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ब्रह्मन् n. एक पौराणिक देवता, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का स्त्रष्टा माना जाता है । इसने सर्वप्रथम प्रजापति बनाये, चिन्होंने आगे चल कर प्रजा का निर्माण किया । वैदिक ग्रन्थों में निर्दिष्ट प्रजापति देवता से इस पौराणिक देवता का काफी साम्य है एवं प्रजापति की बहुत सारी कथायें इससे मिलती जुलती है (प्रजापति देखिये) । सृष्टि के आदिकर्त्ता एवं जनक चतुर्मुख ब्रह्मन् निर्देश, जो पुराणों में अनेक बार आता है, वह वैद्क ग्रन्थों में अप्राप्य है । किन्तु वेदों में ‘धाता’, ‘विधाता’, आदि ब्रह्मा के नामांतर कई स्थानों पर आये है । उपनिषद् ग्रन्थों में ब्रह्मन् का निर्देश प्राप्त है, किन्तु वहॉं इसके सम्बन्ध में सारे निर्देश एक तत्त्वज्ञ एवं आचार्य के नाते से किये गये है । वहॉं उसे सृष्टि का सृजनकर्ता नहीं माना है । उपनिषदों के अनुसार यह परमेष्ठिन् ब्रह्म नामक आचार्य का शिष्य था [बृ.उ.२.६.३, ४.६.३] । सारी सृष्टि में यह सर्वप्रथम को ब्रह्मविद्या प्रदान की थी [मुं.उ.१.१.२] । इसी प्रकार इसने नारद को भी ब्रह्म विद्या का ज्ञान कराया थ [गरुड.उ.१-३] । छांदोग्य उपनिषद में ब्रह्मोपनिषद् नामक एक छोटा उपनिषद् प्राप्त है, जो सुविख्यात ब्रह्मोपनिषद् से अलग है । इस उपनिषद् का ज्ञान ब्रह्मा ने प्रजापति को कराया, एवं प्रजापति ने ‘मनु’ को कराया था [छां.उ.३.११.३-४] । ब्रह्मन् नामक एक ऋत्विज का निर्देश भी उपनिषद् ग्रन्थों में प्राप्त है । ब्रह्मन् n. पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु ने कमल रुपधारी पृथ्वी का निर्माण किया, जिससे आगे चल कर ब्रह्मन् उत्पन्न हुआ [मत्स्य.१६९.२] ;[म.व.परि.१ क्र.२७ पंक्ति.२८.२९] ;[भा.३.८.१५] । महाभारत के अनुसार, भगवान विष्णु जब सृष्टि के निर्माण के सम्बन्ध में विचारनिमग्न थे, उसी समय उनके मन में जो सृजन की भावना जागृत हुयी, उसीस ब्रह्मा का सृजन हुआ [म.शां.३३५.१८] । महाभारत में अन्यत्र कहा है कि, सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वत्र अन्धकार ही था । उस समय एक विशाल अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था । उस दिव्य एवं महान् अण्ड में से सत्यस्वरुप ज्योर्तिमय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रुप से प्रविष्ट हुआ । उस अण्ड से ही प्रथमदेहधारी प्रजापालन देवगुरु पितामह ब्रह्मा का अविर्भाव हुआ । एक तेजोमय अण्ड से सृष्टि का निर्माण होने की यह कल्पना, वैदिक प्रजापति से, चिनी ‘कु’ देवता से, एव मिस्त्र ‘रा’ देवता से मिलती जुलती है प्रजापति देखिये, म.आ.१.३०;[स्कंद.५.१.३] । विष्णु के अनुसार, विश्व के उत्पत्ति आदि के पीछे अनेक अज्ञात अगम्य शक्तियों का बल सन्निहित है, जो स्वयं ब्रह्मन् है । यह स्वयं उत्पत्ति आदि की अवस्था से अतीत है । इसी कारण इसकी उत्पत्ति की सारी कथाएँ औपचारिक हैं [विष्णु१.३] । महाभारत में ब्रह्मन् के अनेक अवतारों का वर्णन प्राप्त है, जहॉं इसके निम्नलिखित अवतारों का विवरण दिया गया हैः---मानस, कायिक, चाक्षुष, वाचिक. श्रवणज, नासिकाज, अंडज, पद्मज (पाद्म) । इनमें से ब्रह्मन् का पद्मज अवतार अत्यधिक उत्तरकालीन माना जाता है [म.शां.३५७.३६-३९] । सृष्टि के सृजन के समय, इसने सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा, सिंचनकर्ता विष्णु, एवं संहारकर्ता रुद्र ये तीनों रुप स्वयं धारण किये थे । यही नहीं, सृष्टि के पूर्व मत्स्य, तथा सृष्टि के सृजनोपरांत वाराह अवतार भी लेकर इसने पृथ्वी का उद्धार भी किया था । ब्रह्मन् n. यह मूलतः एक मुख का रहा होगा, किन्तु पुराणों में सर्वत्र इसे चतुर्मुख कहा गया है, एवं उसकी कथा भी बताई गयी है । इसने अपने शरीर के अर्धभाग से शतरुपा नामक एक स्त्री का निर्माण किया, जो इसकी पत्नी बनी । शतरुपा अत्यधिक रुपवती थी । यह उसके रुप के सौन्दर्भ में इतना अधिक डूब गया कि, सदैव ही उसे देखते रहना ही पसन्द करता था । एक बार अनिंद्य-सुंदरी शतरुपा इसके चारों ओर परिक्रमा कर रही थी । वहीं पास में इसके मानसपुत्र भी बैठे थे । अब यह समस्या थी कि, शतरुपा को किस प्रकार देखा जाये कि, वह कभी ऑंखो से ओझल न हो । बार बार मुड मुडकर देखना पुत्रों के सामने अभद्रता थी । अतएव इसने एक मुख के स्थान पर चार मुख धारण किये, जो चारों दिशाओं की ओर देख सकते थे । शतरुपा एक बार आकाशमार्ग से ऊपर जा रही थी । अतएव इसने जटाओं के उपर एक पॉंचवॉं मुख भी धारण किया था, किन्तु वह बाद को शंकर द्वारा तोड डाला गया । इसे स्त्री के रुप सौन्दर्य में लिप्त होने कारण, अपने उस समस्त तप को जडमूल से खों देना पडा, जो इसने अपने पुत्रप्राप्ति के लिए किया था [मत्स्य.३.३०-४०] । ‘जैमिनिअश्वमेध’ में ब्रह्मा की एक कथा प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, अति प्राचीन काल में ब्रह्म को चार से भी अधिक मुख प्राप्त थे । बक दाल्भ्य नामक ऋषि को यह अहंकार हो गया था कि, मैं ब्रह्मा से भी आयु में ज्येष्ठ हूँ । उसका यह अहंकार चूर करने के लिए, ब्रह्मा ने पूर्वकल्प में उत्पन्न हुए ब्रह्माओं का दर्शन उसे कराया । उन ब्रह्माओं को चार से भी अधिक मुख थे, ऐसा स्पष्ट निर्देश प्राप्त है [जै.अ.६०-६१] । ब्रह्मन् n. शंकर ने इसका पॉंचवा मुख क्यों तोडा इसकी विभिन्न कथायें पुराणों में प्राप्त हैं । मत्स्य के अनुसार, एक बार शंकर की स्तुति कर ब्रह्मा ने उसे प्रसन्न किया एवं यह वर मॉंग कि वह उसका पुत्र बने । शंकर को इसका यह अशिष्ट व्यवहार सहन न हुआ, और उसने क्रोधित होकर शाप दिया, ‘पुत्र तो तुम्हारा मैं बनूँगा, किन्तु तेरा यह पॉंचवा मुख मेरे द्वारा ही तोडा जायेगा’। सृष्टिनिर्माण के समय इसने ‘नीललोहित’ नामक शिवावतार का निर्माण किया । शेष सृष्टि का निर्माण करते समय, इसने उस शिवावतार का स्मरण न किया, जिसकारण क्रुद्ध होकर उसने इसे शाप दिया, ‘तुम्हारा पॉंचवॉं मस्तक शीघ्र ही कटा जायेगा’। मत्स्य में अन्यत्र लिखा है कि, इसके पॉंचवें मुख के कारण बाकी सारे देवों का तेज हरण किया गया । एक दिन यह अभिमान में आकर शंकर से कहने लगा, ‘इस पृथ्वी पर तुम्हारे अस्तित्त्व होने के पूर्व मैं यहॉं निवास करता हूँ, मैं तुमसे हर प्रकार ज्येष्ठ हूँ’। यह सुनकर क्रोधित हो कर शंकर ने सहजभाव से ही इसके मस्तक को अपने अँगूठे से मसल कर पृथ्वी पर ऐसा फेंक दिया, मानों किसी ने फूल को क्रूरता के साथ डाली से नोच कर जुदा कर दिया हो [मत्स्य. १८३. ८४-८६] । इसका मस्तक तोडने के कारण, शंकर को ब्रह्महत्य का पाप लगा । उस पाप से छुटकारा पाने के लिये, ब्रह्मा के कपाल को लेकर उसने कपालीतीर्थ में उसका विसर्जन किया [पद्म. सृ.१५] । पॉंचवे मस्तक के कट जाने के उपरांत, इसके अन्य मस्तक स्तम्भित हो गये । उनमें से स्वेदकण निकल कर मस्तक पर छा गये । जिसे देखकर इसने उन स्वेदकणों को हाथ से निचोड कर जमीन में फेंका । फेंकते ही उससे एक रौद्र पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसको इसने शंकर के पीछे पीछे छोड दिया । अंत में शंकर ने उसे पकड कर विष्णु के हवाले किया [स्कंद ५.१.३-४] । ब्रह्मा एवं शंकर के आपसी विरोध की और अन्य कथाएँ भी पुराणों में प्राप्त हैं । एक बार शिवपत्नी सती के रुपयौवन पर यह आकृष्ट हुआ, जिस कारण क्रुद्ध हो कर शंकर इसे मारने दौडा । किन्तु विष्णु ने शंकर को रोकने का प्रयत्न किया । फिर भी शंकर ने इसे ‘ऐंद्रशिर’ एवं’ विरुप’ बनाया । इसकी विरुपता के कारण सारे संसार में यह अपूज्य ठहराया गया [शिव. रुद्र. स.२०] । एक बार शंकर ने अपनी संध्या नामक कन्या का दर्शन इसे कराया । उसे देखते ही ब्रह्मा मोहित हो गया । शंकर ने इसका यह अशोभनीय एवं अनुवित कार्य इसके पुत्रों को दिखा कर, उनके द्वारा इसका उपहास कराया । अपने इस अपमान का बदला लेने के लिये, ब्रह्मा ने दक्षकन्या सती का निर्माण कर, दक्ष द्वारा शंकर का अत्यधिक अपमान कराया [स्कंद २.२.२३] । इसे दाहिने अँगूठे से दक्ष का, एवं बाये से दक्षपत्नी का निर्माण हुआ था [म.आ.६०.९] । स्कंद.के अनुसार, सृष्टि का निर्माण करने के लिए ब्रह्मा एवं नारायण सर्वप्रथम उत्पन्न हुए थे । सृष्टि निर्माण करने के पश्चात् ब्रह्मा तथा नारायण में यह विवाद हुआ कि, उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? यह झगडा जब तय न हो सका, तो दोनों शंकर के पास गये । वहॉं शंकर ने दोनों के सामने एक प्रस्ताव रखा कि, जो व्यक्ति शिवलिंग के आदि एवं अन्त को शोध कर, सर्वप्रथम उसकी सूचना उसे देगा, वही ज्येष्ठ बनने का अधिकारी होगा । ब्रह्मा ने उर्ध्वमार्ग से शोध करना आरम्भ किया, किन्तु इसे सफलता न मिली । तब इसने ‘गौ’ एवं ‘केतकी’ को अपना झूठा गवाह बना कर, शंकर के सामने पेश करते हुए कहा, ‘मैं ने शिवलिंग के आदि एवं अन्त शोध किया है, जिसके प्रत्यक्ष गवाह देनेवाले गौ एवं ‘केतकी’ सम्मुख है’। यह सुन कर ब्रह्मा को ज्येष्ठपद दिया गया । किन्तु बाद में असलियत मालूम होने के उपरांत, शंकर ने नारायण को ज्येष्ठ, एवं इसे कनिष्ठ एवं अपूज्य ठहराया । पश्चात्, शंकर के कथनानुसार, इसने गंधमादन पर्वत पर एक यज्ञ किया, जिस कारण श्रौत एवं स्मार्त धर्मविधियों में इसे पूज्यत्व प्रदान किया गया [स्कंद.१.१.६, १.३.२,९-१५,३.१.१४] । ब्रह्मन् n. इसने अनेकानेक प्राणियों का सृजन किस प्रकार किया, इसकी कथा विभिन्न पुराणों में तरह तरह से दी गयी है । महाभारत के अनुसार, वरुणरुपधारी शंकर ने एक बार यज्ञ किया, जिसमें ब्रह्मा ने अपने वीर्य की आहुती दी । उसी यज्ञ असे प्रजापतियों का जन्म हुआ [म.अनु.८५.९९.१०२] । पद्म के अनुसार, इसने सर्वप्रथम तमोगुणी प्रजा उत्पन्न की, एवं उसके उपरांत क्रमशः रजोगुणी, तथा सत्वगुणी प्रजा का निर्माण किया । इसके द्वारा निर्माण की गयी तमोगुणी सृष्टि पॉंच प्रकार की थी, जो निम्नलिखित हैः---तम, मोह, महामोह, तामिस्त्र एवं अन्धतामिस्त्र । यह पॉंचो प्रकार की सृष्टि अन्धकारमय थी, एवं उसमें केवल नागों की उत्पत्ति ब्रह्मा ने की थी । तत्पश्चात् इसने विभिन्न प्रकारों की कुल आठ सृष्टियों का निर्माण किया, जिनके नाम एवं उनमें उत्पन्न, प्राणियों के नाम इस प्रकार हैः---तिर्यकस्तोत्रस् (पशु), ऊर्ध्वस्त्रोतस् (देव), अर्वाक्सोतस् (मनुष्य), अनुग्रह, भूत, प्राकृत, वैकृत एवं कौमार । पद्म में यह भी लिखा है कि, देव, राक्षस, पितर, मनुष्य, यक्ष एवं पिशाच गणों की उत्पत्ति ब्रह्मा ने अपने मनःसामर्थ्य से की । ब्रह्मा का पहला शरीर शमोगुणी था, जिसके ‘जघन’ से असुरों का निर्माण हुआ । पश्चात्, इसने अपने तमोगुणी शरीर का त्याग कर, नये सत्वगुणी शरीर को धारण किया । इसके द्वारा परित्याग किये गये तमोगुणी शरीर से रात्रि का निर्माण हुआ, एवं इसके द्वारा धारण किये गये सत्वगुणी शरीर से देवों की उत्पत्ति हुई । पश्चात् इसने अपने द्वितीय शरीर का भी त्याग किया, जिससे दिन की उत्पत्ति हुयी । इसके तृतीय शरीर से ‘पितर’ उत्पन्न हुए, एवं उसके त्यक्त भाग से संध्याकाल की उत्पत्ति हुयी । इसके चतुर्थ शरीर से मनुष्य उत्पन्न हुए, एवं उसके त्यक्त भाग से उषःकाल का निर्माण हुआ । इसके पॉंचवे शरीर से यक्ष एवं राक्षस उत्पन्न हुए । अपने शरीर के द्वारा देवता, ऋषि, नाग एवं असुर निर्माण करने के पश्चात्, इसने उन चारों प्राणिगणों को एकाक्षर ‘ॐ’ का उपदेश किया था [म.आश्व.२६.८] ; देव देखिये । ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न भागों से किन किन प्राणियों की उत्पत्ति हुयी है, इसकी जानकारी विभिन्न पुराणों मे तरह तरह से दी गयी है । पद्म के अनुसार, ब्रह्मा के हृदय से बकरी, उदर से गाय, भैस आदि ग्राम्य पशु, पैरों से अश्व, गद्धे, उँट आदि वन्य पशु उत्पन्न हुए । मत्स्य के अनुसार, इसके दहिने अंगूठे से दक्ष, हृदय से मदन, अधरों से लोभ, अहंभाव से मद, ऑखों से मृत्यु, स्तनाग्र से धर्म, भूम्रध्य से क्रोध, बुद्धि मोह, कंठ से प्रमोद, हथेली से भरत, एवं शरीर से शतरुपा नामक पत्नी उत्पन्न हुयीं । उक्त वस्तुओं एवं व्यक्तियों की कोई माता नहीं थी, कारण ये सभी ब्रह्मा के शरीर से ही पैदा हुए थे । मत्स्य एवं महाभारत के अनुसार, इसके शरीर से मृत्यु नामक स्त्री की उत्पत्ति हो गयी थी [म.द्रो.परि.१.८.१५०] । ब्रह्मन् n. पुराणों के अनुसार, ब्रह्म के चार मुखों से समस्त वैद्क साहित्य एवं ग्रथों का निर्माण हुआ है । विभिन्न प्रकार के वेद निर्माण करने के पूर्व, इसने पुराणों का स्मरण किया था । पश्चात्, अपने विभिन्न मुखों से इसने निम्नलिखित वैदिक साहित्य का निर्माण कियाः--- (१) पूर्वमुख से---गायत्री छंद, ऋग्वेद, त्रिवृत, रथंतर एव अग्निष्टोमः (२) दक्षिणमुख से---यजुर्वेद, पंचदश ऋक्समूह, बृहत्साम एवं उक्थयज्ञः (३) पश्चिममुख से---सामवेद, सप्तदश ऋक्समूह, वैरुपसाम एवं अतिरात्रयज्ञ; (४) उत्तरमुख से---अथर्ववेद, एकविंश ऋक्समूह, आप्तोर्याम, अनुष्टुप छंद एवं वैराजसाम । वेदादि को निर्माण करने के पश्चात्, इसने ब्रह्म नाम से ही सुविख्यात हुए अपने निम्नलिखित मानसपुत्रों का निर्माण कियाः---मरिचि, अत्रि, अंगिरस्, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, भृगु एवं वसिष्ठ [ब्रह्मांड.२.९] । महाभारत में इसके धाता एवं विधाता नामक दो मानसपुत्र और दिये गये हैं [म.आ.६०.४९] । ब्रह्मन् n. ब्रह्मा की पत्नी शतरुपा के लिये मत्स्य में सावित्री, सरस्वती, गायत्री, ब्रह्माणी आदि नामांतर दिये गये है । अपने द्वारा उत्पन्न पुत्रों को प्रजोत्पत्ति करने की आज्ञा देकर, यह स्वयं अपनी पत्नी सावित्री के साथ रत हुआ, जिससे स्वायंभुव मनु की उत्पत्ति हुयी । शतरुपा अथवा सावित्री इसके द्वारा ही पैदा की गयी थी । अतएव उसका एवं ब्रह्मा का सम्बन्ध पिता एवं पुत्री का हुआ । किन्तु इसने उसे अपनी धर्मपत्नी मानकर उसके साथ भोग किया । पुराणों में प्राप्त यह कथा, वैदिक ग्रन्थों में निर्दिष्ट प्रजापति के द्वारा अपनी कन्या उषा से किये ‘दुहितृगमन’ से मिलती जुलती है (प्रजापति देखिये) । मत्स्य के अनुसार, ब्रह्म स्वयं वेदों का उद्नाता एवं ‘वेदराशि’ होने के कारण यह दुहितृगम्न के पाप से परे है [मत्स्य.३] । अपने द्वारा किये गये दुहितृगम्न से लज्जित होकर, एवं कामदेव को इसका जिम्मेदार मानकर, इसने मदन को शाप दिया कि, वह रुद्र के द्वारा जलकर भस्म होगा । इसके शाप को सुनकर मदन ने जबाब दिया, ‘मैनें तो अपनी कर्तव्य निर्वाह किया है । उसमें मेरी त्रुटि क्या है?’ यह सुनकर ब्रह्मा ने उसे उःशाप दिया, ‘रुद्र के द्वारा दग्ध होने के बाद भी तुम निम्नलिखित बारह स्थान पर निवास करोंगे:---स्त्रियों के नेत्रकटाक्ष, जंघा, स्तन, स्कंध, अधरोष्ठ आदि शरीर के भाग, तथा वसंतऋतु, किकिलकंठ, चंद्रिका, वर्षाऋतु, चैत्रमास और वैशाखमास आदि’ [मत्स्य.४.३-२०] ;[स्कंद ५.२.१२] । ब्रह्मन् n. स्कंद में, ब्रह्मा की पत्नी सावित्री एवं गायत्री को एक न मान कर अलग अलग माना गया है, एवं सावित्री के द्वारा इसे तथा अन्य देवताओं को जो शाप दिया गया था उसकी कथा निम्न प्रकार से दी गयी हैः---एक बार ब्रह्मा ने प्रभासक्षेत्र में एक यज्ञ किया, जिसमें यज्ञ की मुख्य व्यवस्था विष्णु को, ब्राह्मणसेवा इन्द्र को, एवं दक्षिणादान कुबेर को सौंपी गयी थी । ब्रह्मा के इस यज्ञ में निम्नलिखित ऋषि ब्रह्मन्, उद्गातृ, होतृ एवं अध्वर्यु बने थेः--- (१) ब्रह्मन्गण---नारद (ब्रह्मा), गौतम अथवा गर्ग (ब्राह्मणाच्छंसी), देवगर्भ व्यास (होता), देवल भरद्वाज (आग्नीध्र) । (२) उद्गातृगण----अंगिरस् मरीचि गोभिल (उद्गाता), पुलह कौथुम (उद्गता अथवा प्रस्तोता), नारायण शांडिल्य (प्रतिहर्ता), अत्रि अंगिरस् (सुब्रह्यण्य) । (३) होतृगण---भृगु (होता), वसिष्ठ मैत्रावरुण (मैत्रावरुन ऋत्विज), क्रतु (मरीचि (अच्छावाच्), च्यवन गालव (ग्रावा अथवा ग्रावस्तुद्) । (४) अध्वर्युगण---पुलस्त्य (अध्वर्यु), शिबि अत्रि (प्रतिष्ठाता अथवा प्रस्थाता), बृहस्पति रैभ्य (नेष्टा), अंशपायन सनातन (उन्नेता) । बाकी सारे ऋषि इसके यज्ञ के सदस्य बने थे । ब्रह्मन् n. यज्ञ की दिक्षा लेकर यह यज्ञ प्रारम्भ करने ही वाला था कि, इसे ध्यान आया कि, यज्ञकुण्ड के पास सावित्री उपस्थित नहीं है, और बिना पत्नी के यज्ञ आरम्भ नही किया जा सकता । अतएव इसने सावित्री को बुलाव भेजा, पर सावित्री के आने में देर हुयी, पता नहीं उसे वहॉं आने में हिचकिचाहट थी, अथवा वह अकेले न आकर लक्ष्मी के साथ आने के लिये उसे ढूँढ रही थी, बहरहाल उसे देरी हुयी । इस देरी से ब्रह्मा चिड गया, तथा उसने इन्द्र को आज्ञा दी कि, शीघ्र ही किसी स्त्री को इस कार्य की पूर्ति के लिये लाया जाय । इन्द्र एक ग्वाले की कन्या ले आया । ब्रह्मा ने उसे ‘गायत्री’ नाम देकर वरण किया, एवं यज्ञ पर उसे बिठा कर कार्य आरम्भ किया । कुछ समय के बाद सावित्री आयी, तथा उसने देखा कि यज्ञ करीब करीब हो चुका है । यह देखकर वह ब्रह्मा एवं उपस्थित देवों पर अत्यधिक क्रुद्ध हुयी कि, मेरे बिना यज्ञ किस प्रकार आरम्भ हुआ । कुपित होकर उसने ब्रह्म को शाप दिया कि, वह अपूज्य बनकर रहेगा, उसकी कोई पूजा न करेगा [स्कंद ७.१.१६५] । सावित्री ने अन्य देवताओं को भी शाप दिये जो इस प्रकार थेः---इन्द्र को-हमेशा पराभव होने का एवं कारावास भोगने का; विष्णु को-भृगु ऋषि के द्वारा शाप मिलने का, स्त्री का राक्षसद्धारा हरण होने का, तथा पशुओं की दास्यता में रहेन का; रुद्र विष्णु को---भृगु ऋषि के द्वारा शाप मिलने का, स्त्री का राक्षसद्वारा हरण होने का, तथा पशुओं की दास्यता में रहेन का; रुद्र को---ब्राह्मणों के शाप से पौरुष के नष्ट होने का; अग्नि को---अपवित्र पदार्थो की ज्वाला से अधिक भडकने का; ब्राह्मणों को---लोभी बनने का, दूसरे के अन्न पर जीवित रहने का, पापियों के घर भी यज्ञहेतु जाने का, तथा द्रव्यसंचन में अधिक प्रयत्नशील रहने का आदि । इस प्रकार प्रमुख देवताओं को शाप देकर सावित्री वापस आयी । देवस्त्रियों ने उसका साथ न दिया अतएव सावित्री ने उन्हें शाप दिया कि ‘तुम सभी वंध्या रहोगी’ लक्ष्मी को शाप दिया ‘तुम चंचल रहकर, मूर्ख, म्लेंच्छ, आग्रही तथा अभिमानी लोगों की संगति करोगी’। इन्द्राणी को शाप दिया, तुम्हारी इज्जत लेने के लिये नहुष तुम्हारा पीछा करेगा, तथा तुम्हें अपनी रक्षा के लिए बृहस्पति के घर पर छिपकर बैठना पडेगा । ब्रह्मन् n. सावित्री के चले जाने के उपरान्त, गायत्री ने समस्त देवताओं एवं उनकी धर्मपत्नियों को विभिन्न वरप्रदान करते हुए कहा, ‘ब्रह्मा की पूजा करनेवाले व्यक्ति को सुख एवं मोक्ष प्राप्त होगा । इन्द्र शत्रुद्धारा पराजित होकर भी, ब्रह्मा की सहायता प्राप्त कर पुनः अपना पद प्राप्त करेगा । विष्णु को मनुष्यजन्म में पत्नी विरह सहन करना पडेगा, किन्तु अत्न में वह शत्रुओं को परास्त कर लोगों का पूज्य बनेगा । शंकर के पूजक पाप से मुक्त होकर अपना उद्धार करेंगे । अग्नि की तृप्ति पर ही देवों को सुख और शान्ति मिलेगी । लक्ष्मी सब को प्रिय होगी, तथा वह हरएक जगह पूजी जायेगी; उसके कारण ही लोग तेजस्वी होंगे । देवस्त्रियॉं संततिविहीन होने पर भी उन्हे निःसंतान होने का दुःख न होगा’ [पद्म. सृ.१७] । ब्रह्मन् n. ब्रह्मा का यह यज्ञ सहस्त्र युगों तक चलता रहा, अर्थात् यह ब्रह्मा की वर्षगणना से करीब अर्ध वर्ष तक चला [स्कंद६.१९४] । स्कंद के अनुसार, ब्रह्मा के इस यज्ञ में तीन विभिन्न व्यक्ति विचित्र रुप से यज्ञ में आये, जिनकी कथा अत्यधिक रोचक है । यज्ञ चल्र रहा था कि, शंकर अपनी विचित्र वेशभूषा में आया, और अपना कपाल मंडप में रख दिया । उसे कोई पहचान न सका । ऋत्विजों में से एक ने उस कपाल को बाहर फेंकने का प्रयत्न किया, किन्तु उसके फेंकते ही उस स्थान पर लाखों कपाल उत्पन्न हो गये । यह कृत्य देख कर सबको आभास हुआ कि, यह भगवान् शंकर की ही लीला हो सकती है । अतएव समास्त देवताओं ने तुरंत उसकी स्तुति कर, उससे क्षमा मॉंगी । शंकर प्रसन्न हुए और ब्रह्मा से वर मॉंगने को कहा । किन्तु ब्रह्मा ने यज्ञ की दीक्षा लेने के कारण शंकर से वर मॉंगने की मजबूरी प्रकट की, और स्वयं शंकर को वर प्रदान किया । इसके उपरांत ब्रह्मा ने यज्ञकुंड की उत्तर दिशा की ओर शंकर को उचित आसन देकर, उसके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया । दूसरे दिन एक बटु ने यज्ञमंडप में प्रवेश कर सहजभाव से एक सर्प छोड दिया, जिसने उपस्थित होतागणों को अपने पाश में बॉंध लिया । इस कृत्य से क्रोधित होकर उपस्थित सदस्यों ने शाप दिया कि, वह स्वयं सर्प हो जाये । किन्तु उस बटु ‘शंकर भगवान्’ की स्तुति कर शाप से मुक्त हुआ । तीसरे दिन एक विद्वान् अतिथि आया और उसने कहा, ‘आप सभे लोगों से मैने केवल गुण प्राप्त किये है, अतएव मैं विद्वान बनने का अधिकारी हूँ’। ब्रह्मा ने उसका सत्कार किया एवं उसे उचित आसन दिया । उपर्युक्त यज्ञ के अतिरिक्त, ब्रह्मा के द्वारा निम्नलिखित स्थानों पर यज्ञ करने के निर्देश प्राप्त हैः---हिरण्यशृंग पर्वत पर बिंदुसर के समीप, धर्मारण्य में ब्रह्मसर के समीप, एवं कुरुक्षेत्र में [म.स.३.८.९, ८२.७४,१२९.१] । ब्रह्मन् n. एक बार अभिमान में आ कर तारका सुर नामक दैत्य देवों को अत्यधिक त्रस्त करने लगा । फिर उसके विनाश के लिये ब्रह्मा ने अपनी एक मानसकन्या निशा अथवा विभावरी को शंकरपत्नी पार्वती बनने के लिए भेजा । आगे चलकर उसी पार्वती के गर्भ से उत्पन्न हुए स्कंद ने तारकासुर का नाश किया [मत्स्य.१५४.४७-७२] । शिवप्रसाद से इसने पुलोमा नामक दैत्य का वध किया [स्कंद. ५.२.६६] । जिस समय शंकर ने त्रिपुरासुर का वध किया था, उस समय ब्रह्मा उसका सारथी था [म.क.२४.१०८] । इसकी मानसकन्याओं में सरस्वती नामक कन्या इसे विशेष प्रिय थी । इस कारण इसके दर्शनार्थ वह प्रतिदिन आया करती थी । एक बार, इसके दर्शन के लिये सहज वश आया हुआ पुरुरवस् राजा सरस्वती को देखकर उसपर मोहित हुआ । फिर अपनी पत्नी उर्वशी के द्वारा सरस्वती को बुलवा कर, उसके साथ रत हुआ । यह जान कर क्रुद्ध हुए ब्रह्म ने अपनी पुत्री सरस्वती को नदी बन जाने का शाप दिया । उर्वशी के द्वारा प्रार्थना की जाने पर ब्रह्म ने सरस्वती को उःशाप दिया, नदी हो जाने के उपरांत तुम नदियों में पवित्र समझी जाओगी’[ब्रह्म.१०१] । विष्णु, रुद्र आदि अन्य देवताओं के समान ब्रह्मा के द्वारा भी अनेक तीर्थस्थान, एवं पवित्र क्षेत्रों का निर्माण किया गया था । इन्द्रद्युम्न नामक राजा के द्वारा अनुरोध करने पर, ब्रह्मा ने सुविख्यात ‘जगन्नाथ’ क्षेत्र की स्थापना की थी [स्कंद.२.२.२३] । ब्रह्मन् n. ब्रह्मा की आयु सौ वर्षो की मानी जाती है । किन्तु ये सौ वर्ष सामान्य लोगों की वर्ष गणना से भिन्न हैं । अतएव उस हिसाब से इसकी कुल आयु लाखों वर्षों की ठहरती है । ब्रह्मा की कालगणना में एक वर्ष में तीन सौ साठ दिन रहते है । किन्तु इसका एक दिन एक हजार ‘पर्यायी’ का बनता है, एवं एक पर्याय में कृतयुत (१७२८०००वर्ष), त्रेतायुग (१२९६००० वर्ष) समाविष्ट होते है। ब्रह्म के कालगणना की तालिका इस प्रकार हैः---ब्रह्मा का एक दिन अथवा एक कल्प---१००० पर्याय, १. पर्याय=कृत, त्रेता द्वापर एवं कलियुग [कृतयुग= १,७२८०० वर्षे, त्रेतायुग=१२,९६०० वर्ष, द्वापरयुग=८,६४..१ वर्ष, कलियुग= ४,३२००० वर्ष] - ४, ३२०००१ वर्ष , ब्रह्मा का एक दिन= ४३,२००००x१००० = ४३,२००००००० वर्ष [विष्णु.३.२.४८] । पौराणिक कालगणना के अनुसार, ब्रह्मा का एक वर्ष विष्णु के एक दिन के बराबर होता है, विष्णु का एक वर्ष शंकर के एक दिन के बराबर होता है [स्कंद.६.१.९४] । पद्म के अनुसार, ब्रह्मा के आयु के ५० वर्ष अर्थात् एक परार्ध समाप्त हो चुका है, एवं दूसरा चल रहा है [पद्म.सृ.३] ;[स्कंद.७.१.१०४] । इसकी रात्रि का काल वही हैं, जिसे नैमित्तिक प्रलय का काल कहा जाता है [भा.३.११.२२-३५, १२.४.२] ;[विष्णु.१.३.११-२७] ;[मत्स्य.१४२.५.३६] । हर एक कल्प के आरम्भ में, जो अवतार ब्रह्मा द्वारा लिए गये हैं, उस कल्प को वही नाम दिया जाता है । ब्रह्मन् n. ब्रह्मा द्वारा ‘वास्तुशस्त्र’ पर लिखित एक ग्रन्थ उपलब्ध है [मत्स्य.२५२.२] । ‘दण्डनीति’ नामक एक लक्ष अध्यायों का एक अन्य ग्रन्थ भी इसके द्वारा लिखा गया था । आगे चलकर शंकर ने उस ग्रन्थ को दस हजार अध्यायों में संक्षिप्त किया, जिसे ‘वैशालाक्ष’ कहते है। बाद में, इन्द्र ने उसे पॉंच हजार अध्यायों में संक्षिप्त किया, एवं उसे ‘बाहुदंतक’ नाम दिया । आगे चलकर अन्य ऋषियों के द्वारा वह और संक्षिप्त किया गया । बृहस्पति ने उसे संक्षिप्त कर तीन हजार अध्यायों का, एवं उसके बाद शुक्राचार्य ने उसे और भी संक्षिप्त कर एक हजार अध्यायों का बना दिया । बाद में वह ग्रन्थ प्रजापति के द्वारा अति संक्षिप्त कर दिया गया [म.शां.५९.८७] ; प्रजापति देखिये । ब्रह्मन् n. पद्म में ब्रह्म के एक सौ आठ स्थानों का निर्देश प्राप्त है [पद्म. सृ.२९.१३२-१५९] ।
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