धौम्य n. देवल ऋषि का कनिष्ठ भ्राता, एवं पांडवों का पुरोहित । यह अपोद ऋषि का पुत्र था, एवं गंगानदी के तट पर, उत्कोचक तीर्थ में इसका आश्रम था
[म.आ.१७४.६] । इसके पिता ने अन्नग्रहण वर्ज्य कर, केवल पानी पी कर ही सारा जीवन व्यतीत किया । उस कारण, उसे ‘अपोद’ नाम प्राप्त हुआ । अपोद ऋषि का पुत्र होने के कारण, धौम्य को ‘आपोद’ यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ
[म.आ.३.१९] । इसे ‘अग्निवेश्य’ भी कहते ये
[म.आश्व.६३.९] । चित्ररथ गंधर्व की मध्यस्थता के कारण, धौम्य ऋषि पांडवों का पुरोहित बन गया । लाक्षागृहदाह से बच कर, अर्जुन अपने भाईयों के साथ द्रोपदी स्वयंवर के लिये जा रहा था । उस वक्त, मार्ग में उसे चित्ररथ गंधर्व मिला । उसने अर्जुन से कहा, ‘पुरोहित के सिवा राजा ने कहीं भी नहीं जाना चाहिये । देवल मुनि का छोटा भाई धौम्य उत्कोचक तीर्थ पर तपश्चर्या कर रहा है । उसे तुम अपना पुरोहित बना लो’। फिर अर्जुन ने धौम्य से प्रार्थना कर, उसे अपना पुरोहित बना लिया
[म.आ.१७४.६] । पांडवों का पौरोहित्य स्वीकारने के बाद, धौम्य ऋषि पांडवों के परिवार में रहने लगा
[म.स.२.७] । पांडवो के घर के सारे धर्मकृत्य भी, इसे के हाथों से होने लगे । पांडव एवं द्रौपदी का विवाह तय होने पर, उनका विवाहकार्य इसीने संपन्न किया । उस कार्य के लिये, इसने वेदी पर प्रज्वलित अग्नि की स्थापना कर के, उस में मंत्रो द्वारा आहुती दी, एवं युधिष्टिर तथा द्रौपदी का गठबंधन कर दिया । पश्चात उन दोनों का पाणिग्रहण करा कर, उनसे अग्नि की परिक्रमा करवायी , एवं अन्य शास्त्रोक्त विधियों का अनुष्ठान करवाया । इसी प्रकार क्रमशः सभी पांडवों का विवाह इसने द्रौपदी के साथ कराया
[म.आ.१९०.१०-१२] । पांडवो के सारे पुत्रों के उपनयनादि संस्कार धौम्य ने ही कराये थे
[म.आदि.२२०.८७] । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में धौम्य ‘होता’ बना था
[म.स.३०-३५] । युधिष्ठिर को ‘अर्धराज्याभिषेक’ भी धौम्य ने ही किया था
[म.स.४९.१०] । पांडवों के वनगमन के समय, महर्षि धौम्य हाथ में कुश ले कर, यमसाम एवं रुद्रसाम का गान करता हुआ, वनगमन के लिये उद्युक्त हुआ
[म.स.७१.७] । इसे उस अवस्था में देख कर, युधिष्ठिर को अत्यंत दुख हुआ । वह बोला, ‘आप वन में न आयें । मैं भला वहॉं आप को क्या दे सकता हूँ?’ फिर धौम्य ने युधिष्ठिर को सूर्यापासना के लिये प्रेरणा दी
[म.व.३.४-१२] , एवं उसे सूर्य के ‘अष्टत्तरशत’ नामों का वर्णन भीं कहा, ‘हे राजन्, तुम घबराओं नहीं । तुम सूर्य का अनुष्ठान करो । सूर्य प्रसन्न हो कर, तुम्हारी चिन्ता दूर करेगा’। धौम्य के कथानानुसार युधिष्ठिर ने सूर्य की स्तुति की । उससे प्रसन्न हो कर, सूर्यनारायण ने उसे ‘अक्षयपात्र’ प्रदान किया, एवं कहा, ‘यह पात्र तुम द्रौपदी के पास दे दो । उससे वनवास में तुम्हे अन्न की कमी कभी भी महसूस नहीं होगी’। फिर धर्म ने वह पात्र द्रौपदी के पास दे दिया
[म.व.४] ; द्रौपदी देखिये । पांडवों के वनवासगमन के बाद, अर्जुन अस्त्रप्राप्ति के हेतु इन्द्रलोक चला गया । अर्जुन के जाने से युधिष्ठिर अत्यंत चिंताग्रस्त हो गया । फिर धौम्य ने उसे भिन्नभिन्न, तीर्थो, देशों, पर्वतों, एवं प्रदेशों के वर्णन बताये, एवं कहा, ‘तुम तीर्थयात्रा करो’। उससे तुम्हारे अंतःकरण को शांति मिलेगी’
[म.व.८४-८८] । वनवास में जयद्रथ राजा ने द्रौपदी का अपहरण करने का प्रयत्न किया । उस वक्त धौम्य ने जयद्रथ को फटकारा, एवं द्रौपदी की रक्षा करने का प्रयत्न किया
[म.व.२५२ २५-२६] । पांडवों के वनवास के बारह वर्ष के काल में, धौम्य ऋषि अखंड उनके साथ ही था । पांडवों के अग्निहोत्र रक्षण की जिम्मावारी धौम्य ऋषि पर थी । वह इसने अच्छी तरह से निभायी
[म.व.५.१३९] । वनवास समाप्त हो कर अज्ञातवास प्रारंभ होने पर, युधिष्ठिर ने बडे ही दुख से धौम्य से कहा, ‘अज्ञातवास के काल में हम आपके साथ न रहे सकेंगे । इसलिये हमें बिदा कीजिये’। उस समय धौम्य ने युधिष्ठिर को अत्यंत मौल्यवान् उपदेश किया, एवं युधिष्ठिर की सांत्वना की । धौम्य ने कहा, ‘भाग्यचक्र की उलटी तेढी गती से देव भी बच न सके, फिर पांडव तो मानव ही है’। अज्ञातवास काल में विराट के राजदरबार में किस तरह रहना चाहिये, इसका भी बहुमूल्य उपदेश धौम्य ने युधिष्ठिर को किया
[म.वि.४.६-४३] । फिर पांडवों के अग्निहोत्र का अग्नि प्रज्वलित कर, धौम्य ने उनकी, समृद्धि, वृद्धि, राज्यलाभ तथा भूलोक-विजय के लिये, वेदमंत्र पढ कर हवन किया । जब पांडव अज्ञातवास के लिये, चले गये, तब उनका अग्निहोत्र का अग्नि साथ ले कर, धौम्य पांचाल देश चला गया
[म.वि.४.५४-५७] । भारतीय युद्ध में, भीष्मनिर्याण के समय, धौम्य ऋषि युधिष्ठिर के साथ उसे मिलने गया था । युद्ध समाप्त होने पर, श्रीकृष्ण ने पांडवों से बिदा ली । उस समय भी धौम्य उपस्थित था
[भा.१.९] । भारतीय युद्ध में मारे गये पांडवपक्ष के संबंधी जनों का दाहकर्म धौम्य ने ही किया था
[म.स्त्री.२६.२७] । युधिष्ठिर राजगद्दी पर बैठने के पश्चात्, उसने धौम्य की धार्मिक कार्यो के लिये नियुक्ति की
[म.शां.४१.१४] । धृतराष्ट्र, गांधारी एवं कुंती वन में जाने के बाद, एक बार युधिष्ठिर युयुत्सु के साथ उन्हे मिलने गया । उस वक्त हस्तिनापुर की व्यवस्था युधिष्ठिर ने धौम्य पर सौंपी थी
[म.आश्र.३०.१५] । धौम्य ने धर्म का रहस्य युधिष्ठिर को बताया था
[म.अनु.१९९] । धर्मरहस्य वर्णन करते समय, धौम्य कहता हैं, ‘टूटे हुएँ बर्तन, टूटी खाटें, मुगियॉं, कुत्ते आदि को घर में रखना, एवं घर में वृक्ष लगाना अप्रशस्त है । फूटे बर्तनों में कलि वस करता है, टूटी खाट में दुर्दशा रहती है, तथा वृक्षों के आसपास जंतु रहते हैं । इसलिये उन सब से बचना चाहिये’। धौम्य ने ‘धौम्यस्मृति’ नामक एक ग्रंथ की रचना भी की थी (C.C)|
धौम्य II. n. एक ऋषि । व्याघ्रपाद ऋषि के दो पुत्रों में से यह एक था । इसके ज्येष्ठ भाई का नाम उपमन्यु था
[म.अनु.४५.९६. कुं.] । हस्तिनापुर के मार्ग में श्रीकृष्ण से इसकी भेट हुई थी
[म.उ.३८८] । सत्यवान का पिता द्युमत्सेन अपने प्रिय पुत्र तथा स्नुषा को ढूँढते-ढूँढते इस ऋषि के आश्रम में आया था । फिर इसने उसे भविष्य बताया, ‘तुम्हारा पुत्र शीघ्र ही स्नुषा के साथ जीवित वापस अयोगा’
[म.व.२८२.१९] ।
धौम्य III. n. एक मधुयमाध्वर्यु।