देवल n. एक ऋषि
[क.सं.२२.११] । असित को एकपर्णा से उत्पन्न पुत्रों में से यह एक था । यह कश्यप गोत्र का एक मंत्रकार एवं प्रवर था । इसने हूहू गंधर्व को शाप दिया था
[भा.८.४] । असित देवल तथा देवल इन दोनों नामों से इसका निर्देश प्राप्त है । इसका छोटा भाई धौम्य । वह पांडवों का पुरोहित था (असित देखिये) ।
देवल n. एक स्मृतिकार के नाते भी देवल सुविख्यात था । याज्ञवल्क्य पर लिखी गई ‘मिताक्षरा’
[मिता. १.२८] , ‘अपरार्क, ‘स्मृतिचन्द्रिका’ आदि ग्रंथों में देवल का उल्लेख किया गया है । उसी प्रकार देवल की स्मृति के काफी उद्धरण ‘मिताक्षरा’ में लिये गये हैं
[मिता.१.१२०] । ‘स्मृतिचन्द्रिका’ में देवल स्मृति से ब्रह्मचारी के कर्तव्य, ४८ वर्षो तक पाला जानेवाला, ब्रह्मचर्य, पत्नी के कर्तव्य आदि के संबंध मे उद्धरण लिये गये हैं
[स्मृ.५२,६३] । उसी प्रकार ‘मिताक्षरा,’ हरदत्त कृत ‘विररण, ‘अपरार्क आदि ग्रंथों में ‘देवस्मृति’ में से आचार, व्यवहार, श्राद्ध, प्रायश्चित तथा अन्यु बातों के संबंध में उद्धरण लिय गये हैं । ‘देवल स्मृति’ नामक ९० श्लोकों का ग्रंथ आनंदाश्रम में छपा है । उस ग्रंथ में केवल प्रायश्चित्तविधि बताया गया है । किंतु वह ग्रंथ मूल स्वरुप में अन्य स्मृतियों से लिये गये श्लोकों का संग्रह होगा । इसका रचनाकाल भी काफी अर्वाचीन होगा । क्योंकि, इस स्मृति के १७-२२ श्लोक तथा ३०-३१ श्लोक विष्णु के हैं, ऐसा अपरार्क में
[अपरार्क.३.१२००] बताया गया है । अपरार्क तथा स्मृतिचन्द्रिका में ‘देव स्मृति’ से दायविभाग, स्त्रीधन पर रहनेवाली स्त्री की सत्ता आदि के बारे में उद्धरण लिये गये हैं । इससे प्रतीत होता है कि, स्मृतिकार देवल, बृहस्पति, कात्यायन आदि स्मृतिकारों का समकालीन होगा । देवल विरचित धर्मशास्त्र पर श्लोक एकत्रित कर, तीनसौ श्लोकों का संग्रह ‘धर्मप्रदीप’ में दिया गया हैं । उससे इसके मूल स्मृति की विविधता तथा विस्तार की पूर्ण कल्पना आती है ।
देवल II. n. जनमेजय के सर्पसत्र का एक सदस्य
[म.आ.४६.७] ।
देवल III. n. प्रत्यूष का पुत्र
[म.आ.६०.२२५] ;
[विष्णु.१.१५.१७] । इसका भाई असित । स्वर्ग में जा कर, इसने पितरों को महाभारत का निरुपण किया था
[म.आ.१.६४] ; अजित देखिये ।
देवल IV. n. एक शिवशिष्य । शिव ने श्वेत नाम से दो अवतार लिये । उनमें से दूसरे का शिष्य ।
देवल V. n. कृशाश्व को धिषणा से उत्पन्न पुत्र
[भा.६.६.२०] ।
देवल VI. n. एक ऋषि । ब्रह्मदेव के पुष्कर क्षेत्र के यज्ञ में, ब्रह्मगणों का यह अग्नीध् था
[पद्म. सृ.३४] ।