बावरो रावरो नाह भवानी ।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद - बड़ाई भानी ॥१॥
निज घरकी बरबात बिलोकहु, हौ तुम परम सयानी ।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री - सारदा सिहानी ॥२॥
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी ।
तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी ॥३॥
दुख - दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी ।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भीख भली मैं जानी ॥४॥
प्रेम - प्रसंसा - बिनय - ब्यंगजुत, सुनि बिधिकी बर बानी ।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत - मातु मुसुकानी ॥५॥
भावार्थः-- ( ब्रह्माजी लोगोंका भाग्य बदलते - बदलते हैरान होकर पार्वतीजीके पास जाकर कहने लगे ) हे भवानी ! आपके नाथ ( शिवजी ) पागल हैं । सदा देते ही रहते हैं । जिन लोगोंने कभी किसीको दान देकर बदलेमें पानेका कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त किया, ऐसे लोगोंको भी वे दे डालते हैं, जिससे वेदकी मर्यादा टूटती है ॥१॥
आप बड़ी सयानी है, अपने घरकी भलाई तो देखिये ( यों देते - देते घर खाली होने लगा है, अनधिकारियोंको ) शिवजीकी दी हुई अपार सम्पत्ति देख - देखकर लक्ष्मी और सरस्वती भी ( व्यंगसे ) आपकी बड़ाई कर रही हैं ॥२॥
जिन लोगोंके मस्तकपर मैंने सुखका नाम - निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजीके पागलपनके कारण उन कंगालोंके लिये स्वर्ग सजाते - सजाते मेरे नाकों दम आ गया है ॥३॥
कहीं भी रहनेको जगह न पाकर दीनता और दुःखियोंके दुःख भी दुःखी हो रहे हैं और याचकता तो व्याकुल हो उठी है । लोगोंकी भाग्यलिपि बनानेका यह अधिकार कृपाकर आप किसी दूसरेको सौंपिये, मैं तो इस अधिकारकी अपेक्षा भीख माँगकर खाना अच्छा समझता हूँ ॥४॥
इस प्रकार ब्रह्माजीकी प्रेम, प्रशंसा, विनय और व्यंगसे भरी हुई सुन्दर वाणी सुनकर महादेवजी मन - ही - मन मुदित हुए और जगज्जननी पार्वती मुसकराने लगीं ॥५॥