जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे ।
करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे ॥१॥
मोहमय कुहू - निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो सो अनूप रुप सुपन जू परे ।
अब प्रभात प्रगट ग्यान - भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह - द्वेष निबिड़ तम टरे ॥२॥
भागे मद - मान चोर भोर जानि जातुधान
काम - कोह - लोभ - छोभ - निकर अपडरे ।
देखत रघुबर - प्रताप, बीते संताप - पाप,
ताप त्रिबिध प्रेम - आप दूर ही करे ॥३॥
श्रवन सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग - तोष सकल संत आदरे ।
तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव - जाल परम मंगलाचरे ॥४॥
भावार्थः-- ( श्रीरामनामके आश्रित ) चतुर जीवोंको श्रीरामजीकी कृपा ही ( अज्ञानरुपी निद्रासे ) जगाती है, ( अतएव रामनामके प्रभावसे ) मूर्खताको त्यागकर जाग और श्रीहरिके साथ प्रेम कर । नित्यानित्य वस्तुका विचार करके, काम - क्रोधादि समस्त विकारोंको छोड़कर कल्याणके समुद्र, दीनबन्धु, उदार श्रीरामचन्द्रजीका भजन कर, यही वेदकी आज्ञा है ॥१॥
मोहमयी अमावस्याकी लंबी रात्रिमें सोते हुए तुझे बहुत समय बीत गया और माया स्वप्नमें पड़कर तू अपने अनुपम आत्मस्वरुपको भूल गया । देख अब सबेरा हो गया है और ज्ञानरुपी सूर्यका प्रकाश होते ही वासना, राग, मोह और द्वेषरुपी घोर अन्धकार दूर हो गया है ॥२॥
प्रातः काल हुआ समझकर गर्व और मानरुपी चोर भागने लगे तथा काम, क्रोध, लोभ और क्षोभरुपी राक्षसोंके समूह अपने - आप डर गये । श्रीरघुनाथजीके प्रचण्ड प्रतापको देखते ही पाप सन्ताप नष्ट हो गये और तीन प्रकारके ताप श्रीरामजीके प्रेमरुपी जलने शान्त कर दिये ॥३॥
इस गम्भीर वाणीको कानोंसे सुनकर धीर - वीर संत मोह निद्रासे जाग उठे और उन्होंने सुन्दर वैराग्य, सन्तोष आदिको आदरसे अपना लिया । हे तुलसीदास ! कृपामय श्रीरामचन्द्रजीने भक्त - जीवोंको व्याकुल देखकर संसाररुपी जाल तोड़ डाला और उन्हें परमानन्द् प्रदान करने लगे ॥४॥