नारद n. एक वैदिक द्रष्टा एवं यज्ञवेत्ता
[अ.वे.५.१९.९,१२.४.१६,२४,४१] ;
[मै. सं.१.५.८] । यह हरिश्चंद्र राजा का पुरोहित था, एवं पुरुषमेध करने की राय इसीने उसे दी थी
[ऐ.ब्रा.७.१३] । वशा धेनु का मांस ब्राह्मण ने भक्षण करना योग्य है या अयोग्य, इस विषय में इसका नामनिर्देश अथर्ववेद में कई बार आया है । यह बृहस्पति का शिष्य था
[सां.ब्रा.३.९] । यद्यपि सारी विद्याएँ इसने बृहस्पति से प्राप्त की थी, तथापि ‘ब्रह्मज्ञान’ के प्राप्ति के लिये, यह सनत्कुमार के पास गया था
[छां.उ.७.१.१] । सोमक साहदेव्य नामक अपने शिष्य को, इसने ‘सोमविद्या’ सिखायी थी
[ऐ.ब्रा.७.३४] । पर्वत नामक अन्य आचार्य के साथ, इसने आंबष्ठय एवं युधांश्रौष्टि राजाओं ‘ऐंद्रमहाभिषेक’ किया थ
[ऐ. ब्रा.८.२१] ।
नारद II. n. एक देवर्षि एवं ब्रह्माजी का मानसपुत्र । एक धर्मज्ञ तत्त्वज्ञ, वेदांतज्ञ, राजनीतिज्ञ एवं संगीतज्ञ के नाते, नारद का चरित्रचित्रण महाभारत में किया गया है
[म.आ.परि.१.१११] । जी चाहे वहॉं भ्रमण करनेवाले से प्रवास करता था, एवं इसका संचार तीनोम लोकों में रहता था । यह वेद एवं वेदांत में पारंगत, ब्रह्मज्ञानयुक्त, एवं नयनीतिज्ञ था । राजाओं के घर में इसे बृहस्पति जैसा मान था । यह ‘नानार्थकुशल’, एवं लोगों के धर्म, राजनीति एवं नित्यव्यवहार आदि विषयों के संशय दूर करने में प्रवीण था । स्वभाव से यह पुण्यशील सीदासादा एवं मृदुभाषणे था । यह उत्कृष्ट प्रवचनकार एवं संगीतकार था ।
नारद II. n. नारद की शरीरकांति श्वेत एवं तेजस्वी थी । इंद्र ने प्रदान किये सफेद, मृदु एवं धूत वस्त्र यह परिधान करता था । कानों में सुवर्णकुंडले, कंधों पर वीणा, एं सिर पर, ‘श्लक्ष्ण शिखा’(मृदु चोटी)से, यह अलंकृत रहता था ।
नारद II. n. नारद ब्रह्माजी का मानसपुत्र एवं विष्णु का तीसरा अवतार था
[भा१.३.८] ;
[मत्स्य.३.६-८] । यह ब्रह्माजी की जंघा से उत्पन्न हुआ थ
[भा.३.१२.२८] । यह नरनारायणों का उपासक था
[भा.१.३] , एवं दर्शन तथा जिज्ञासपूर्ति के हेतु, यह उनके पास हमेशा जाता था
[म.शां.३२१.१३-१४०] । यह चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षिओं में से एक था ।
नारद II. n. नारद ने दक्ष के ‘हर्यश्व’ नामक दस हजार पुत्रों को सांख्यज्ञान का उपदेश दिया, जिस कारण वे सारे विरक्त हो कर घर से निकल गये
[म.आ.७०.५-६] । अपने पुत्रों को प्रजोत्पादन से परावृत्त करने के कारण, दक्ष नारद पर अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं उसने इसे शाप दिया
[विष्णु.१.१५] । इस शाप के कारण, नारद ब्रह्मचारी रह क्रर हमेशा भटकता रहा, एवं सारी दुनिया मे झगडे लगाता रहा
[भा.६.५.३७-३९] । दक्ष का शाप इसे जन्मजन्मांतर के लिये मिला था । इस कारण कश्यप प्रजापति के घर लिये अपने अगले जन्म में भी, दस के शाप की पीडा इसे पूर्ववत ही भुगतनी पडी । दक्ष के शाप की यही कहानी, अन्य पुराणों में कुछ अलग ढंग से दी गयी है । हरिवंश के मत में, दक्ष ने नारद को शाप दिया, ‘तुम नष्ट हो कर, पुनः गर्भवास का दुख सहन करोगे’
[ह.वं.१.१५] । परमेष्ठी ने अन्य ब्रह्मर्षियों को आगे कर, नारद को उःशाप देने की प्रार्थना दक्ष से की । फिर दक्ष ने परमेष्ठी से कहा, ‘मैं अपनी कन्या तुम्हें विवाह में दे दूँगा, एवं उस कन्या के गर्भ से नारद का पुनर्जन्म हो जायेगा
[वायु.६६.१३५-१५०] ;
[ब्रह्मांड.३.२.१८] । इस उःशाप के अनुसार, परमेष्ठी का विवाह दक्षकन्यों से होने के पश्चात् उन्हे नारद पुत्ररुप में प्राप्त हो गया
[ब्रह्म.१२.१२-१५] । देवी भागवत के मत में, दक्ष ने नारद को शाप दिया, ‘तुम्हारा नाश हो कर, अगला जन्म तुम्हें मेरे ही पुत्र के नाते लेना पडेगा’ । इस शाप के अनुसार, नारद मृत हो गया एवं ‘दक्ष’ एवं वीरिणी के पुत्र के नाते, नया जन्म लेने पर विवश हो गया
[दे.भा.७.१] । वायुपुराण के मत में, शिवजी के शाप के कारण जिन प्रजापतियों की मृत्यु हो गयी, उनमें नारद भी एक था
[वायु.६६.९] । अपने अगले जन्म में, यह कश्यप प्रजापति का पुत्र एवं अरुंधती तथा पर्वत इन कश्यप संतति का भाई बन गया
[वायु.७१.७८.८०] । महाभारत के मत में, पर्वत नारद का भाई न होइ कर, भतीजा था
[म.शां.३०.५] ;
[दे. भा.६.२७] । ब्रह्मवैवर्तपुराण में, नारद के पुनर्जन्म की कहानी कुछ अलग ढंग से दी गयी है । दक्ष के शाप के कारण, एक शूद्रस्त्रीगर्भ से यह पुनः उत्पन्न हुआ । इस नये जन्म में, इसकी माता कलावती नामक शूद्र स्त्री थी । द्रमिल नामक शूद्र की वह पत्नी थी ।अपने पति की अनुमति से, कलावती ने पुत्रप्राप्ति के हेतु, कश्यप प्रजाप्ति का वीर्य प्राशन किया । बाद में द्रमिल ने देहत्याग किया, एवं कलावती एक ब्राह्मण के घर प्रसूत हो कर, उसे एक पुत्र हुआ । वही नारद है । बाद में इसे कश्यप ऋषि को अर्पन किया गया । कृष्णस्तव के कारण, यह शापमुक्त हुआ, एवं ब्रह्मदेव ने इसे सृष्टि उत्पन्न करने की अनुज्ञा भी दी । किंतु यह आजन्म ब्रह्मचारी ही रहा । महाभारत में, कश्यप एवं मुनि के पुत्र के रुप में, नारद ने पुनः जन्म लिया, ऐसा निर्देश प्राप्त है
[म.आ.५९.४३] ।
नारद II. n. त्रैलोक्य के राजाओं का वार्ताहर, एवं सलाहगार ऋषि मान कर, नारद का चरित्रचित्रण महाभारत में किया गया है । अर्जुन के जन्म के समय नारद उपस्थित था
[म.आ.११४.४६] । द्रौपदी के स्वयंवर में, अन्य गंधर्व एवं अप्सराओं के साथ, यह गया था
[म.आ.१७८.७] । पश्चात् द्रौपदी के निमित्त, पांडवों का आपसमें कोई मतभेद न हो, इस उद्देश्य से नारद इंद्रप्रस्थ चला आया । पांडवों के प्रति, सुंद एवं उपसुंद की कथा का वर्णन कर, द्रौपदी के विषय में झगडे से बचने के लिये कोई नियम बनाने की प्रेरणा, इसने पांडवों को दे दी
[म.आ.२०४] । युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ का राजा होने के पश्चात्, नारद ने उसे हरिश्चंद्र की कथा सुना कर, राजसूय यज्ञ की प्रेरणा दी
[म.स.११.७०] । राजसूययज्ञ में अवभृथस्नान के समय, नारद ने स्वयं युधिष्ठिर को अभिषेक किया
[म.स४९.१०] । विदर्भ देश की राजकन्या दमयंती के स्वयंवर की वार्ता, इंद्र को नारद ने ही कथन की थी
[म.व.५१.२०-२४] । राजा अश्वपति के पास जा कर, सत्यवान् एवं सावित्री के विवाह का प्रस्ताव नारद ने ही प्रसृत किया ह्ता
[म.व.२७८.११-३२] । प्राचीन राजाओं की अनेक कथाएँ नारद के द्वारा ‘महाभारत’ में कथन की गयी हैं । उनमें से इसने सृंजय राजा को कथन किये, ‘षोडश राजकीय उपाख्यान’ की कथाएँ विशेष महत्तपूर्ण मानी जाती है
[म.द्रो.परि.१.८.३२५-८७२] । उन कथाओं में निम्नलिखित राजाओं के चरित्र, पराक्रम, महत्ता, दानशीलता, एवं उत्कर्ष का वर्णन किया गया हैः---१. अविक्षित मरुत्त,२. वैदिथिन सुहोत्र, ३. पौरव, ४. औशीनर, शिबि, ५. दाशरथि राम, ६. ऐश्वाकु भगीरथ, ७. ऐलविल दिलीप, ८. यौवनाश्व मान्धातृ.९. नाहुष ययाति, १०. नाभाग अंबरीष, ११. यादव शशबिंदु, १२. आमूर्तरयस गय, १३. सांकृति रंतिदेव, १४. दौष्यन्ति भरत, १५. वैन्य पृथु, १६. जामदग्न्य परशुराम । नारद कथन की हुई येही कथाएँ, भारतीय युद्ध के बाद, श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से निवेदन की थी
[म.शां.२९] । भारतीय युद्ध के रात्रियुद्ध में, नारद ने कौरवपांडवों की सेनाओं में दीपक का प्रकाश निर्माण किया था
[म.द्रो.१३८] । भारतीय युद्ध में हुए कौरवों के संपूर्ण विनाश की वार्ता, बलराम को नारद ने ही सुनायी थी
[म.श.५३.२३-३१] । अर्जुन एवं अश्वत्थामा के युध यें ब्रह्मास्त्र को शांत करने के लिये नारद प्रकट हुआ थ
[म.सौ.१४.११-१२] । युद्ध के पश्चात्, युधिष्ठिर के पास आ कर, उसका कुशल समाचार नारद ने पूछा था
[म.शां९-१२] । युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ के समय नारद उपस्थित था
[म.आश्व.९०.३८] । प्राचीन ऋषिओं की तपः सिद्धि का दृष्टान्त दे कर, नारद ने धृतराष्ट्र की तपस्या विषयक श्रद्धा को बढाया था
[म.आश्व.२६.१] । का समाचार, नारद ने ही युधिष्ठिर को कथन किया था
[म.आश्व.४५.९-३१] । नारद ने युधिष्ठिर से कहा, ‘धृतराष्ट्र लौकिक अग्नि से नहीं, किंतु अपने ही अग्नि से दग्ध हो गया है’। इतना कह कर, इसने युधिष्ठिर से धृतराष्ट्र को जलांजली प्रदान करने की आज्ञा दी
[म.आश्व.४७.१-९] । सांब के पेट से मुसल पैदा होने का शाप देनेवाले ऋषिओं में, नारद एक था
[म.मौ.२.४] ।
नारद II. n. एक तत्त्वज्ञ के नाते, नारद श्रेष्ठ विभूति थे । तत्त्वज्ञ नारद ने दिये उपदेश के अनेक कथा भाग ‘महाभारत’ में निर्देश किये गये है । तीस लाख श्लोकोवाला ‘महाभारत’ नारद ने देवताओं को सुनाया था
[म.आ.परि.१.४] । ‘पंचरात्र’ नामक आत्मत्त्व का उपदेश नारदे ने व्यास को दिया था
[म.शां.३२६] । इसने सूर्य के अष्टोत्तरशत नाम का उपदेश धौम्य को दिया था
[म.व.३.१७-२९] । इसने शुकदेव को वैराग्य, ज्ञान आदि विविध विषयों का उपदेश दिया था
[म.शां.३१६-३१८] । मार्कडेय को नारद ने अनु.५४-६३ कुं.) । पूजनीय पुरुषों के लक्षण, एवंउनके आदरसंस्कार से होनेवाले लाभ का वर्णन इसने श्रीकृष्ण को बताया था
[म.अनु.३१.५-२५] । श्रीकृष्ण की माता देवकी को, विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न वस्तुओं के दान का महत्त्व नारद ने कथन किया था
[म.अनु.६४.५-३५] । ‘श्रेयःप्राप्ति के लिये नारायण की उपासना करने का उपदेश, नारद ने पुंडरीक को दिया था
[म.अनु.१२४] । समुद्र के किनारे ब्रह्मसत्र करनेवाले ज्ञानी प्रचेताओं को नारद ने ज्ञानोपदेश दिया था
[म.शां.३१६-३१९] । सृष्टि की उत्पत्ति तथा लय के बारे में जानकारी इसीने देवल को बतायी थी
[म,.शां.२६७] । समंग के साथ इसका ज्ञानविषयक संवाद हुआ था
[म.शां.२७५] । पुत्रशोक करनेवाले अकंपन राजा को, मृत्यु की कथा बता कर इसने शांत किया था
[म.शां.२४८-२५०] । शास्त्रश्रवण से क्या लाभ होगा है, इसकी जानकारी इसने गालव को दी थी
[म.शां.२७६] । प्राणापान में से प्रथम क्या उत्पन्न होता है, इसका ज्ञान नारद ने देवमत को प्रदान किया
[म.आश्व.२४] । शतयूषा को इसने स्वर्ग के बारे में जानकारी दी
[म.आश्व.२७] । भागवत आदि ग्रंथों में भी तत्त्वज्ञ नारद के अनेक निर्देश दिये गये है । सावर्णि मनु को ‘पंचरात्रागमतंत्र’ का उपदेश नार्द ने दिया था
[भा.१.३.८,५.१९.१०] । इसने व्यास को ‘भागवत’ ग्रंथ लिखने की प्रेरणा दी थी
[भा.१.५.८] । ऋषिओं को इसने ‘भगवतमाहात्म्य’ बताया था
[पद्म. उ.१९३-१९५] ।
नारद II. n. नारद श्रेष्ठ श्रेणी का संगीतकलातज्ज्ञ एवं ‘स्वरज्ञ’ था
[म.आ.परि.१११.४०] । इसका ‘नरद्रसंहिता’ नामक संगीतशास्त्रसंबंधी एक ग्रंथ मी प्राप्त है । नारद ने संगीत कला कैसी प्राप्त की, इसके बारे में कल्पनारम्य कथा अध्यात्मरामयण में दी गई है
[अ.रा.७] । एक बार लक्ष्मी के यहॉं संगीत का समारोह हुआ । उस समय गायकाला न आने के कारण, लक्ष्मी ने नारद दो दासियों के द्वारा बेंत एं धक्के मार कर सभास्थान से निकाल दिया, ‘एवं संगीतकलाप्रवीण होने के कारण तुंबरु का सम्मान किया । यह अपमान सहन न हो कर, इसने लक्ष्मी को शाप दिउया, ‘तुम राक्षसकन्या बनोगी । मटके में इकट्टा किया गया खून पी कर रहनेवाली स्त्री के उदर से तुम्हारा जन्म होगा । अपने माता के नेच कृत्य के कारण, तुम्हे घर से निकाल दिया जायेगा’। गायन सीखने के लिये यह गानबंधुओं के पास गया । वहॉं यह गानविद्याप्रवीण बन गया, एवं इसे स्वरज्ञान हो कर, संगीतकला में अन्तर्गत दशसहस्त्र स्वरों का सूक्ष्म भेदाभेद यम समझने लगा । किन्तु इसका संगीत ज्ञान केवल ग्रांथिक ही रहा । इसकी गले से निकलनेवाले स्वर अभी अक वेढंगे ही रहे । अपने अधुरे संगीतज्ञान का प्रदर्शन करने के हेतु, यह तुंबरु के पास गया । वहॉं इसे सारी रगिनियॉं टूटी मरोडी अवस्था में दिखाई पडी । इसने उन्हें उनकी यह विकल अवस्था का कारण पूछा । फिर उन्होंने कहॉं, तुम्हारे ‘बेढंगे’ गायन के कारण, हमारी यह हालत हो चुकी है । तुंबरु का गायन सुनने के बाद हमें पूर्वस्थिति प्राप्त होगी’। रागिनियों के इस वक्तोक्तिपूर्ण भाषण से लज्जित हो कर, यह श्वेतद्वीप में गया । वहॉ इसने विष्णु की आराधना की । उस आराधना से प्रसन्न हो कर श्रीविष्णु ने इससे कहा, ‘कृष्णावतार में मैं खुद तुम्हें गायन सिखाऊंगा’। इस वर के अनुसार, कृष्णावतार के समय, यह कृष्ण के पास गया । वह जांबवती, सत्यभामा एवं रुक्मिणी, इन कृष्णपत्नियों ने तथा बाद में स्वयं कृष्ण ने इदी गायनकला में पूर्ण पारंगत किया । श्रीकृष्ण के पास जाने क पहले यह पुनः एक बार तुंबरु के पास गया था । परंतु वहॉं धैवतों के साथ षड्जादि छः देवकन्याओं को इसने देखा, एवं शरम के मारे यह वहॉंसे वापस चला आया ।
नारद II. n. पुराणों में नारद का व्यक्तिचित्रण, एक धर्मज्ञ देवर्षि की अपेक्षा, एक हास्यजनक व्यक्ति के नाते भी किया गया प्रतीत होता है । विष्णु की माया के कारण, नारद का रुपांतर कुछ काल के लिये ‘नारदी’ नामक एक स्त्री में हो गया था । यह कथा विभिन्न पुराणों में, अलग अलग ढंग से दी गई है । ‘नारदपुराण’ के मत में, वृंदा के कहने पर नारद ने एक बार सरोवर में डुबकी लगाई । उस सरोवरस्नान के कारण, इसका रुपांतर नारदी नामक स्त्री में हो गया । इसी नारदी का कृष्ण से वैवाहिक समागम हो गया । पश्चात् अन्य एक सरोवर में स्नान करने पर, इसे पुरुषरुप फिर वापस मिल गया
[नारद. २. ८७] ;
[पद्म.पा.७५०] । यही कथा ‘ब्रह्मपुराण’ में इस प्रकार दी गयी है । एक बार श्वेतद्वीप में जा कर, नारद ने श्रीविष्णु की स्तुति की । उसने प्रसन्न हो कर इसे वर मॉंगने के लिये कहा । फिर इसने कहा, ‘भगवन मुझे अपनी भार्या दिखाओ’। इसे गरुड पर बैठा कर विष्णु कान्यकब्ज देश ले गया, तथा एक सरोवर में स्नान करने के लिये उसने इसे कहा’। स्नान के लिये सरोवर में डुबकी लगाते ही इसे पता चला कि, इसका रुपांतर काशिराज की कन्या सुशीला नामक स्त्री में हो गया है । बाद में सुशीला का रुप धारण किये हुए नारद का ब्याह विदर्भ राजा सुशर्मा से हुआ । पश्चात विदर्भ राजा सुशर्मा, तथा काशिराज का आपस में युद्ध हो कर्म, दोनों ल्का ही नाश हो गया । जनककुल तथा भर्तकुल दोनों का ही नाश देख कर, दुःखातिरेक से इसने चिता में प्रवेश किया । बात यहॉं तक बढते ही यह पानी से बाहर आया एवं यह सारा कथाभाग इसे सपने जैसा प्रतीत होने लगा । किन्तु उस प्रसंग के चिह्रस्वरुप जलने की निशानी इतकी जॉंघ पर रह गई, तथा उसके दुःख से यह लगातार तडपने लगा । सरोवर के किनारे बैठे हुए विष्णु कादर्शन लेते ही, इसकी वेदना शान्त हो गयी
[ब्रह्म. २२८] । ‘देवीभागवत’ के कथनानुसार, अपने नारीअवतार में नारद तालजंघ राजा की पत्नी बना था, जिससे इसे बीस पुत्र पैदा हुएँ थे
[दे. भा.६.२८-३०] । एक बार गाने की मधुर आवाज सुन कर, नारद ने वृंदा से पूछा, ‘यह गाने की आवाज कहॉं से आर रही है?’ फिर उसने इसे गीतगायन में तल्लीन कुब्जा दिखाई, एवं कुब्जा का जन्मवृत्तांत इसे बताया
[नारद २.८०] ।
नारद II. n. शिबिराज सृंजय की दमयंती नामक कन्या के साथ नारद का विवा हुआ था, ऐसा कथाभाग कई पुराणों में दिया गया है । ‘नारदविवाह’ की ब्रह्मवैवर्त पुराण में दी गयी कथा इस प्रकार है
[ब्रह्मवै. ४.१३०.१०-१५] । एक बार नारद तथा उसका भतीजा पर्वत घूमते घूमते शैव्यपुत्र सृंजय (संजय) के घर आये, एवं वहॉं कुछ काल तक रह गये । सृंजय ने इनका स्वागत किया, एवं अपनी कन्या दमंयती को इनके सेवा में नियुक्त किया । उस समय नारद तथा पर्वत में ऐसा करार हुआ था, ‘इन दोनों के मन में जो भी बात आवेगी, वह छिपाना नहीं बल्कि तत्काल दूसरे को कथन करना, अगर कोई कुछ छिपाने की कोशिश करे, तो दूसरा उसे शाप दे सकता है’। कई दिन बीतने के बाद, नारद दमयन्ती पर प्रेम करने लगा, किन्तु यह बात इसने पर्वत से छिपा रखी । नारद की इस दगाबाजी को देख कर, पर्वत इस पर अत्यंत क्रोधित हुआ, एवं उसने इसे शाप दिया, ‘तेरा मुख वानर के सदृश हो जावेगा, एवं अन्यों को तुम साक्षात् मृत्यु के समान दिखाई दोगें’। यह शाप सुन कर, नारद ने भी पर्वत को प्रतिशाप दिया, ‘तुम्हे स्वर्गप्राप्ति नहीं होगी’। इस पर पर्वत दीन हो कर नारद की शरण में आया, तथा इसे अपना शाप वापस लेने के लिये प्रार्थना करने लगा । फिर नारद एवं पर्वत ने अपने अपने शाप वापस ले लिये । पश्चात् सृंजय की कन्या दंमयती से नारद का ब्याह हो गय (दमयंती देखिये) ।
नारद II. n. सृंजय की सेवा से संतुष्ट हो कर, नार्द ने उसे वर मॉंगने के लिये कहा । सृंजय ने सर्वगुणसंपन्न पुत्र मॉगा । नारद के वरानुसार के वन्रानुसार कुछ दिनीं के सृंजय को एक पुत्र हुआ । महाभारत द्रोणपर्व के अनुसार, जिसके मूत्रपूरीषादि उत्सृष्ट पदार्थ सुवर्ण के है, ऐसा पुत्र सृंजय ने नारद से मॉंगा । नारद के आशीर्वाद से उसे वैसा ही सुवर्णष्ठीविन् नामक पुत्र हुआ । सुवर्णमय मलमूत्र विसर्जन करनेवाले उस बालक को कई चोर चुरा ले गये तथा उसका उदर उन्होंने विदीर्ण किया । किन्तु इच्छित सुवर्णप्राप्ति ने होने के कारण, क्रोधित होकर वे आपस में ही लड कर मर गये
[म.द्रो.५५] । शान्तिपर्व में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गई है । ‘अपना पुत्र इंद्र का पराजय करनेवाला हो, ‘ऐसी सृंजय की इच्छा थी । ‘तुम्हारा पुत्र दीर्घायु नहीं होगा’ ऐसा शाप पर्वत ने सृंजय को दिया था । फिर सृंजय अत्यंत निराश हो गया उसका दीनवदन देख कर नारद ने उसे कहा, ‘पर्वत के शाप से तुम्हारा पुत्र मृत होते ही, मेरा स्मरण करो । मैं तुम्हे उसी रुपगुण का दूसरा पुत्र प्रदान करँगा।’ नारद के वर के अनुसार सृंजय को एक पुत्र हुआ । उसका नाम सुवर्णष्ठीविन् रख दिया गया । वह अपना पराभव करेगा ऐसा भय इंद्र को लगा । इसलिये इंद्र ने उस पुत्र के पीछे वज्र छोडा, जिससे कुछ फायदा नहीं हुआ । बाद में एक दाई के साथ वह पुत्र सरोवर की ओर घूमने गया । उस समय उसे एक शेर ने मार डाला । पुत्रशोक से पागल से हुए, सृंजय ने नारद का स्मरण किया । फिर नारद प्रकट हुआ, एवं सृंजय के शोकहरणार्थ इसने उसे काफी उपदेश किया । उपदेश करते समय इसने मरुत्तादि राजाओं का चरित्र कथन कर के उसका दुःख कम किया । उसका शोक दूर होने पर, नारद ने उसे उसका मृत पुत्र वापस दिया
[म.द्रो.परि.१.क्र.५८] ।
नारद II. n. रामायणकाल में राम का अश्वमेधीय अश्व वीरमणि ने पकड लिया । उस समय वहॉं प्रकट हो कर, नारद ने अश्व की रक्षा करनेवाले शत्रुघ्न को चेतावनी दी, एवं सावधानी से युद्ध करने के लिये कहा ।‘युद्धभूमि में विजय अत्यंत प्रयत्न से ही प्राप्त होगा है, ‘ऐसा इसके उपदेश का सार था ।
नारद II. n. एक बार पुष्करक्षेत्र में ऋषिओं का सत्र चालू था । वहॉं अनेक प्रकार की चर्चाएँ चल रही थीं । उस में कलियुग के बारे में चर्चा करते वक्त एक ऋषि ने कहा, ‘अन्य कौन से ही युग कलियुग अच्छा है, क्यों कि उसमें फलप्राप्ति शीघ्र होती है’। इतने में नारद एक हाथ में शिश्र, तथा कएक हाथ में जबान पकड कर वहॉं आया । इसने ऋषियों से कहा, ‘ये दो इन्द्रिय कलियुग में अनिवार्य होती है । इसलिये इस, पाखंड प्रचुर भारत का त्याग कर आप अन्यत्र चलें’। यह सुनते ही ऋषियों ने सत्र समाप्त कर दिया, तथा वे वहॉं से चले गये
[स्कंद.२.७.२२] । जिस समय ब्रह्मदेव ने सत्र किया, उस समय उपस्थित ब्रह्मगणों में नारद एक था
[पद्म. सृ.३४] । इसने कोटितीर्थ, जयादित्य, नवदेवी, भटटादित्य इ. तीर्थो की स्थापना की
[स्कंद.१.४३-४७] ।
नारद II. n. एक बार नारद नंद के घर गया । वहॉं इसने सोचा कि, कृष्ण जब प्रत्यक्ष विष्णु है, तो उसकी पत्नी लक्ष्मी ने भी यहीं कहीं अवतार अवश्य लिया होगा । इसी विचार से इसने नंद के परिवार में लक्ष्मी का तलाश करना प्रारंभ किया । पश्चात् इसने देखा कि, भानु नामक गोप की अंधी, लूली, एवं बहरी कन्या बन कर, लक्ष्मी ने नंदपरिवार में जन्म लिया है
[पद्म.पा.७१] । कृष्णजन्म के समय, उसके पिता वसुदेव एवं माता देवकी मथुरा का राजा कंस के कारागार में कैद लिये गये थे । उस समय, वसुदेव एवं देवकी के ऑठवें पुत्र से अपने को धोखा है, यह समझ कर, कारागार में पैदा हुएँ उनके पहले छः पुत्रों को कंस छोड देना चाहता था । किंतु कंस की पापराशि बढाने के हेतु, उन सारे पुत्रों का वध करने की प्रेरणा नारद ने कंसराजा को दी । उस उपदेश के अनुसार, कंस ने देवकी के छः पुत्रों का, जन्मते ही वध किया
[भा.१.१.६४] । नरकासुर के बंदीखाने से मुक्त किये सोलह हजार स्त्रियों कृष्ण ने भिन्न भिन्न मंडपों में एक ही मुहूर्त पर विवाह किया । यह चमत्कृतिजनक वृत्त सुन कर नारद को बडा ही अश्वर्य हुआ । इस वार्ता की सत्यता अजमाने के लिये, यह कृष्ण के घर स्वयं चला आया, एवं हरएक कृष्णपत्नी की कोठी में जा क्र जॉंच लेने लगा । वहॉं इसने देखा कि, अपने हरएक अपत्नी के कोठी में, कृष्ण उपस्थित है, एवं किसी न किसी कार्य में वह मग्न है । फिर फजिहत को कर, नारद कृष्ण की शरण में गया
[भा.१०.५९.३३-४५] । एक बार श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणी के पास बैठा था । उस वक्त नारद ने प्रकट हो कर, उसे स्वर्ग का पारिजातक पुष्प दिया । श्रीकृष्ण ने उसे रुम्किणी को दिया । इस कारण सत्यभामा तथा कृष्ण में झगडा हो गया
[ह.वं.२.६५-७३] ;
[विष्णु. ५.३०] । ‘पति का दान करने पर वही पति जन्मजन्मान्तर में प्राप्त होता है’, आदि कह कर, इसने सत्यभामा से स्वयं ही श्रीकृष्ण का दान ले लिया । पश्चात् कृष्ण तथा पारिजातक वृक्ष के भार का सुवर्ण ले कर, इसने उसे लौट दिया
[पद्म.उ.८८] । पार्वती का विवाह शंकर के साथ करने की सलाह नारद ने हिमालय को दी थी
[पद्म. सृ.४३] ।
नारद II. n. एक बार इन्द्र अपनी सभा में अप्सराओं के साथ बैठा था । उस वक्त नारद वहॉं गया । उत्थापन के द्वारा योग्य मान देने के बाद, इन्द्र ने नाअद से पूछा, ‘मैं किस अप्सरा को नृत्य करने का आदेश दूँ’? नारद ने कहा ‘गुणरुप में जो खुद को श्रेष्ठ समझती हो वही नृत्य करें’। तब मैं श्रेष्ठ कह कर सारी अप्सराएँ आपस में झगडने लगी । यह देख इन्द्र ने उन्हें कहा, ‘इसका निर्णय नारद ही कर देंगे’। नारद से पूछा जाते ही इसने कहा, ‘तप करनेवाले दुर्वासस् को जो मोहित कर सके उसे ही मैं श्रेष्ठ कहूँगा । पश्चात वपु नामक एक अप्सरा ही इस काम के लिये तैयार हुई
[मार्क.१.३०-४७] । इनके अतिरिक्त अनेक पौराणिक व्यक्तिओं के साथ नारद का संबंध आता है (नलकूबर, प्रह्राद, रुद्रकेतु, शेष तथा वृन्दा देखिये) ।
नारद II. n. धर्मव्यवहार पर नारद के ‘लघुनारदीय’ एवं ‘बृहन्नारदीय’ ऐसे दो ग्रंथ उपलब्ध हैं । मनु तथा नारद के मतों में काफी साम्य है । याज्ञवल्क्य तथा पराशर ने प्राचीन धर्मशास्त्रकारों में नारद का उल्लेख नहीं किया है । किंतु विश्वरुप ने, वृद्धयाज्ञवल्क्य का
[याज्ञ.१.४-५] । एक श्लोक उद्धृत कर, नारद को दस धर्मशास्त्रकारों में से आद्य धर्मशास्त्रकार मान लिया है । विश्वरुप ने अन्यत्र भी इसका उल्लेख अनेक बार किया है
[याज्ञ.२.१९०, १९६,२२६,३.२५२] । मेधातिथि ने नार का एक गद्य उद्धरण ले कर इसका अनेक बार उल्लेख किया है । अग्निपुराण में नारदस्मृति का काफी भाग आया है । ‘स्मृतिचन्द्रिका’, ‘हेमाद्रि’ ‘पराशरमाधवीय’ आदि ग्रंथों में, नारद के काफी श्लोक लिये गये हैं । नारद याज्ञवल्क्य का परवर्ती होगा । नारद ने सात प्रकार के दिव्य दिये हैं । याज्ञवल्क्य ने पॉंच ही प्रकार के दिये हैं । नारद ने न्यायशास्त्र का सुसंगत विवेचन नहीं किया । याज्ञवल्क्य ने उसे व्यवस्थित ढँग से किया है । नारद किस प्रदेश का रहनेवाला था, यह बताना कठिन है । इसने कार्षापण (सिक्का) का उल्लेख किया है । यह सिक्का पंजाब में प्रचलित था । कुछ लोग कहते हैं कि, यह नेपाल का निवासी होगा । भट्टोजी दीक्षित ने ‘ज्योतिर्नारद’ नाम ग्रंथ का उल्लेख किया है
[चतुर्विशतिमत.११] । रघुनंदन ने ‘बृहन्नारद’ का एवं ‘निर्णयसिंधु’, संस्कारकोस्तुभ’ आदि ग्रंथों में ‘लघुनारद’ का निर्देश किया है । ‘खुले नाम किय गये पातक की अपेक्षा, गुप्तरुप से किया गया पातक कई गुना कम दोषार्ह है, क्यों किम, उसमे कम से कम पातक करनेवाले आदमी की धर्म के प्रति भीरुता प्रकट होती है,’ ऐसा धर्मशास्त्रकार के नाते नारद का कहना था
[नारद. १३.२७] ।
नारद II. n. नारद से सामवेद पर एक ‘शिक्षा’ की रचना की । यह शिक्षा प्रायः श्लोकबद्ध है ।‘भट्टशोभाकर’ ने उस पर भाष्य लिखा है ।
नारद II. n. नारद के नाम पर ‘नारदपुराण’ एवं वास्तुशास्त्रसंबंधी अन्य एक ग्रंथ उपलब्ध हैं । उनमें से ‘नारदपुराण’ इसने ‘सारस्वत कल्प’ में बताया था
[नारद.२.८२] ।
नारद III. n. विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक
[म.अनु.४.५९] ।
नारद IV. n. राम की सभा का एक धर्मशास्त्री । इसने शूद्र हो कर भी तपस्या करनेवाले शंबूक नामक शूद्र का, राम के द्वारा वध करवाया । सोलह साल की छोटी उम्र में मृत हुए एक ब्राह्मणपुत्र को इसने पुनः जीवित कर दिया
[वा.रा.उ.७४] ।