केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये ।
मोको और ठौर न , सुटेक एक तेरिये ॥१॥
सहस सिलातें अति जड़ मति भी है ।
कासों कहौं कौन गति पाहनहिं दई हैं ॥२॥
पद - राग - जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं ।
कलि - मल खल देखि भारी भीति भियो हौं ॥३॥
करम - कपीस बालि - बली , त्रास - त्रस्यो हौं ।
चाहत अनाथ - नाथ ! तेरी बाँह बस्यो हौं ॥४॥
महा मोह - रावन बिभीषन ज्यों हयो हौं ।
त्राहि , तुलसीस ! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं ॥५॥
भावार्थः - हे कृपासागर ! किसी भी तरह मेरी ओर देखो । मुझे और कहीं ठौर - ठिकाना नहीं है , एक तुम्हारा ही पक्का आसरा है ॥१॥
मेरी बुद्धि हजार शिलाओंसे भी अधिक जड़ हो गयी है । ( अब मैं उसे चैतन्य करनेके लिये ) और किससे कहूँ ? पत्थरोंको ( तुम्हारे सिवा और ) किसने मुक्त किया है ? ॥२॥
जिस प्रकार महर्षि विश्वामित्रने ( तुम्हारी देक - रेखमें निर्विघ्न ) यज्ञ किया था , उसी प्रकार मैं कभी तुम्हारे चरणोंमें प्रेमरुपी एक यज्ञ करना चाहता हूँ । किन्तु कलिके पापरुपी दुष्टोंको देखकर मैं बहुत ही भयभीत हो रहा हूँ । ( जैसे मारीच , ताड़का आदिसे तुमने विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा की थी वैसे है इन पापोंसे बचाकर मुझे भी चरणकमलोंका प्रेमी बना लो ॥३॥
कुटिल कर्मरुपी बंदरोंके बलवान् राजा बालिसे मैं बहुत डर रहा हूँ , सो हे अनाथोंके नाथ ! ( जैसे तुमने बालिको मारकर सुग्रीवको अभय कर दिया था , उसी प्राकर ) मैं भी आपकी बाहुकी छायामें बसना चाहता हूँ ( इन कठिन कर्मोंसे बचाकर आप मुझे अपना लीजिये ) ॥४॥
जैसे रावणने विभीषणको मारा था , उसी प्रकार मुझे भी यह महान् मोह मार रहा है ; हे तुलसीके स्वामी ! मैं संसारके तीनों तापोंसे जला जा रहा हूँ , मेरी रक्षा करो , रक्षा करो ॥५॥