हरनि पाप त्रिबिध ताप सुमिरत सुरसरित ।
बिलसति महि कल्प - बेलि मुद - मनोरथ - फरित ॥१॥
सोहत ससि धवल धार सुधा - सलिल - भरित ।
बिमलतर तरंग लसत रघुबरके - से चरित ॥२॥
तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित ?
घोर भव अपारसिंधु तुलसी किमि तरित ॥३॥
भावार्थः-- हे गंगाजी ! स्मरण करते ही तुम पापों और दैहिक, दैविक, भौतिक - इन तीनों तापोंको हर लेती हो । आनन्द और मनोकामनाओंके फलोंसे फली हुई कल्पलताके सदृश तुम पृथ्वीपर शोभित हो रही हो ॥१॥
अमृतके समान मधुर एवं मृत्युसे छुड़ानेवाले जलसे भरी हुई तुम्हारी चन्द्रमाके सदृश धवल धारा शोभा पा रही हैं । उसमें निर्मल रामचरित्रके समान अत्यन्त निर्मल तरंगें उठ रही हैं ॥२॥
हे जगज्जननी गंगाजी ! तुम न होतीं तो पता नहीं कलियुग क्या - क्या अनर्थ करता और यह तुलसीदास घोर अपार संसार - सागरसे कैसे तरता ? ॥३॥