक्य - पूज्य , पावन जस सुनि - सुनि लोक तर्यो ॥२॥
जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसर्यो ।
बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधर्यो ॥३॥
ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जर्यो ।
अजर - अमर , कुलिसहुँ नाहिंन बध , सो पुनि फेन मर्यो ॥४॥
बिप्र अजामिल अरु सुरपति तें कहा जो नहिं बिगर्यो ।
उनको कियो सहाय बहुत , उरको संताप हर्यो ॥५॥
गनिका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबर्यो ।
तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हदि - भवन धर्यो ॥६॥
केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि पर्यो ।
तुलसिदास रघुनाथ - कृपाको जोवत पंथ खर्यो ॥७॥
भावार्थः - जिसे श्रीहरिने दृढ़तापूर्वक हदयसे लगा लिया , वही सुशील है , पवित्र है , वेदका ज्ञाता है और समस्त विद्या एवं सदगुणोंसे भरा हुआ है ( जिसपर भगवान् कृपा करते हैं , सारे सदगुण अपना गौरव बढ़ानेके लिये उसके अंदर आप ही आ जाते हैं ) ॥१॥
पाण्डुके पुत्रोंकी उत्पत्ति और उनकी करतूतको सुनकर सन्मार्गतक डर गया था ; किन्तु वे ही श्रीहरिकृपासें तीनों लोकोंमें पूजनीय हो गये और उनका पवित्र यश सुन - सुनकर लोग तर गये ॥२॥
जिस राजा नृगने वेद - विहित स्वधर्मके पालनमें तनिक भी कसर नहीं की थी और जो बिना ही किसी दोषके गिरगिट होकर कुएँमें पड़ा हुआ था , उसको आपने हाथ पकड़कर बाहर निकाल लिया और उसका उद्धार कर दिया । ( गिरगिटकी योनिसे छुड़ाकर दिव्यलोकको भेज दिया ) ॥३॥
सारे ब्रह्माण्डको भस्म कर देनेमें समर्थ ( अश्वत्थामाके ) ब्रह्मास्त्रमें भी राजा ( परीक्षित् ) गर्भमें नहीं जला और अजर एवं अमर ( नमुचि ) दैत्य जो वज्रसे भी नहीं मरा था , वह फेनसे मर गया ॥४॥
अजामिल ब्राह्मण और इन्द्रके ( आचरणोंमें ) ऐसी कौन - सी बात थी जो न बिगड़ी हो , किन्तु आपने उनकी बड़ी सहायता की और उनके हदयका सन्ताप हर लिया ॥५॥
( पिंगला ) वेश्या और कामदेवने जगतमें ऐसा कौन सा पाप है जो नहीं किया हो , किन्तु भगवानन उनका चरित्र पवित्र समझकर उन्हें अपने हदय - मन्दिरमें स्थान दिया ॥६॥
भगवान् किस आचरणसे प्रसन्न होते हैं , यह समझमें नहीं आता । तुलसीदास तो बस , खड़ा - खड़ा केवल श्रीरघुनाथजीकी कृपाकी बाट देख रहा है ॥७॥