नहुष n. एक राजा । यह संभवतः ‘पुथुश्रवस् कानीत’ का कोई रिश्तेदार रहा होगा
[ऋ.८.४६.२७] ; नाहुष देखिये ।
नहुष (मानव) n. एक मंत्रद्रष्टा
[ऋ.९.१०१.७-९] ।
नहुष II. n. (सो. पुरुरवस्.) प्रतिष्ठान (प्रयाग) देश का सुविख्यात सम्राट्, एवं वैवस्वत मनु की कन्या इला का प्रपौत्र । यह पुरुरवस् ऐल राजा का पौत्र, आयु राजा का पुत्र एवं ययाति राजा का पिता था
[लिंग.१.६६.५९-६०] ;
[कूर्म.१.२२.३-४] । इसे कुल चार भाई थे । उसके नामः---क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रंभ, रजि, अनेनस् (विषाप्मन्)
[वायु. ९२.१-२] ;
[ब्रह्म. ११. १-२] । यह आयु राजा को दानव राजा राहु या स्वर्भानु की कन्या प्रभा (स्वर्भानवी) नामक पत्नी से उत्पन्न हुआ था
[ह.वं.१.२८.१] ;
[म.आ.७०.२३] । किंतु पद्ममत में, यह आयु के पत्नी इंदुमती को दत्त आत्रेय की कृपा से पैदा हुआ था
[पद्म. भू. १०५] । वायुमत में, यह आयु को विरजा नामक पत्नी से उत्पन्न हुआ था
[वायु.९४] ;
[ब्रह्म.१२.३४] । सुस्वधा पितरों की कनय विरजा इसकी पत्नी थी । उससे इसे ययाति नामक पुत्र पैदा हुआ
[मत्स्य.१५.२३] । पद्मपुराण में, नहुष की जन्मकथा इस प्रकार दी गयी है । दत्तकृपा से आयु राजा की पत्नी इंदुमती गर्भवती रही । उस समय, हुंड राक्षस की कन्या अपनी सखियों के साथ नंदनवन में क्रीडा करने के लिये गयी । वहॉं सिद्ध चारणों के मुख से उसने सुना कि, अपने पिता हुखंड की मृत्यु आयुपुत्र नहुष के द्वारा होनेवाली है । तत्काल घर जा कर इसने यह वृत्त अपने पिता को बताया । इन्दुमती के गर्भ का नाश करने के उद्देश से, दैत्येंद्र हुंड एक अमंगल दासी के शरीर में प्रविष्ट हुआ, तथा नहुष क अजन्म होते ही रात्रि के समय, इसे अपने घर ले आया । बाद में अपनी विपुला नामक भार्या के पास, नहुष को स्वाधीन कर, हुंड ने कहा, यह मेरा शत्रु है । इसलिये इसक अमास पका कर, तुम मुजेह खिला दो विपुला ने इस बालक को अपने रसोइये को सौंपा । किंतु रसोइये को इस पर दिया आ कर उसने इसे वसिष्ठ ऋषि के घर में पहुँचा दिया तथा हुंड को हिरन का मॉंस पका कर खाने के लिये दिया । इस बालक को देखते ही, वसिष्ठ ने दिव्य दृष्टि से इसका सारा पूर्वतिहास जान लिया तथा इसे ‘नहुष’ नाम प्रदान किया । वसिष्ठ ने ही इसका उपनयन करवाया एवं इसे वेद तथा धनुर्विदा सिखाई । पश्चात् वसिष्ठ के कथनानुसार इसने हुंड राक्षस पर आक्रमण किया । उस समय सारे देवों ने इसकी सहायता की । इस युद्ध में नहुष का विजय हो कर, इसने हुंड का वध किय । बाद में वसिष्ठ की अनुज्ञा से, इसके विरह में रातदिन व्याकुल हुई अशोकसुंदरे नामक स्त्री से, इसने विवाह किया, तथा उसे ले कर यह अपनी राजधानी लौट आया
[पद्म भू.१०५-११७] । एक बार, च्यवन ऋषि मछुओं के जाल में फँस गया । उसे मछुओं के हॉंथ से छुडाने के लिये, नहुष ने च्यवन से उसके सही मूल्य के बारे में चर्चा की , एवं लाखों की संखय में गौअं को दे कर, च्यवन की मुक्तता की
[म.अनु.८६.६] । फिर च्यवन ने संतुष्ट हो कर नहुष को वर दे दिया । घर आये त्वष्ट्रु का नहूष ने सम्मान किया था, एवं उस कार्य के लिये ‘गवालंभन’ भे किया था
[म.शां.२६०.६] ।
नहुष II. n. अपने पराक्रम गुण एवं पुण्यकर्म के कारण, देवताओं को भी दुर्लभ ‘इंद्रपद’ प्राप्त होने का सौभाग्य नहुष को प्राप्त हुआ । इतने में देवों का राजा इंद्र ने त्रिशिर नामक ब्राहण का वध दिया । इस ‘ब्रह्महत्या’ के पातक के कारण, पागल सा हो कर, इंद्र इधर उधर घूमन लगा, एवं इंद्रपद की राजगद्दी खाली हो गयी । इस अवसर पर, सारे देव एवं ऋषियों ने अपनी तपश्चर्या का बल नहुष को दे कर, इसे ‘इंद्रपद’ प्रदान किया, एवं आशीर्वाद दिया, ‘तुम जिसकी ओर देखोंगे, उसके तेज का हरण करोंगे’
[म.आ.७०.२७] । ‘इंद्रपद’ पर आरुढ होने के बाद, कुछ काल तक, नहुष ने बहुत ही निष्ठा, नेकी, एवं धर्म से राज्य किया । स्वर्ग का राज्य प्राप्त होने के बाद भी, यह देवताओं को दीपदान, प्राणिपात, एवं पूजा आदि नित्यकर्म मनोभाव से करता रहा । किंतु बाद में , ‘मे देवेंद्र हूँ’ ऐसा तामसी अभिमान इसके मन में धीरे धीरे छान लगा । फिर सारी धार्मिक विधियॉं छोड कर, यह मतिभ्रष्ट एवं विषयलंपट बन गया । रोज भिन्न भिन्न उपवन में जा कर, यह स्त्रियोंके साथ क्रीडाएँ करने लगा । इस प्रकार कुछ दिन बीतने पर, इसने भूतपूर्व इंद्र की पत्नी इंद्राणी को देखा । उसका मोहक रुपयौवन देख कर यह कामोत्सुक हुआ, एवं इसने देवों को हुकूम दिया, ‘इंद्राणी को मेरे पास ले आओं’
[म.आ.७५] । फिर डर के मारे भागती हुई इंद्राणी बृहस्पती के पास गयी । बृहस्पती ने उसे आश्वासन दिया, ‘मैं नहुष से तुम्हारी रक्षा करुँगा’। बाद में सारे देवों के सलाह के अनुसार, इंद्राणी नहुष के पास आयी, एवं उसने कहा, ‘आपकी मॉंग पूरी करने के लिये, मुझे कुछ वक्त आप दे दे । उस अवधि में, मैं अपने खोंये हुए पति को ढूँढना चाहती हूँ’। नहुष ने इंद्राणी की यह शर्त मान्य की । फिर देवों की कृपा से, इंद्राणी ने इंद्र को ढूँढ निकाला, एवं सारा वृत्तांत उसे बता दिया । फिर इंद्र ने उसे कहा, “तुम नहुष के पास जा कर उसे कहो, ‘अगर सप्तर्षिओं ने जोती हुए पालकी में बैठ कर, तुम मुझे मिलने आओंगे तो मैं तुम्हारा वरुण करुंगी"। इंद्राणी नहुष के पास आयी, एवं उसने अपनी शर्त उसे बतायी । नहुष ने यह शर्त बडे ही आनंद से मान्य की । इसने सप्तर्षिओं को अपने पालकी को जोंग लिया, तथा स्वयं पालकी में बैठ कर, यह इंद्राणी से मिलने अपने घर से निकला । मार्ग में पालकी और तेजी से भगाने के लिये, कामातुर नहुष ने सप्तर्षिओं में से अगस्त्य ऋषि को लत्ताप्रहार किया, एवं बडे क्रोध से कहा, ‘सर्प सर्प’ (जल्दी चलो’) । इस पर अगस्त्य ऋषि ने इसे क्रोध से शाप दिया, ‘हे मदोन्मत्त! सप्तर्षिओं को पालकी को जोंतवाला तू स्वयंही पृथ्वी पर दस हजार वर्षो तक सर्प बन कर पडे रहेगी’। अगस्त्य के इस शाप के अनुसार, नहुष तत्काल सर्प बन गया, एवं पालकी के बाहर गिरने लगा । फिर अगस्त्य को इसकी दया आयीं, एवं उसने इसे उःशाप दिया, ‘पांडुपुत्र युधिष्ठिर तुम्हें इस हीन सर्पयोनि से मुक्त कर देगा
[म.उ.११.१७] ;
[म.अनु.१५६-१५७] ;
[भा.६.१.१८.२-३] ;
[दे. भा.६.७-८] ;
[विष्णु.१.२४] । अगस्त्य स्वयं सप्तर्षियोसं में से एक नहीं था । किंतु उसके जटासंभार में छिपा हुआ भृगु ऋषि सप्तर्षियों में से एक था । संभवतः इसी भृगु के कारण अगस्त्य को नहुष ने अपने पालकी का वाहन बनाया होगा । महाभारत के मत में, भृगु ऋषि के कारण ही नहुष का स्वर्ग से पतन हुआ था । नहुष को सारे देवों ने तथा ऋषियों ने वर दिया था, ‘तुम जिसकी ओर देखोंगे, उसका तेज हरण कर लोंगे’ । उस वर के कारण अन्य सप्तर्षियों के साथ, अगस्त्य ऋषि का तेज नहुष ने हरण किया, एवं उसे अपने पालकी का अवाहन बनाया । किंतु अगस्त्य की जटा में गुप्तरुप से बैठे गुरु को नहुष कुछ न कर सका, एवं उसका तेज कायम रहा । नहुष ने लत्ताप्रहार करते ही बाकी ऋषि चुपचाप बैठ गये । किंतु भृगु ने उसे शाप दिया
[म.अनु.१५७] ।
नहुष II. n. बाद में सरस्वती नदी के तट पर द्वैतवन में पांडव अपने वनवास का काल व्यतीत करने आये । एक दिन भीमसेन हाथ में धनुष्य ले कर वन में मृगया के लिये निकला । यमुनागिरि पर घूमते घूमते, उसने एक गुफा के मुख में चित्रविचित्र रंग का एक अजगर देखा । भीम को देखते ही उस अजगर ने उसके ऊपर झडप डाली, तथा उसकी दोनों बाहें जोर से पकड ली । दशसहस्त्र नागों का बल अपने भुजाओं में धारण करनेवाले भीम की शक्ति उस अजगर के सामने व्यर्थ हो गई ।तब भीम ने पृछा, ‘हे सर्पराज, तुम कौन हो. मेरा तेज हरण करने की शक्ति तुझमें कैसी पैदा हो गई.’ फिर अजगर ने कहा, ‘मैं नहुष नामक एक राजर्षि हूँ । अनेक विद्या, यज्ञ, कुलीनता, तथा पराक्रम के कारण, मैने त्रैलोक्य का आधिपत्य प्राप्त किया था । किंतु पश्चात् मदोन्मत्त हो कर, मैंने सप्तर्षियों को अपने पालकी का वाहन बनाया । इसलिये अगस्त्य ऋषि ने शाप दे कर, मुझे इस हीन सर्पयोनि में जाने के लिये कहा । उःशाप मॉंगने पर उसने मुझे, ‘तुम जिस प्राणी पर झपटोगे, उसकी शक्ति हरण कर लोगे । आत्मनात्माविवेक के ज्ञान से परिपूर्ण पुरुष से मुलाकत होने पर, तुम शाप मुक्त हो जाओंगे’। तबसे ऐसे ही पुरुष का मैं इन्तजार कर रहा हूँ ’। इतने में युधिष्ठिर भीम को ढूँढते ढूँढते वहॉं पहुचा । अजगर के द्वारा भीम को पकडा हुआ देख कर, उसने सर्प से पूछा, ‘तुम कौन हो? भीम को तुमने क्यों पकड लिया है?’ तब अजगरस्वरुपी नहुष ने कहा, मैं तुम्हारा पूर्वज, एवं आयु नामक राजा का पुत्र हूँ । तुम्हारे द्वारा मेरे प्रश्रों के उत्तर दिये जाने पर मैं भीम को छोड दूँगा’। बाद में नहुष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया, ‘ब्राह्मण किस को कहते है?’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ‘सत्य, दान, क्षमा, सच्छीलत्व, एवं इंद्रियदमन जिसके पास हो, वह मानव ब्राह्मण कहलाता है’। फिर सर्प ने पूछा, ‘पृथी में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान कौनसा है’। युधिष्ठिर ने जवाब दिया, ‘ब्रह्म का ज्ञान सर्वश्रेष्ठ कहलाता है’। इन उत्तरों से प्रसन्न हो कर, इसने भीम छोड दिया, एवं इसका भी उद्धार हो कर, यह स्वर्ग में चला गया
[म.व.१७५-१७८] ।
नहुष II. n. नहुष के पुत्रों की संख्या एवं नामों के बारे में, पुराणों में एकवाक्यता नहीं है । अधिकांश पुराणों एवं महाभारत के मत में, नहुष को कुल छः पुत्र थे
[म.आ.७०.२८] ;
[ह.वं.१.३०.२] ;
[ब्रह्म.१२] ;
[विष्णु.४. १०] ;
[भा.९.१८.१] ;
[लिंग.१.६६] । कूर्म एवं पद्म के मत में,इसे कुल पॉंच पुत्र थे
[कूर्म. १.२२] ;
[पद्म. सृ. १२] । मत्स्य एवं अग्नि में, नहुष के सात पुत्रों के नाम दिये गये है
[मत्स्य. २४.५०] ;
[अग्नि.२७४] । पुराणों में दिये गये नहुष के पुत्रों के नाम इन प्रकार है--- (१) यति---यह नहुष का ज्येष्ठ पुत्र था । (२) ययाति---यह नहुष के पश्चात् प्रतिष्ठान देश के राजगद्दी पर बैठ गया। इसी के नाम से ‘पुरुरवस् वंश’ को ‘ययाति वंश’ यह नया नाम प्राप्त हुआ । (३) संयाति---यह उत्तर आयु में ‘पारिव्राजक’ बन गया । इसके नाम के लिये, ‘शर्याति’ नामांतर भी प्राप्त है
[पद्म.सृ.१२] ;
[अग्नि.२७४] । (४) आयाति या अयति---इसके नाम के लिये, ‘उदभव’ नामांतर प्राप्त है
[मत्स्य.२४.५०] ;
[पद्म. सृ. १२] ;
[अग्नि. २७४] । (५) अश्वक
[कूर्म.१.२२] ---इसके नाम के लिये, पार्श्वक
[ब्रह्म.१२] , अंधक
[लिंग.१.६६] । वियति
[विष्णु ४.१०] ;
[भा.९.१८.१] ;
[पद्म. सृ.१२] । नामांतर प्राप्त है । (६) वियाति
[मत्स्य.२४] ---इसके नाम के लिये विजाति
[लिंग.१.६६] , सुयाति
[ह.वं.१.३०.२] ;
[ब्रह्म.१२] । कृति
[विष्णु.४.१०] ;
[भा.९,१८.१] , ध्रुव
[म.आ.७०.२८] नामांतर प्राप्त है । (७) मेवजाति
[मत्स्य. २४.५०] ---इसके नाम के लिये, मेघपालक नामांतर प्राप्त है
[अग्नि.२७४] ।
नहुष III. n. कश्यप एवं कद्रू से उत्पन्न एक प्रमुख नाग ।
नहुष IV. n. वैवस्वत मनु का पुत्र ।