काहे न रसना , रामहि गावहि ?
निसिदिन पर - अपवाद बृथा कत रटि - रटि राग बढ़ावहि ॥१॥
नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि ।
ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर - जल कहँ धावहि ॥२॥
काम - कथा कलि - कैरव - चंदिनि , सुनत श्रवन दै भावहि ।
तिनहिं हटकि कहि हरि - कल - कीरति , करन कलंक नसावहि ॥३॥
जातरुप मति , जुगुति रुचिर मनि रचि - रचि हार बनावहि ।
सरन - सुखद रबिकुल - सरोज - रबि राम - नृपहि पहिरावहि ॥४॥
बाद - बिबाद , स्वाद तजि भजि हरि , सरस चरित चित लावहि ।
तुलसिदास भव तरहि , तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥५॥
भावार्थः - अरी जीभ ! तू श्रीरामजीका गुणगान क्यों नहीं करती ? दिन - रात दूसरोंकी निन्दा कर क्यों व्यर्थ ही आसक्ति बढ़ा रही हैं ? ॥१॥
मनुष्यके मुखरुपी सुन्दर और पवित्र मन्दिरमें बसकर क्यों उसे लजा रही है ? ( विषयकी बातें छोड़कर श्रीराम - नाम क्यों नहीं लेती ? ) चन्द्रमाके पास रहती हुई भी अमृतको पान क्यों नहीं करती ? ) ॥२॥
संसारके भोगोंकी बातें कलियुगरुपी कुमुदिनीके ( विकसित करनेके ) लिये चाँदनीके सदृश है , उसे खूब कान लगाकर प्रेमपूर्वक सुना करती है । अरी जीभ ! उस विषय चर्चाको रोककर श्रीहरिके सुन्दर यशका गान कर , जिससे कानोंका कलंक दूर हो ( विषयोंकी बातें निरन्तर सुनते - सुनते कान कलंकी हो गये हैं , उनका यह कलंक भगवत्कथाके श्रवण करनेसे ही दूर होगा ) ॥३॥
बुद्धिरुपी सुवर्ण और युक्तिरुपी सुन्दर मणियोंका रच - रचकर एक हार तैयारकर और उस हारको शरणागतोंको सुख देनेवाले सूर्यकुलरुपी कमलके ( प्रफुल्लित करनेवाले ) सूर्य महाराज रामचन्द्रजीको पहिना । ( विशुद्ध बुद्धि और उत्तम युक्तियोंद्वारा निश्चय करके श्रीहरिका नाम - गुण - कीर्तन कर ) ॥४॥
वादविवाद तथा स्वादको छोड़कर श्रीहरिका भजन कर और उनकी रसीली लीलामें लौ लगा । यदि तू ऐसा करेगी तो तुलसीदास संसार - सागरसे पार हो जायगा ( जन्म - मरणसे मुक्त हो जायगा ) और तू भी तीनों लोकोंमें पवित्र कीर्तिको प्राप्त होगी ॥५॥