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बृहस्पति n. एक वैदिक देव, जो बुद्धि, युद्ध एवं यज्ञ का अधिष्ठाता माना जाता है । इसे ‘सदसप्ति’, ‘ज्येष्ठराज’ तथा ‘गणपति’ नाम भी दिये गये हैं [ऋ.१.१८.६-७,२.२३.१] । बृहदारण्यक उपनिषद में बृहस्पति को वाणी का पति (बृहती+पति=वाणी+पति) माना गया है [बृ.उ.१.३.२०-२१] । मैत्रायणी संहिता एवं शथपथ ब्राह्मण में इसे ‘वाचस्पति’ (वाच का स्वामी) कहा गया है [मै. सं.२.६] ;[श. ब्रा.१४.४.१] । वैदिकोत्तर साहित्त्य में, इसे बुद्धि एवं वाक्पटुता का देवता के रुप में व्यक्त किया गया है । इस देवता का ऋग्वेद में प्रमुख स्थान है, एवं उसमें ग्यारह सम्पूर्ण सूक्तों द्वारा इसकी स्तुति की गयी है । दो सूक्तो में इन्द्र के साथ युगुलरुप में भी इसकी गुणावली गायी गई है [ऐउ.४.४९, ७.९७] । इस ग्रन्थ में बृहस्पति नाम प्रायः एक सौ बीस बार, एवं ‘ब्रह्मणस्पति’ के रुप में इसका नाम लगभग पचास बार आया है । ऋग्वेद के लोकपुत्र नामक सूक्त के प्रणयन का भी श्रेय इसे प्राप्त है [ऋ.१०.७१-७२] । बृहस्पति n. उच्चतम आकाश के महान् प्रकाश से बृहस्पति का जन्म हुआ था । जन्म होते ही इसने अपनी महान तेजस्वी एवं गर्जना द्वारा अन्धकार को जीत कर उसका हरण किया [ऎउ.४.५०, १०.६८] । इसे दोनों लोगों की सत्नान, तथा त्वष्टु द्वारा उत्पन्न हुआ भी कहा जाता है [ऋ.७.९७, २.२३] । जन्म की कथा के साथ साथ यह भी निर्देश प्राप्त होता है की, यह देवों का पिता है, तथा इसने लुहार की भॉंति देवों को धमन द्वारा उत्पन्न किया है [ऋ.१०.७२] । बृहस्पति n. ऋग्वेद के सूक्तों में इसके दैहिक गुणों का सांगोपांग वर्णन तो नहीं मिलता, फिर भी उसकी एक स्पष्ट झ्लक अवश्य प्राप्त है । यह सप्त-मुख एवं सप्त सप्त-रश्मि, सुन्दर जिह्रावाला, तीक्ष्ण सींघोंवाला, नील पृष्ठवाला तथा शतपंखोंवाला वर्णित किया गया है [ऋ.४.५०,१.१९०, १०.१५५, ५.४३, ९.९७] । इसका वर्ण स्वर्ण के समान अरुणिम आभायुक्त है, तथा यह उज्वल, विशुद्ध तथा स्पष्ट वाणी बोलनेवाला कहा गया है [ऋ.३.६२, ५.४३, ७.९७] । इसके पास एक धनुष्य है, जिसकी प्रत्यंचा ही ‘ऋत’ है; एवं अनेक श्रेष्ठ बाण हैं, जिन्हें शस्त्र के रुप में प्रयोग करता है [ऋ. २.२४] ;[अ. वे.५.१८] । यह स्वर्ण कुठार एवं लौह कुठार धारण करता है, जिसे त्वष्टा तीक्ष्ण रखता है [ऋ.७.९७, १०.५३] । इसके पास एक सुन्दर रथ है । यह ऐसे ऋत रुपी रथ पर खडा होता है, जो राक्षसों का वध करनेवाला, गाय के गोष्टों को तोडने वाला, एवं प्रकाश पर विजय प्राप्त करनेवाला है । इसके रथ को अरुणिम अश्व खींचते हैं [ऋ.१०.१०३, २.२३] । बृहस्पति n. बृहस्पति को ‘ब्रह्मणस्पति’ (स्तुतियों का स्वामी) कहा गया है, क्यों कि, यह अपने श्रेष्ठ रथ पर आरुढ होकर देवों तथा स्तुतियों के शत्रुओं को जीतता है [ऋ.२.२३] । इसी कारण यह द्रष्टाओं में सर्वश्रेष्ठ एवं स्तुतियों का श्रेष्ठतम अधिराज कहा गया है [ऋ.२.२३] । यह समस्त स्तुतियों को उत्पन्न एवं उच्चारण करनेवाला है [ऋ.१.१०९, १.४०] । यह मानवीय पुरोहितों को स्तुतियों प्रदान करनेवाला देव है [ऋ.१०.९८.२७] । बृहस्पति एक पारिवारिक पुरोहित है [ऋ.२.२४] । इसे दोनों लोकों में गर्जन करनेवाला, प्रथमजन्मा, पवित्र, पर्वतों में बुद्धिमान, वृत्रों (वृत्राणि) का वध करनेवाला, दुर्गा को छिन्न-भिन्न करनेवाला, तथा शत्रुविजेता कहा गया है [ऋ.६.७३] । यह शत्रुओं को रण में पछाडनेवाला, उनका दमन करने वाला, युद्धभूमि में असाधारण योद्धा है, जिसे कोई जीत नहीं सकता [ऋ.१०.१०३, २.२३, १.४०] । इसीलिए युद्ध के पूर्व आह्रान करनेवाले देवता के रुप में इसका स्मरण किया जाता है [ऋ.२.२३] । इन्द्रपुराणकथा में, गायों को मुक्त करनेवालों में, अग्नि की भॉंति बृहस्पति का भी नाम आता है । बृहस्पति ने जब गोष्ठों को खोला तथा इन्द्र को साथ लेकर अन्धकार द्वारा आवृत जलस्त्रोतों को मुक्त किया तब पर्वत इनके वैभव के आधीन हो गया [ऋ.२.२३] । अपने गायकदल के साथ, इसने गर्जना करते हुए ‘बल’ को विदीर्ण किया; तथा अपने सिंहनाद द्वारा रेंभती गायों को बाहर कर दिया [ऋ.४.५०] । पर्वतों से गायों को ऐसा मुक्त किया गया, जिस प्रकार एक निष्प्राण अण्डे को फोड कर जीवित पक्षी उन्मुक्त किया जाता है [ऋ.१०.६८] । बृहस्पति त्रितायुओं का हरणकर्ता एवं समृद्धि प्रदाता देव के रुप में, अपने भक्तों द्वारा स्मरण किया जाता है [ऋ.२.२५] । यह एक ओर भक्तों को दीर्घव्याधियॉं से मुक्त करता है, उनके समस्त संकटो, विपत्तियों शापों तथा यंत्रणाओं का शमन करता है [ऋ.१.१८, २.२३] ; तथा दूसरी ओर उन्हें वांछित फल, सम्पत्ति, बुद्धि तथा यंत्रणाओं का शमन करता है [ऋ.१.१८, २.२३] : तथा यंत्रणाओं का शमन करता है [ऋ.१.१८, २.२३] ; तथा दूसरी ओर उन्हें उन्हें वांछित फल, सम्पत्ति, बुद्धि तथा समृद्धि से सम्पन्न करता है [ऋ.७.१०.९७] । बृहस्पति मूलतः यज्ञ को संपन्न करनेवाला पुरोहित है, अतएव इसका एवं अग्नि का सम्बन्ध अविछिन्न है । मैक्स मूलर इसे अग्नि का एक प्रकार मानता है । रौथ कहता है, ‘यह पौरोहित्य प्रधान देवता स्तुति की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रतिरुप है’। चतुविंश तथा अन्य याग इसके नाम पर उल्लिखित है [तै. सं.७.४.१] । इसके नाम पर कुछ सोम भी है, जिसके स्वरों के गायन की तुलना क्रौंच पक्षी के शब्दों से की गयी है [छां.उ.१.२.११] । इसके पत्नी का नाम धेना था [गो.ब्रा.२-९] । धेना का अर्थ ‘वाणी’ है । इसकी जुहू नामक एक अन्य पत्नी का भी उल्लेख प्राप्त है । कई अभ्यासकों के अनुसार, आकाश के सौरमंडल में स्थित बृहस्पति नामक नक्षत्र यही था । इसकी पत्नी का भी उल्लेख प्राप्ति है । कई अभ्यासकों के अनुसार, आकाश के सौरमंडल में स्थित बृहस्पति नामक नक्षत्र यही था । इसकी पत्नी का नाम तारा था, जिने सोम के द्वारा अपहार किया गया था । बृहस्पति की पत्नी तारा से सोम को बुध नामक पुत्र भी उत्पन्न हुआ था [वायु.९०.२८-४३] ;[ब्रह्म.९.१९-३२] ;[म.उ.११५.१३] । ज्योतिर्विदों के अनुसार बृहस्पति के इस कथा में निर्दिष्ट सोम, तारा बुध एवं बृहस्पति ये सारे सौरमंडल में स्थित विभिन्न नक्षत्रों के नाम हैं (बुध देखिये(। बृहस्पति II. n. एक ऋषि; जो देवों का गुरु एवं आचार्य था । [ऐ. ब्रा.८.२६] । महाभारत में इसे एवं सोम को ब्राह्मणों का राज कहा गया है ।[म.आश्व.३] यह दैत्य एवं असुरों का गुरु ‘भार्गव उशनस् शुक्र’ का समवर्ती था । देवदैत्यों का सुविख्यात संग्राम, जिसमें बृहस्पति एवं शुक्र इन दोनों ने बडा ही महत्त्वपूर्ण भाग लिया था, इष्वाकुवंशीय ययाति राजा के राज्यकाल में हुआ था । दैत्यगुरु शुक्र की कन्या देवयानी से ययाति ने विवाह किया था । इस कारण, शुक्र एवं देवगुरु बृहस्पति ययाति के समकालीन प्रतीत होते है । एक बार, देवगुरु बृहस्पति का इंद्र ने अपमान किया, जिसके कारण, इसने इंद्र तथा देवों को त्याग दिया । लेकिन जब विना बृहस्पति से, तरह तरह की अडचने पडने लगीं, तब देवों ने मिलकर इससे माफी मॉंगी, और पुनः इसे देवगुरु के स्थान पर सुशोभित किया [भा.६.७] । बृहस्पति II. n. देवदानवों के बीच घोर संग्राम हुआ, जिसमें देवों को हार का मुँह देखना पडा । दानवों ने शक्ति, शासन और संजीवनी आदि के बल पर देवों को हर प्रकार के कष्ट देना आरम्भ किया । यही नहीं, शुक्राचार्य देवों को समूल नष्ट करने के लिये घोर तपस्या में लग गया । तब इन्द्र ने अपनी कन्या जयंती को शुक्र के पास उसके तप को भंग करने के लिये भेजा । वहाँ जा कर, जयन्ती ने उसे अपने सेवाभाव तहा मोहपाश में बॉंध लिया । इस अवसर का लाभ उठाकर बृहस्पति ने तेजबल से शुक्र का रुप धारण कर एवं दानवों में नास्तिक धर्म प्रचार से उन्हें धर्मभ्रष्ट करने लगा । तब दैत्यों का पराभव हुआ [पद्म. सृ.१३] ; उशनस् देखिये । इन्द्रपद प्राप्त कर नहुष तामसी प्रवृत्तियों में इतना लिप्त हो गया कि, उसने धार्मिक विधियों को त्याग कर स्त्रीभोग में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली, तथा उत्पात मचाने लगा । एक बार उसने इन्द्राणी को देखा, तथा उसके रुपयौवन पर मोहित हो कर उसे पकड मंगाया । तब वह भागती हुई बृहस्पति के पास आयी, तथा इसने इसे आश्वासन दिया, ‘इंद्र तेरी रक्षा करेगा, तेरा सतीत्व रक्षित है । तुम्हें चिन्ता की आवश्यकता नहीं ।’ इसने ही इन्द्राणी को सलाह दी कि, नहुष से वह कुछ अवधि मॉंगे तथा इस प्रकार उसे धीरज दिला कर तरकीब से अपनी रक्षा करे [म.उ.१२.२५] । बाद में इन्द्र के द्वारा बताये हुए मार्ग पर चल कर, इन्द्राणी ने नहुष पर विजय प्राप्त की [म.उ.११] ; नहुष देखिये । उपरिचर वसु के द्वारा निमंत्रण दिया जाने पर बृहस्पति ने उस के द्वारा किये यज्ञ में होता होना स्वीकार किया । उपरिचर वसु विष्णु का परम भक्त था । इसीलिये विष्णु ने इस यज्ञ में स्वयं भाग ले कर यज्ञ के प्रसाद (पुरोडाश) को प्राप्त किया । बृहस्पति को विष्णु की उपस्थिति का विश्वास न हुआ । उसने समझा कि, उपरिचर झूट बोल रहा है, तथा स्वयं की महत्त बढाने के लिए खुद पुरोडाश खाकर विष्णु की उपस्थिति का बहाना कर रहा है । यह समझ कर इसने उसे शाप देना चाहा । किन्तु एकत, द्वित तथा त्रित ने बृहस्पति के क्रोध को शांत कराया, एवं विश्वास दिलाया कि, ‘उपरिचर सत्य कहता है । हम लोगों ने स्वयं विष्णु के दर्शन किये है’ [म.शां.३२३] । इसने उपरिचर वसु राजा को ‘चित्रशिखण्डिशास्त्र’ का ज्ञान विधिवत् प्रदान किया था [म.शां.३२३.१-३] । असुर एवं गंधर्वो के समान देवों ने भी पृथ्वी का दोहन किया । उस समय देवों ने बृहस्पति को वत्स बनाया था [भा.४.१८.१४] । अथर्ववेद के अनुसार, ऋषियों के द्वारा किये पृथ्वीदोहन में बृहस्पति दोग्धा (दोहन करनेवाला) बनाया था, सोम को वत्स, तथा छंदस को पात्र बनाया गाय था । उस दोहन से तप तथा वेदों का निर्माण दुग्ध रुप में हुआ [अ.वे.८.२८] ; पृथु वैन्य देखिये । प्रभासक्षेत्र में स्थित सोमेश्वर के शिवमंदिर में, बृहस्पति ने एक हजार वर्षों तक शिव की आराधना कर उसे प्रसन्न किया । शिव ने इसे आशीर्वाद दिया ‘आकाश में स्थित सौरमण्डल में तुम बृहस्पति नामक ग्रह रुप में प्रतिष्ठित होगे’ [स्कंद. २.४.१-१७] । शिवकृपा से इसने प्रभासक्षेत्र में बृहस्पतीश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना की [स्कंद. ७.१.४८] । बृहस्पति II. n. देवों के गुरु बृहस्पति का तत्त्वज्ञानी के नाते कई विद्वानों से शास्त्रार्थ हुआ, जो इसके ज्ञान तर्क एवं स्वरितबुद्धि को प्रत्यक्ष प्रमाणित करते है । युधिष्ठिर तथा इसके बीच जन्ममरण के संबंध में संवाद हुआ था, जिस में इसने उनके प्रकारों का वर्णन था । इसने युधिष्ठिर को बताया था कि, किस प्रकार प्राणी विभिन्न प्रकार के पाप कर के, उसके अनुसार ही भिन्न भिन्न योनियों में जन्म ले कर जन्ममरण के बन्धनों के बीच विचरण किया करता है [म.अनु.१११] । इसने उसे दान के स्वरुप की व्याख्या करते हुए, अन्नदान की महिमा का गान किया था [म.अनु११२] । युधिष्ठिर को जीवन में धर्मकर्म की आवश्यकता पर बल देते हुए, इसने उसे धर्म एवं अहिंसा का उपदेश दिया था [म.अनु.११३] । देवराज इंद्र को भी इसने अपनी ज्ञानगरिमा से कई उपदेश दिये । उसको वाणी की महत्ता बनाते हुए इसने उसे मधुर बचन बोलने का उपदेश दिया [म.शां.८५.३-१०] । उसे धर्मोपदेश दिया, तथा धर्माचरण की आज्ञा दी [म.अनु.१२५] । भूमि का मूल्य तथा भूमिदान की महत्ता का ज्ञान भी इसने इंद्र को कराया था [म.अनु.६२.५५-९२] । इसके समय में मनुष्यों का पशु की तरह यज्ञ में हवन किया जाता था । अतएव इंद्र ने प्रार्थना की कि, यह मनुष्यों को बलि के रुप में समर्पित करना बंद करे [म.आश्व.५.२५-२७] । कोसलधिपति वसुमनस् से इसने राजसंस्था की आवश्यकता एवं राजा के कर्तव्य के बारे में उपदेश दिया था [म.शां.६८] । इक्ष्वाकुवंशीय मांधाता राजा के पूँछने पर, इसने उसे गोदान के संबंध में अपने विचार प्रकट किये थे [म.अनु.७६.५-२३] । बृहस्पति III. n. आंगिरस कुलोत्पन्न एक ऋषि, जो वैशाली के मरुत्त आविक्षित राजा का पुरोहित था । यह वैशाली के करंधम राजा का पुरोहित अंगिरा नामक महर्षि का पुत्र था । यह स्वायंभुव मन्वंतर में पैदा हुआ था । इसकी माता का नाम स्वरुपा था [भा.४.१] ;[म.आ.६०.५, आश्व. ५.४] ;[ब्रह्मांड ३.३.१] । कई ग्रंथों में, इसकी माता का नाम श्रद्धा दिया गया है । यह निर्देश सही हों, तो यह स्वायंभुव मन्वंतर में न हो कर, वैवस्वत मन्वंतर में उत्पन्न हुआ होगा । महाभारत में अन्यत्र, इसकी उत्पत्ति अग्नि से बताई गई है [म.व.२०७.१८] । इसे संवर्त, तथा उतथ्य नामक दो भाई थे, जिनके साथ आजीवन इसका संघर्ष चलता रहा । इन भाइयों में से, उतथ्य इसका जेष्ठ भाई था, जिसके नाम के लिये, वेदार्थदीपिका में, ‘उचथ्य,’ ब्रह्मांड एवं मत्स्य में ‘उशिज,’ एवं वायु में ‘अशिज’ पाठभेद प्राप्त हैं । इन पाठभेदों में से, ‘उचथ्य’ पाठभेद ही सही प्रतीत होता है । एक बार इसने उतथ्य की गर्भवती पत्नी ममता के साथ संभोग किया । संभोग करते समय ममता के उदर में स्थित बालक ने बृहस्पति से बार बार उक्त क्रिया करने पर प्रतिबन्ध लगाया । इस पर क्रोधित हो कर इसने उस बालक को शाप दिया कि, वह जन्मांध पैदा हो । यही बालक बाद को अन्धे दीर्घतमस् के रुप में पैदा हुआ । इसके तथा ममता के संभोग द्वारा भरद्वाज नामक पुत्र हुआ, जो बाद को इक्ष्वाकुवंशीय नरेश दुष्यन्तपुत्र भरत द्वारा गोद लिया गया [म.आ.९८] ;[मत्स्य. ४९] ;[वेदार्थ दीपिका ६.५२] । संवर्त से इसका झगडा ईर्प्या के कारण हुआ । यह आरम्भ से ही देवों का एवं पृथ्वी के पॉंच सम्राटों में से मरुत्त नामक सम्राट का भी पुरोहित था । एक बार अपना यज्ञ कराने के लिये इन्द्र ने इसे आमंत्रित किया । यह वहॉ गया, तथा वहॉं की सुखसामग्री एवं विलास देख कर वहीं रहा गया । इधर पृथ्वी पर मरुत्त को भी यज्ञ करना था । अतएव उसने इसे उपस्थित न जानकर, इसके भाई संवर्त द्वारा यज्ञ कार्य कराना आरम्भ किया । जैसे ही इसे यज ज्ञात हुआ, इसने इसमें अपना अपमान समझा, तथा इंद्र को आदेश दिया कि, वह संवर्त द्वारा किया गया मरुत्त का यज्ञ विध्वंस कर दे । इन्द्र अपनी समस्त सेना को ले कर यज्ञ विध्वंस हेतु गया, किंतु संवर्त के ब्रह्मतेजोबल के सम्मुख उसे परास्त होना पडा । पश्चात् मरुत्त का यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ [म.आश्व. ५.९] । बृहस्पति III. n. बृहराति की पत्नियॉं, एवं पुत्रों के बार में अनेक निर्देश महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है। किंतु, वहॉं देवता बृहस्पति, देवगुरु बृहस्पति एवं बृहस्पति अंगिरस इन तीन स्वतंत्र व्यक्तियों के बारे मेम पृथगात्मत नही है, एवं इन तीनों को बहुत बूरी तरह संमिश्रित किया गया है । उदाहरणार्थ, तारा की कथा में, बृहस्पति को देवगुरु एवं आंगिरस् कहा गया है [मत्स्य. ८३.३०] ;[विष्णु.४.६.७] । देवगुरु ब्रह्मस्पति को भी, अनेक स्थानों पर, आंगिरस् कहा गया है, एवं बृहस्पति आंगिरस् को अनेक स्थानों पर देवगुरु कहा गया है । वस्तुतः इन तीनों व्यक्तियॉं संपूर्णतः विभिन्न थी, जैसे कि ऊपर बताया गया है । इस कारण, बृहस्पति की पत्नियॉं एवं पुत्रों के जो नाम पुराणों में प्राप्त है, वे निश्चित कौन से बृहस्पति से संबधित है, यह कहना असंभव है । बृहस्पति को तारा (चांद्रमसी) एवं शुभा नामक दो पत्नियॉं थी । कई ग्रंथों में, प्रजापति की कन्या उषा को भी बृहस्पति की पत्नी बताया गया है । उनमें से शुभा से इसे सात कन्यॉं, एवं तारा से सात पुत्र एवं एक कन्या उत्पन्न हुयी । शुभा की कन्याओं के नाम इस प्रकार थेः---भानुमती, रागा, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनिवाली एवं हविष्मती । तारा को अग्नि के नाम धारण करनेवाले सात पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार थेः---शंयु, निश्चवन, विश्वभुज, विश्वजित्, वडवाग्नि, एवं स्विष्टकृत । उतथ्य नामक अपने भाई की पत्नी ममता से इसे भरद्वाज नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जिसे इसने ‘आग्नेयास्त्र’ प्रदान किया था । तारा की कन्या का नाम स्वाहा था, जो वैश्वानर अग्नि की पत्नी थी (स्वा २. देखिये) । कुशध्वज (कच) नामक इसके और एक पुत्र का निर्देश महाभारत में अनेक बार आता है [म.अनु.२६] ; कच २. देखिये । किन्तु बृहस्पतिपत्नियों में से कौनसी पत्नी से वह उत्पन्न हुआ था, यह कहना मुष्किल है, क्यों कि, शुभा एवं तारा के पुत्रों में कही भी कच का नाम प्राप्त नही होता है । द्रोणाचार्य की उत्पत्ति भी बृहस्पति के अंश से ही हुई थी, ऐसा माना जाता है । बृहस्पति की भुवना नामक एक ब्रह्मवादिनी एवं योगपरायण बहन थी, जो प्रबहस नामक वसु की पत्नी थी, तथा उससे उसे विश्वकर्मन, नामक पुत्र पैदा हुआ था । बृहस्पति IV. n. एक तत्त्वज्ञ आचार्य, जिसने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, एवं व्याकरणशास्त्र पर अनेक ग्रंथों की रचना की थी । इसके द्वारा लिखित ‘बृहस्पतिस्मृति’ नामक एक ही ग्रंथ मुद्रित रुप में प्राप्त है । किंतु कौटिलीय अर्थशास्त्र, कामंदकीय नीतिसार, याज्ञवल्क्यस्मॄति, अपरार्क, स्मृतिचंद्रिका आदि विभिन्न विषयक ग्रंथों में, इसके मत एवं इसके ग्रंथों के उद्धरण प्राप्त है, जिनसे प्रतीत होता है कि, इसके द्वारा धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, व्याकरणशास्त्र वास्तुशास्त्र, आदि विषयों पर काफी ग्रंथरचना की गई होगी । बृहस्पति के द्वारा लिखित ‘बृहस्पतिस्मृति’ नामक जो ग्रंथ सांप्रत उपलब्ध है, वह अत्यधिक छोटा है, उसमें केवळ अस्सी श्लोक हैं, एवं आनंदाश्रम पूना ने प्रकशित किया है । जीवानंद के संग्रह में भी इसके नाम पर एक छोटी स्मृति है, किन्तु उसमें दानप्रशंसा आदि साधारण विषयों की चर्चा की गयी हैं । अपरार्क आदि स्मृतियों में बृहस्पतिस्मृति के काफी उद्धरण लिये गये हैं, जिनसे इसकी मूल स्मृति की महत्ता का अनुमान किया जा सकता है । मुकदर्मो के दो प्रकारों (फौजदारी तथा देवानी) का प्रचलन सर्वप्रथम इसके द्वारा ही किया गया है । इसने है सर्वप्रथम यह विधान रक्खा कि, जिन विधवाओं का पुत्र न हों, उन्हे पति के मृत्यु के बाद समस्त संपत्ति की अधिकारणी समझा जाय । वात्स्यायण कामसूत्र में इसके मतों का निर्देश प्राप्त है । राजा के सोलह प्रधान होने चाहिये, ऐसा इसका अभिमत था, जो कौटिल्य अर्थशास्त्र में निर्दिष्ट है। इसकी ‘स्मृति’ में नाणक, दीनार आदि सिक्कों की जानकारी प्राप्त है । बृहस्पति, आंगिरस, नारद एवं भृगु इन चार ऋषियों ने मनुस्मृति को चार विभागों में विभक्त करने का निर्देश प्राप्त है । इन चार आचार्यो में बृहस्पति के मत संपूर्णतः मनु के अनुकूल हैं । अपरार्क एवं कात्यायन द्वारा लिये गये इसके उद्धरणों एवं नाणक एवं दीनार सिक्कों के आधार पर अनुमान किया गया है कि, धर्मशास्त्रकार बृहस्पति का समय दूसरी शताब्दी ईसा उपरांत होगा । वायु में बृहस्पति द्वारा किये गये इतिहास पुराण विषयक प्रवचन का निर्देश प्राप्त है, एवं ‘अष्टांगहृदय’ में इसके द्वारा रचे गए ‘अंगदतंत्र’ नामक वैद्यकीय ग्रंथ का निर्देश प्राप्त हैं [वायु.१०३-५९] ;[अष्टांग. पृ.१८] । बृहस्पति IV. n. १. बृहस्पतिस्मृति; २. बार्हपत्यशास्त्रः---ब्रह्मदेव द्वारा रचित ‘बाहुदन्तक’ नामक ग्रंथ को बृहस्पति ने तीन हजार अध्यायों में संक्षिप्त किया जिसे ‘बार्हस्पत्यशास्त्र’ कहते हैं; ३. दानबृहस्पति-बृहस्पति के इस ग्रंथ का निर्देश अपरार्क एवं दानरत्नाकार में प्राप्त हैं; ४. स्वप्नाध्याय; ५. चार्वाक दर्शनः---बृहस्पति द्वारा इस ग्रंथ का निर्देश एवं दानरत्नाकार बृहस्पति द्वारा रचित इस ग्रंथ का निर्देश प्राप्त है । बृहस्पति V. n. वास्तुशास्त्र----बृहस्पति द्वारा वास्तुशास्त्र पर लिखित एक ग्रंथ का निर्देश मत्स्य में प्राप्त है [मत्स्य.२५२] ; व्याद देखिये । बृहस्पति VI. n. जनमेजय के सर्पसत्र में उपस्थित एक ऋषि ।
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