जनमेजय n. (सू.दिष्ट.) भागवत मत में सुमतिपुत्र । विष्णु एवं वायु मत में सोमदत्तपुत्र ।
जनमेजय (कौतस्त) n. कुतस्त का पुत्र । अरिमेजयप्रथम इसका भाई था । ये दोनों भाई पंचविंश ब्राह्मण के सर्पसत्र में अध्वर्यु तथा प्रतिप्रस्थातृ थे । दूसरे जनमेजय परिक्षित के द्वारा किया गया सर्पसत्र, तक्षशिला समीप के सर्पलोगों का संहार था । पंचविंश ब्राह्मण का सर्पसत्र सर्पलोगों ने अपने स्थैर्य के लिये किया था
[पं. ब्रा. २५.१५.३] । पचविंश ब्राह्मण के सर्पसत्र में, कौनसा कार्य किसने किया इसका इस प्रकार निर्देश हैः
जनमेजय (पारीक्षित) n. सो. (पूरु.) कुरुपुत्र परीक्षित् का पुत्र । इसको जनमेजय पारीक्षित प्रथम कहते है । वेदों में इसे पारीक्षित जनमेजय कहा है
[श. ब्रा. १३. ५.४.१] ;
[ऐ. ब्रा.७.३४, ८.११,२१] ;
[सां. श्रौ.१६.८.२७] । इसकी राजधानी का नाम आसन्दीवत
[ऐ. ब्रा.८.२१] ;
[श. ब्रा. १३.५.४.२] । इसके बंधुओं के नाम उग्रसेन, भीमसेन तथा श्रुतसेन थे । इसने ब्रह्महत्या की थी । पापक्षालनार्थ अश्वमेधयज्ञ भी किया था । उसमें पुरोहित इन्द्रोत दैवाप शौनक था
[श. ब्रा.१३.५.३.५] । तुरक्कावषेय का भी नाम प्राप्य है
[ऐ. ब्रा.८.२१] । इसका अग्नियों के साथ, तत्त्वज्ञानविषय में संवाद हुआ था
[गो. ब्रा.१.२.५] । मणिमती से इसे सुरथ तथा मतिमन् ये दो और पुत्र थे
[ह.वं. १.३२.१०२] । इसके भाईयों का नाम भी कई जगह आया है
[श. ब्रा. १३.५.४.२] ;
[अग्नि. २७८.३२] ;
[गरुड. १.१४०] । कठोर वचन से संबोधन करने के कारण, गार्ग्यपुत्र का, इसने वध किया । ब्रह्महत्या के कारण, इसे राज्यत्याग करना पडा । शरीर में दुर्गधि भी उत्पन्न हुई । इसी कारण लोहगंध जनमेजय तथा दुर्बुद्धि नाम से यह ख्यात हुआ । इन्द्रोत दैवाप शौनक ने अश्वमेध करा के इसे ब्रह्महत्यापातक से मुक्त किया । फिर यह राज्य नहीं पा सका । सुरथ को वह राज्यपद मिला । ययाति को रुद्र से दिव्य रथ प्राप्त हुआ था । इस ब्रह्महत्या के कारण, पूरुकुल मे वंशपरंपरा से आया हुआ, वह रथ वसुचैद्य को दिया गया । वहॉंसे बृहद्रथ, जरासंध, भीम तथा अंत में कृष्ण के पास आया । कृष्ण निर्याण के बाद वह रथ अदृश्य हुआ
[वायु.९३.२१-२७] ;
[ब्रह्मांड.३.६८.१७-२८] ;
[ह.वं.१.३०.७-१६] ;
[ब्रह्म. १२.७-१७] । ‘अबुद्धिपूर्वक किया गया पाप प्रायश्चित से नष्ट हो जाता है, ‘इस संदर्भ में भीष्म ने युधिष्ठिर को जनमेजय की यह पुरानी कथा बतायी है
[म.शां १४६-१४८] ।
जनमेजय (पारीक्षित) II. n. (सो. कुरु.) यह द्वितीय जनमेजय पारीक्षित है । ‘जनमेजय’ का अर्थ है, लोगों पर धाक जमानेवाला’। अर्जुन-अभिमन्यु-परीक्षित्-जनमेजय इस क्रम से यह वंश है । परीक्षित् ने मातुलकन्या (उत्तर की कन्या) से विवाह किया था । उससे, जनमेजय, भीमसेन, श्रुतसेन तथा उग्रसेन नामक चार पुत्र हुएँ । तक्षक ने परीक्षित् की हत्या की । उस समय उम्र में जनमेजय अत्यंत छोटा था । फिर भी हस्तिनापुर के सिंहासन पर इसे ही अभिषेक हुआ । इसने प्रजा का पुत्रवत् पालन किया । इसका पुत्र प्राचीन्वत्
[म.आ.४०] । इसकी पत्नी, काशी के सुवर्णराजा की कन्या वपुष्टमा (कश्या) थी । एक बार यह कुरुक्षेत्र में दीर्घसत्र कर रहा था । सारमेय नामक श्वान वहॉं आया । इसने श्वान को मार भगाया । उसकी मॉं दुवशुनी सरमा पुत्र को ले कर वहॉं आयी । उसने अपने निरपराध पुत्रों की ताडन का कारण पूछा । इसे उसने पश्चात् शाप दिया, ‘तुम्हें दैवी विघ्न आवेगा’। तक्षक से प्रतिशोध लेने के लिये, इसने तक्षशिला पर आक्रमण किया । उसे जीत कर ही यह हस्तिनापुर लौटा । उस समय उत्तंक ने इसे सर्पसत्र की मंत्रणा दी । सब सर्पो का नाश करने का निश्चित हुआ । यज्ञमंडप सजा कर सर्पसत्र प्रारंभ हुआ । इतने में स्थपति (शिल्पी) नामक व्यक्ति वहॉं आया । उसने कहा, ‘एक ब्राह्मण तुम्हारे यज्ञ में विघ्न उपस्थित करेगा’ । अगणित सर्प वेग के साथ उस कुंड में गिरने लगे । तक्षक भयभीत हो कर इंद्र की शरण में गया । इंद्र ने उसकी रक्षा का आश्वासन दिया । पश्चात् वासुकि की बारी आयी । वह जरत्कारु नामक अपने वहन के पास गया । जरत्कारु का पुत्र आस्तीक था । आस्तीक ने वासुकि को अभय दिया । बाद में राजा ने अपने प्रमुख शत्रु तक्षक को आवाहन करने की ऋत्विजों से विनंति की । तक्षक इंद्र के यहॉं आश्रयार्थ गया था । ‘इंद्राय तक्षकाय स्वाहा’, कह कर ऋत्विजों ने आवाहन किया । इंद्रसहित तक्षक वहॉं उपस्थित हुआ । अग्नि को देखते ही इंद्र ने तक्षक का त्याग किया । इतने में आस्तीक वहॉं पहुँचा । उसने राजा की स्तुति की । वर मॉंगने के लिये राजा से आदेश मिलते ही, आस्तीक ने सर्पसत्र रोकने को कहा । विवश हो कर राजा को सर्पसत्र रोकना पडा । इस तरह स्थपति तथा सरमा की शापवाणी सच्ची सावित हुई । श्रुतश्रवस् को सर्पजाति के स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र सोमश्रवस् इस यज्ञ में, था । श्रुतश्रवस् को राजा ने आश्वासन दिया था, ‘तुम्हें जो चाहिये सो मॉंग लो, मैं उसकी पूर्ति करुँगा’
[म.आ.३.१३-१४] ।
जनमेजय (पारीक्षित) II. n. १. चंडभार्गव च्यावन (होतृ), २. कौत्स जमिनि (उद्गातृ), ३. शार्डरव (ब्रह्मन्), ४. पिंगल (अध्वर्यु), ५. व्यास (सदस्य), ६. उद्दालक, ७. प्रमदक. ८. श्वेतकेतु, ९. पिंगल, १०. असित, ११. देवल, १२. नारद, १३. पर्वत, १४. आत्रेय, १५. कुंड, १६. जठर, १७. घालघट, १८. वात्स्य, १९. श्रुतश्रवस्, २०. कोहल, २१. देवशर्मन्, २२. मौद्नल्य, २३. समसौरभ
[म.आ.५३.४-९] । व्यास के शिष्य वैशंपायन ने जनमेजय को भारत कथन किया
[म.आ.१.८-९] ;
[क.३] । इसे काश्या नामक पत्नी से दो पुत्र हुए; एक चंद्रापीड तथा दूसरा सूर्यापीड
[ब्रह्म.१३.१२४] । इसने सर्पसत्र किया, जिसमें तु कावषेय पुरोहित था
[भा. ९.२२.३५] । यह बडा दानी था । इसने कुंडल तथा दिव्य यान ब्राह्मणों को दान लिये
[म.अनु.१३७.९] । सर्पसत्र के बाद राजा जनमेजय ने पुरोहित, ऋत्विज आदि को एकत्रित कर के, अश्वमेध का प्रारंभ किया । वहॉं व्यास प्रगट हुआ । सुसमय इसने व्यास की यथाविधि पूजा की । कौरव-पांडवों के युद्ध के संबंध में अनेक प्रश्न पूछे । उससे कहा, ‘अगर आपको यह ज्ञात था कि, इस युद्ध का अंत क्या होगा, तो आपने उन्हें परावृत्त क्यों नहीं किया?’ व्यास ने कहा, हे राजन्! उन्होंने मुझसे पूछा न था । बिना पूछे मैं किसी को कुछ भी नहीं बताता । तुम्हारे इस अश्वमेध में इन्द्र बाधा डालेगा तथा इतःपर पृथ्वी पर कही भी अश्वमेध न होगा’। दूसरा जनमेजय पारिक्षित अत्यंत धार्मिक था । इसने अपने यज्ञ में वाजसनेय को ब्रह्म बनाया । तब वैशंपायन ने इसे शाप दिया । ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का उपाध्यायकर्म बंद कर दिया । यह पराक्रमी होने के कारण, अन्य क्षत्रियो ने इसका समर्थन किया । वाजसनयों का समर्थन करने के कारण, ब्राह्मणों ने इसे पदच्युत कर अरण्य में भेज दिया । ब्राह्मणों के साथ कलह करने से इसका नाश हुआ
[कौटिल्यु पृ.२२] । इसके बाद शतानीक राजा बना । इस समय तक, याज्ञवल्क्य द्वार उत्पन्न वेद को प्रतिस्पर्धी वैशंपायनादि ने मान्यता नहीं दी थी । वाजसनेयों को राज्याश्रय प्राप्त होने के बाद भी, वैशंपायनों ने काफी गडबड की । वादविवाद कर के, वाजसनेयों को हराने के काफी प्रयत्न किये । परंतु जनमेजय ने उनकी एक नहीं चलने दी । लोगों का तथा ब्राह्मणों का विरोध, इतना ही नहीं, राज्यत्याग भी स्वीकार किया । परंतु वाजसनेयों को इसने समाज में मान्यता प्राप्त कर ही दी । इसलिये इसे महावाजसनेय कहते है
[मत्स्य. ५०-५७-६४] ;
[वायु. ९९.२४५-२५४] ।
जनमेजय II. n. (सो. पूरु.) पूरु का पुत्र । इसे प्राचीन्वत् नामक पुत्र था । इसकी पत्नी मागधी सुनंदा ।
जनमेजय III. n. (सो. पुरु.) दुष्यन्तपुत्र
[म.आ.७८.१८] ।
जनमेजय IV. n. ((सो. अनु.) विष्णु, वायु तथा मत्स्य मत में पुरंजयपुत्र । भागवत मत में संजयपुत्र ।
जनमेजय V. n. (सो. अनु.) मत्स्य मत में बृहद्रथपुत्र तथा वायु मत में दृढरथपुत्र ।
जनमेजय VI. n. (सो. अज.) भल्लाट का पुत्र
[वायु.९९.१८२] ;
[मत्स्य, ४९.५९] । इसके लिये उग्रायुध कार्ति ने, नीपों का संहार किया । अंत में उग्रायुध ने जनमेजय का भी वध किया । अतएव इसे ‘कुलापांसन’ कहते है
[म.उ.७२.१२] । कुलपांसन का शब्दशः अर्थ, दुर्वर्तन से अपने कुल का नाश करनेवाले लोग, यों होता है । अठराह कुलघातक लोगों के नाम उपलब्ध है
[म.उ.७२.१२] ।