भृगु n. एक वैदिक पुरोहित गण । ऋग्वेद में इसका निर्देश अग्निपूजकों के रुप में कई बार किया गया है ।
[ऋ.१.५८.६,१२७.७] । इन्हे सर्व प्रथम अग्नि की प्राप्त हुयी, जिसकी कथा ऋग्वेद में अनेक बार दी गयी है
[ऋ.२.४.२, १०.४६.२] ;
[तै. सं.४.६.५.२] । मातरिश्वन् के द्वारा इनकी अग्नि लाने की कथा ऋग्वेद में प्राप्त है
[ऋ.३.५.१०] । दाशराज युद्ध के समय भृगुगण के पुरोहित लोगों का निर्देश द्रुह्युओं के साथ अनेक बार आता है
[ऋ.८.३.९, ६.१८, १०२.४] । द्रुह्यु तथा तुर्वश के साथ साथ भृगुओं का भी राजा सुदास के शत्रुओं के रुप में उल्लेख प्राप्त है
[ऋ.७.१८] । यह एक प्राचीन जाति के लोग थे, क्यों कि, स्रोतागण अंगिरसों तथा अथर्वनों के साथ साथ इनकी अपने सोमप्रेमी पितरों के रुप में चर्चा करते हैं । समस्त तैंतीस देवों, मरुतों, जलों, अश्विनों, उषस्, तथा सूर्य के साथ भृगुओं का भी सोमपान करने के लिए आवाहन किया गया है
[ऋ.१०.१४,८.३] । इनकी सूर्य से तुलना की गई है, तथा यह कहा है कि, इनकी सभी कामनाएँ तृप्त हो गयीं थीं
[ऋ.८.३] । अग्नि को समर्पित सूक्तों में बार बार भृगुओं को प्रमुखतः मनुष्यों के पास अग्नि पहुँचाने के कार्य से संबंध दर्शित किया गया है । अग्नि को भृगुओं का उपहार कहा गया है
[ऋ.३.२] । मंथन करते हुये इन लोगों ने स्तुति के द्वारा अग्नि का आवाहन किया था
[ऋ.१.१२७] । अपने प्रशस्तिगीतों से इन लोगों ने अग्नि को लकडी में प्रकाशित किया था
[ऋ.१०.१२२] । ये लोग अग्नि को पृथ्वी की नाभि तक लाये
[ऋ.१.१४३] । जहॉं अथर्वन् ने संस्कारों तथा यज्ञों की स्थापना की, वहीं भृगुओं ने अपनी योग्यता से अपने को देवों के रुप में प्रकट किया
[ऋ.१०.९२] । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि, इनकी योग्यता प्रमुखतः अग्नि उत्पन्न करने बाले व्यक्तियों के रुप में व्यक्त की गयी है । अग्नि के अवतरण तथा मनुष्यों तक उसके पहुँचाने की पुराकथा प्रमुखतः मातरिश्वन् तथा भृगुओं से संबंधित हैं । किंतु जहॉं मातरिश्वन् उसे विद्युत के रुप में आकाश से लाते हैं, वहीं भृगु उसे लाते नहीं, बल्कि केवल यही माना गया है कि यह लोग पृथ्वी यज्ञ की प्रतिष्ठा तथा संपादन के लिए उसे प्रदीप्त करते हैं । व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी ‘भृगु’ शब्द का अर्थ ‘प्रकाशमान’ है, जिस कि भ्राज (प्रकाशित होना) धातु से निष्पन्न होता है । वर्गेन के विचार इस बात पर कदाचित ही सन्देह किया जा सकते है कि, मूलतः ‘भृगु’ अग्नि का ही मूल नाम था; जब कि कुन तथा बार्थ इस मत पर सहमत है कि, अग्नि के जिस रुप का यह प्रतिनिधित्व करता है, वह विद्युत है । कुन तथा वेबर ने अग्नि पुरोहितों के रुप में भृगुओं को यूनानी देवों के साथ समीकृत किया है । बाद के साहित्य में भृग-गण एक वास्तविक परिवार है तथा कौषीतकि ब्राह्मण के अनुसार, ऐतशायन भी इनके एक अंग है । पुरोहितों के रुप में भृगओं का ‘अग्निस्थापन’ तथा ‘दशपेयक्रतु’ जिससे अनेक संस्कारों के सम्बन्ध में उल्लेख है । अनेक स्थलों पर ये लोग अंगिरसों के साथ भी संयुक्त है
[तै.सं.१.१.७.२] ;
[मै. सं.१.१.८] ;
[तै.ब्रा.१.१.४.८,३.२.७.६] ;
[श.ब्रा.१.२.१.१३] । इन दो परिवारों का घनिष्ठ सम्बन्ध इस तथ्य से प्रकट होता है कि, शतपथ ब्राह्मण में ‘च्यवन’ को ‘भार्गव’ या ‘आंगिरस’ दोनो ही कहा गया है
[श.ब्रा.४.१.५.१] । अथर्ववेद में, ब्राह्मणों को त्रस्त करनेवाले लोगों पर पडनेवाली विपत्तियों का दृष्टान्त देने के लिए ‘भृगु’ नाम का उपयोग किया गया है । ऋग्वेद में एक स्थान पर, भृगुगण का निर्देश एक योद्धाओं के समोह के रुप भी किया हुआ प्रतीत होता है
[ऋ.७.१८.६] ।
भृगु (प्रजापति) n. पुराणों में निर्दिष्ट प्रजापतियों में से एक, जो स्वायंभुव तथा चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियो मे से एक था । स्वायंभुव मन्वन्तर में इसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के हृदय से हुयी । यह स्वायंभुव मनु का दामाद एवं शंकर का साढू था ।
भृगु (प्रजापति) n. शंकर का अपमान कर के जिस समय दक्ष ने यज्ञ किया था, उस समय यह उपस्थित था, एवं दक्ष के द्वारा की गई शंकर की निन्दा में इसने भी भोगा लिया था । शंकर को जब यह ज्ञात हुआ तब उसने सबसे पहले नंदी को यज्ञविध्वंस करने के लिए भेजा, किंतु भृगु ने उसे शाप दे कर भगा दिया । तब शिव ने अपने पार्षद वीरभद्र को भेजा । वीरभद्र ने दक्षयज्ञ का विध्वंस किया, तथा यज्ञ में भाग लेनेवाले सभी ऋषियों को विद्रूप बना डाला । उसने क्रोध में आकर इसकी दाढी भे जला डाली । यह विध्वंसकारी लीला से भयातुर हो कर, सभी ऋषियों एवं देवों ने शंकर की स्तुति की, जिससे प्रसन्न हो कर शंकर ने इसे बकरे के दाढी प्रदान की
[भा.४.५.१७-१९] । ब्रह्मांड के अनुसार, दक्ष द्वारा अपमानित होने के कारण शिव ने इसे जला डाला था
[ब्रह्मांड.२.११.१-१०] ।
भृगु (प्रजापति) n. देवों तथा असुरों के बीच होनेवाले युद्ध में दैत्यों को पराजय का मुख देखना पडा । यह देख कर, असुरों के गुरु शुक्र ‘संजीवनी’ मंत्र लाने के लिए गया । दूसरी ओर भृगु, जो असुरों का बडा पक्षपाती था, वह भी तपस्या के लिए चला गया । तब इसकी पत्नी देवों से संग्राम करती रही । विष्णु ने उसे युद्धभूमि में डट कर देवों को मारते हुए देखा । पहले तो वह शान्त रहे, फिर बिना विचार किये हुए कि वह स्त्री है, उन्होंने अपने सुदर्शन चक्रद्वारा उसका वध किया । भृगु को जैसे ही यह पता चला, इसने संजीवनीमंत्र से अपनी पत्नी को जिंदा किया, तथा विष्णु को शाप दिया, ‘तुम्हे गर्भ में रह कर उसकी पीडा को सहन कर, पृथ्वी पर अवतार लेना पडेगा’
[दे.भा.४.११-१२] । स्त्रीवध उचित है अथवा अनुचित इसके बारे में यह निर्देश रामायण में प्राप्त है । ‘ताडकावध’ के समय विश्वामित्र ने राम को समझाते हुए कहा था कि, विशेष प्रसंग में ‘स्त्रीवध’ अनुचित नहीं, उचित है
[वा.रा.बा.२५.२१] । विष्णु को भृगु से शाप मिलने की एक दूसरी कथा पद्मपुराण में प्राप्त है । विष्णु ने पहले भृगु को यह वचन दिया था कि, वह इसके यज्ञ की रक्षा करेगा । किन्तु यज्ञ के समय वह इन्द्र के निमंत्रण पर उसके यहॉं चला गया । यज्ञ के समय विष्णु को न देख कर दैत्यों ने इसके यज्ञ का नाश किया । इससे क्रोधित हो कर भृगु ने विष्णु को मृत्युलोक में दस बार जन्म लेने का शाप दिया
[पद्म.भू.१२१] ।
भृगु (प्रजापति) n. एक बार स्वायंभुव मनु ने एक यज्ञ किया, जिसमें यह विवाद खडा हुआ कि, ब्रह्म विष्णु तथा महेश में कौन श्रेष्ठा है? भृगु उस में था, अतएव इस बात का पता लगाने का काम इसे सौंपा गया । भृगु सर्वप्रथम कैलाश पर्यत पर शंकरजी के यहॉं गया । वहॉं पर नंदी ने इसे अन्दर जाने के लिए रोका, कारण कि वहॉं शंकर-पार्वती क्रीडा में निमग्न थे । इसप्रकार के अपमान एवं उपेक्षा को यह सहन न कर सका, और क्रोधावेश में शंकर को शाप दिया, ‘तुम्हारे शरीर का आकार लिंग रुप में माना जायेगा, तथा तुम्हारे उपर चढाये हुये जल को ले कर कोई भी व्यक्ति तीर्थ रुप में पान न करेगा’। इसके उपरांत यह ब्रह्मा के पास गया, वहॉं ब्रह्मा ने न इसका नमस्कार ही किया, और न इसका उचुत सम्मान कर उत्थापन ही दिया । इससे क्रोधित होकर इसने शाप दिया, ‘तुम्हारा पूजन कोई न करेगा’। अंत में यह विष्णु पास गया । विष्णु उस समय सो रहे थे । यह दो देवताओं से रुष्ट ही था । क्रोध में आकर भृगु ने विष्णुके सीने पर कस कर एक लात मारी । विष्णु की नींद टूटी तथा उन्होंने इसे नमस्कार कर पूछा, ‘आप के पैरों को तो छोट नहीं लगी" । विष्णु की यह शालीनता देखकर भृगु प्रसन्न हुआ, तथा इसने विष्णु को सर्वश्रेष्ठ देवता की पदवी प्रदान की
[पद्म. उ.२५५] । भृगु के द्वारा किये गये लात के प्रहार को श्रीविष्णु ने ‘श्रीवित्स’ चिह्र मानकर धारण किया
[भा१०.८९.१-१२] ।
भृगु (प्रजापति) n. ब्रह्मांड के अनुसार, इसकी पत्नी दक्षकन्या ख्याति थी, जिससे इसे लक्ष्मी, धातृ तथा विधातृ नामक सन्ताने हुयीं । लक्ष्मी ने नारायण का वरण किया, तथा उससे बल तथा उन्माद नामक पुत्र हुए । कालान्तर में बल को तेज, तथा उन्माद को संशय नामक पुत्र हुए । भृगु ने मन से कई पुत्र उत्पन्न किये, जो आकाशगामी होकर देवों के विमानों के चालक बने । ख्यातिपुत्र धातृ की पत्नी का नाम नियति, तथा विधातृ की पत्नी का नाम आयति था । नियति को मृकंड, एवं आयति को प्राण नामक हुए । मृकंड को मनरिवनी से मार्कंडेय हुआ । मार्कंडेय को धूम्रा से वेदशिरस हुआ । वेदशिरस् को पीवरी से मार्कडेय नाम से प्रसिद्ध ऋषि हुए । प्राण को पुंडरिका से द्युतिमान नामक पुत्र हुआ, जिसे उन्नत तथा स्वनवत् नामक पुत्र हुए । ये सभी लोग भार्गव के नाम से प्रसिद्ध हुए
[ब्रह्मांड२.११.१-१०,१३.६२] । भागवत, विष्णुपुराण तथा महाभारत में भी इसके परिवार के बारे में सूचना प्राप्त होती है
[भा.४.१.४५] ;
[विष्णु.१.१०.१-५] ;
[म.आ.६०.४८] ; कवि तथा उशनस् देखिये ।
भृगु (वारुणि) n. ब्रह्मा के आठ मानस पुत्रों में से एक, जिससे आगे चल कर ब्राह्मण कुलों का निर्माण हुआ । ब्रह्मा के आठ मानस पुत्र इस प्रकार हैः
भृगु (वारुणि) n. महाभारत एवं पुराणों के अनुसार, ब्रह्मा के द्वारा किये गये यज्ञ से भृगु सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ, एवं शिव ने वरुण का रुप धारण कर इसे पुत्र रुप में धारण किया । इसलिए इसे ‘वारुणि’ उपाधि प्राप्त हुये
[म.,आ.५.२१६] ;
[अनु.१३२.३६] ;
[ब्रह्मांड.३.२.३८] । कई पुराणॊं के अनुसार, ब्रह्ममानस पुत्रों में से कवि नामक एक और पुत्र का निर्देश प्राप्त है, उसे भी वरुणरुपधारी शिव ने पुत्र रुप में स्वीकार किया, जिसके कारण कवि को भी भृगु का भाई कहा जाता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में भी इसे ‘वारुणि भृगु’ कहा गया है । किन्तु वहॉं इस प्रजापति का पुत्र कहा गया है । एवं इसकी जन्मकथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । इन ग्रन्थों के अनुसार, प्रजापति ने एक बार अपना वीर्य स्खलित किया, जिसके तीन भाग हो गये, एवं इन भागों से आदित्य, भृगु एवं अंगिरस् की उत्पत्ति हुयी
[ऐ.ब्रा.३.३४] । पंचविंश ब्राह्मण में इसे वरुण के वीर्यस्खलन से उत्पन्न हुआ कहा गया है
[पं.ब्रा.१८.९.१] । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, यह वरुण द्वारा उत्पन्न किया गया, एवं उसी के द्वारा इसे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुये, जिस कारण इसे ‘भृगु वारुणि’ नाम प्राप्त हुआ
[श.ब्रा.११.६.१.१] ;
[तै.आ.९.१] ;
[तै.उ.१.३.१.१] । गोपथ ब्राह्मण के अनुसार, सृष्टि की उत्पत्ति के लिए जिस समय ब्रह्म-तपस्या में लीन था, उस समय उसके शरीर से स्वेदकर्ण पृथ्वी पर गिरे । उन स्वेदकणों में अपनी परछाई देखने के कारण ही, ब्रह्मा का वीर्य स्खलन हुआ । उस वीर्य के दो भाग हुए---उनमें से जो भाग शान्त, पेय एवं स्वादिष्ट था, उससे भृगु की उत्पत्ति हुयी; एवं जो भाग खारा, अपेय एवं अस्वादिष्ट था, उससे अंगिरस् ऋषि की उत्पत्ति हुयी । जन्म लेते ही इसने अपने मुँह से जो नाद निसृत किया, उसी कारण इसका नाम ‘अथर्वन्’ हुआ । आगे चल कर अथर्वन् एवं अंगिरस् से दस दस, मिल कर बीस ऋषि उत्पन्न हुए, जिन्हे ‘अथर्वन् आंगिरस’ नाम प्राप्त हुआ ।
भृगु (वारुणि) n. अथर्वन् ऋषि के द्वारा ब्रह्मा को जो वेदमंत्र दृष्टिगत हुए, उन्हीं के द्वारा ‘अथर्ववेद’ की रचना हुयी, एवं अंगिरस ऋषि के द्वारा दृष्टिगत हुए मंत्रो से ‘आंगिरसवेद’ का निर्माण हुआ । ब्रह्मा के द्वारा पुष्कर क्षेत्र में किये गये यज्ञ में यह ‘होता’ था, एवं देवों के द्वारा तुंगक आरण्य में किये गये यज्ञ में यह आचार्य था । इन्हीं दोनों यज्ञों के समय, इसने ‘भीष्मपंचकव्रत’ क्रिया था
[पद्म. सृ.३४] ;
[स्व.३९] ; उ.१२४ । इसे संजीवनी विद्या अवगत थी, जिसके बल से इसने जमदग्नि को पुनः जीवित किया था
[ब्रह्मांड.१.३०] ।
भृगु (वारुणि) n. नहुष के अविवेकी व्यवहारों से देवतागण एवं सारी प्रजा त्रस्त थी । उसे देख कर अगस्त्य ऋषि भृगु ऋषि से मंत्रणा लेने के लिए आया । इसने उसे राय दी कि, तुम सभी सप्तऋषि नहुष के रथ के वाहन बनो । इस प्रकार सभी सप्तऋषियों ने नहुष के रथ को खींचा । रथ धीमा चल रहा था, अतएव नहुष ने क्रोध में आकर तेज चलन के लिए ‘सर्प-सर्प’ कहा, तथा लात अगस्त्य को मारी । इस समय अगस्त्य की जटाओं में भृगु विराजमान था, अतएव लात इसे लगी, तथा इसने नहुष को सर्प (नाग) बन जाने के लिए शाप दिया, तथा उसे इन्द्रपद से च्युत किया
[म.अनु.९९] ; नहुष देखिये । एक बार हिमालय तथा विंध्य पर्वतों में अकाल पडा । उस समय यह हिमालय पर गया । वहॉं पर इसने एक विद्याधर दम्पति को देखा, जिसमें पति का मुख किसी शाप के कारण व्याघ्र का था । उस दम्पति के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, इसने उस पुरुष को पौष शुद्ध एकादशी का व्रत करने के लिए कहा, जिसके द्वारा वह शाप से मुक्त हो सका
[पद्म.उ.१२५] ।
भृगु (वारुणि) n. महाभारत एवं पुराणोंमें, इसके अन्य राजाओं एवं ऋषियों के बीच तत्त्वज्ञान सम्बधी जो वार्ताएँ हुई, उनका स्थान स्थान पर निर्देश मिलता है । इसका एवं भरद्वाज में संवाद हुआ था
[म.शां.१७५.४८३] । इसने वीतहव्य को शरण देकर उसे ब्राह्मणत्व प्रदान कर उपदेश दिया था
[म.अनु.३०.५७-५८] । इसी प्रकार निम्नलिखित विषयों पर इसके द्वारा व्यक्त किए गये विचारों में इसका दार्शनिक पक्ष देखने योग्य हैः--- शरीर के भीतर जठरानल तथा प्राण, अपान आदि वायुओं की स्थिति
[म.शां.१७८] , सत्य की महिमा, असत्य के दोष तथा लोग परलोक के दुःखसुख का विवेचन
[म.शां.१८३] , परलोक तथा वानप्रस्थ एवं संन्यास धर्मो का वर्णन आदि
[म.शां.१८५] । इस्ने सोमकान्त राजा को गणेश पुराण भी बताया था
[गणेश.१.९] ।
भृगु (वारुणि) n. भृगुतुंग नामक पर्वत पर भृगु ऋषि का आश्रम था, जहॉं इसने तपस्या पर भृगु ऋषि का आश्रम था, जहॉं इसने तपस्या की थी । इसी के ही कारण, इस पर्वत को ‘भृगुतुंग’ नाम प्राप्त हुआ था ।
भृगु (वारुणि) n. तैत्तिरीय उपनिषद में एक तत्वज्ञ के नाते भृगु वारुणि का निर्देश प्राप्त है । इसके द्वारा पंचकोशात्मक ब्रह्म का कथन प्राप्त है, जिसके अनुसार अन्न, प्राण, मन, विज्ञान एवं आनंद इस क्रम से ब्रह्म का वर्णन किया गया है
[तै.उ.३.१.१-६] । किन्तु ब्रह्म की प्राप्ति केवल विचार से ही हो सकती है, ऐसा इसका अन्तिम सिद्धान्त था ।
भृगु (वारुणि) n. भृगु को दिव्या तथा पुलोमा नामक दो पत्नियॉं थी । उन में से दिव्या हिरण्याकशिपु नामक असुर की कन्या थी
[ब्रह्मांड.३.१.७४] ;
[वायु.६५.७३] । महाभारत में पुलोमा को भी हिरण्यशिपु की कन्या कहा गया है । पुलोमा से इसे कुल उन्नीस पुत्र हुए, जिनमें से बारह देवयोनि के एवं बाकी सात ऋषि थे । इससे उत्पन्न बारह देव निम्नलिखित येः---भुवन, भावन, अंत्य, अंत्यायन, क्रतु, शुचि, स्वमूर्धन, व्याज, वसुद, प्रभव, अव्यय एवं अधिपति । पुलोमा से उत्पन्न सात ऋषि निम्नलिखित थेः---च्यवन, उशनस्, शुक्र, वज्रशीर्ष, शुचि, और्व,व रेण्य एवं सवन । ब्रह्मांड में उपर्युक्त सारे देव एवं ऋषि दिव्या के पुत्र कहे गये है, एवं केवल च्यवन को पुलोमा का पुत्र बयाया गया है
[ब्रह्मांड.३.१.८९-९०,९२] । इसके पुत्रों में उशनस् शुक्र एवं च्यवन ये दो पुत्र अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थे, क्यों कि, उन्हीसे आगे चल कर भृगु (भार्गव्य) वंश का विस्तार हुआ । इनमें से शुक्र का वंश दैत्यपक्ष में शामिल हो कर विनष्ट हो गया । इस तरह च्यवन ऋषि के परिवार से ही आगे चल कर सुविख्यात भार्गव वंश निर्माण हुआ । भृगुवंश के इन दो प्रमुख वंशकार ऋषियों का वंशविस्तार निम्नलिखित हैः----
(१) शुक्रका परिवार---शुक्र को अपनी गो नामक पत्नी से वरुत्रिन्, त्वष्टु, शंड एवं मर्क ऐसे चार पुत्र हुए । उनमें से वरुत्रिन् को रजत्, पृथुरश्मि एवं बृहदंगिरस्, नामक तीन ब्रह्मिष्ठ एवं असुरयाजक पुत्र उत्पन्न हुए
[वायु.६५.७८] । वरुत्रिन के ये तीनो पुत्र दैत्यों के धर्मगुरु थे, एवं वे देवासुर संग्राम में अन्य दैत्यों के साथ नष्ट हो गये । त्वष्टु को त्रिशिरस् विश्वरुप एवं विश्वकर्मन् नामक दो पुत्र थे । शुक्र के अन्य दो पुत्र षंड एवं मर्क शुरु में दैत्यों के धर्मगुरु थे । किन्तु पश्चात् वे देवों के पक्ष में शामिल हो गये, जिस कारण शुक्र ने उन्हे विनष्ट होने का शाप दिया । इनमें मर्क से मार्कडेय नामक वंश की उत्पत्ति हुयी । भौगोलिक दृष्टि से शुक्र एवं उसका परिवार उत्तरी भारत के मध्यप्रदेश से संबंधित प्रतीत होता है (शुक्र देखिये) ।
(२) च्यवन का परिवार---च्यवन ऋषि को शर्याति राजा की कन्या सुकन्या से आप्नवान्, एवं दधीच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए । उनमें से आप्नवान् के वंश में ऋचीक, जमदग्नि एवं परशुराम जामदग्न्य इस क्रम से एक से एक अधिक पराक्रमी एवं विद्यासंपन्न पुत्र उत्पन्न हुए । आप्नवान् के इन पराक्रमी वंशजों ने हैहयवंशीय राजाओं के साथ किया शत्रुत्व सुविख्यात है (परशुराम जामदग्न्य देखिये) । भार्गव्य वंश के इस शाखा का विस्तार पश्चिम हिंदुस्थान में आनर्त प्रदेश में हुआ था । दधीच ऋषि को सरस्वती नामक पत्नी से सारस्वत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । किन्तु भार्गव वंश के इस शाखा के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है ।
भृगु (वारुणि) n. ब्रह्मांड के अनुसार, भार्गव वंश में उपयुक्त भृगुवंशीयों के अतिरिक्त निम्नलिखित सात गण प्रमुख थेः---१. वत्स, २.विद, ३.आष्टिषेण, ४.यस्क, ५.वैन्य, ६. शौनक, ७. मित्रेयु
[ब्रह्मांड.३.१.७४-१००] ।
भृगु (वारुणि) n. च्यवन ऋषि के परिवार ने ब्राह्मण हो कर भी क्षत्रियकर्म स्वीकार लिया, जिस कारण, भार्गव वंशियों को ‘क्षत्रियब्राह्मण’ उपाधि प्राप्त हुई । भृगु के इस क्षत्रियब्राह्मण वंश में, निम्नलिखित ऋषि भी समाविष्ट थेः---मत्स्य, मौद्नलायन, सांकृत्य, गार्ग्यायन, गार्भिय, कपि, मैत्रेय, वध्रयश्व एवं दिवोदास
[मत्स्य.१९५.२२-२३] । ब्रह्मांड में भार्गव वंश के उन्नीस सूक्तकरों का निदेश प्राप्त है
[ब्रह्मांड.२.३२.१०४-१०६] । वहॉं इन भार्गव वंश के बहुत सारे क्षत्रिय ब्राह्मण ऋषियों का अंतर्भाव किया है ।
भृगु (वारुणि) n. भृगु वारुणि, उसका भाई कपि एवं अंगिरस आग्नेय, ये तीनो प्राचीन ब्राह्मण कुलों के आद्य निर्माता ऋषि माने जाते है । प्रारंभ में ये तीनों ब्राह्मण वंश स्वतंत्र थे । किन्तु आगे चल कर भृगु, कवि एवं अंगिरस् ये तीनो वंश एकत्रित हुए, जिन्हें ‘भृगु आंगिरस’ अथवा ‘आंगिरस’ नाम प्राप्त हुआ
[म.अनु.८५.१९-३८] । इस भृगु-आंगिरस वंश में भृगु के सात पुत्र, एवं अंगिरस् तथा कवि के प्रत्येकी आठ पुत्रों के वंशज सम्मिलित थे । इस वंश में सम्मिलित हुए अंगिरस् एवं कवि के पुत्रों के नाम निम्नलिखित थेः--- (१) अंगिरसपुत्र---बृहस्पति, उतथ्य, पयश्य, बुद्धिमत, उशनस् भृगु, विरज, काशिन् एवं उग्र । भृगु एवं आंगिरस् वंश एक होने के बाद उनके ग्रंथ ही ‘भृग्वंगिरस्’ अथवा ‘अथर्वागिरस्’ नम से एकत्र हो गये । आधुनिक काल में उपलब्ध अथर्वसंहिता भृगु एवं आंगिरस ग्रंथो के सम्मीलन से ही बनी हुयी है ।
भृगु (वारुणि) n. आधुनिक काल में, विवाह करते समय जिन दो गोत्रों के प्रवर एक है, उन में विवाह तय नहीं किया जाता । भृगु एवं अंगिरस् ये दो गोत्र ही केवल ऐसे है कि, जहॉं प्रवर एक होने पर भी विवाह तय करने में बाधा नहीं आती है । संभव है, ये दोनों मूल गोत्रकार अलग वंश के होने के कारण, यह धार्मिक परंपरा प्रस्थापित की गयी हो । भृगु गोत्रियों में भृगु, जामदग्न्यु भृगु ऐसे अनेक भेद हैं । आंगिरस वंशियों में भी भरद्वाज-आंगिरस, गौतम आंगिरस ऐसे अनेक भेद प्राप्त हैं । इन सारे गोत्रों में काफी नामसादृश्य दिखाई देता हैं । किन्तु इन सारे गोत्रों के मूल गोत्रकार विभिन्न वंशों में उत्पन्न हुये थे । यही कारण है कि, इन गोत्रों के प्रबर एक हो कर भी उन में विवाह होगा है । वैदिक वाङ्मय में भृगु प्रजापति एवं भृगु वारुणि स्वतंत्र व्यक्ति दिये गये है । किन्तु पौराणिक वाङ्मय में उन्हे बहुत बूरी तरह संमिश्रित किया गया है । अंगिरसों के संबंध में भी यही स्थिति प्रतीत होती है (अंगिरस् देखिये) ।
भृगु (वारुणि) n. १. भॄगुस्मृतिह २. भृगुगीता, जिसमें वेदान्त विषयक प्रश्नों की चर्चा की गयी हैः; ३. भृगुसंहिता, जिसमें ज्योतिषशास्त्रविषयक प्रश्नों की चर्चा की गयी है; ४. भृगुसिद्धान्त; ५. भृगुसूत्र (C.C.) । मत्स्य के अनुसार, इसने वास्तुशास्त्र विषयक एक ग्रंथ की रचना भी की थी । मनुस्मृति से प्रतीत होता है, कि धर्मशास्त्र से संबंधित विषयों पर भी इसके द्वारा कई ग्रंथों की रचना हुयी थी (मनु देखिये) ।
भृगु (वारुणि) n. भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकारों में पंचप्रवरात्मक (पॉंच प्रवरोंवाले), चतुःप्रवरात्मक (चार प्रवरोंवाले), त्रिप्रवरात्मक (तीन प्रवरोंवाले), एवं द्विप्रवरात्मक (दो प्रवरोंवाले) ऐसे चार प्रमुख प्रकार है ।
भृगु (वारुणि) n. भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार पंचप्रवरात्मक है, जिनके आप्नवान्, और्व, च्यवन,जमदग्नि,आप्नवान, आलुकि (जलाभित), आवेद (आंबाज), उपरिमंडल, ऐलिक, और्व, कार्षणि (पार्वणि), कुत्स, कौचहास्तिक,कोटिल, कौत्स, कौसि, क्षुभ्य, गायन, गार्ग्यायण, गार्हायण, गोष्ठायन, चलकुंडल, चातकि, चांद्रमासि, च्यवन, जमदग्नि, जविन् (ग), जालधि, जिह्रक (जिह्रक, नदाकि,) दंडिन् (दर्भि), देवपति, नडायन (नवप्रभ(), नाकुलि, नीतिन् (ग), नील, नेतिष्य, नैकजिह्र पांडुरोचि, पूर्णिमागतिक (पौर्णिमागतिक), पैंगलायनि, पैल,पौर, फेनप, बालाकि, भृगु,भ्राष्टकायणि, मंड (मुंड), मांकायन (कार्मायन), मार्कड, मार्गेय (भागेय), मांडव्य, मांडूक, मालयनि मृग (भृत), मौद्नलायन, यज्ञपिंडायन, (यद्रमिलायन एवं याज्ञ), योज्ञेयि, रौहित्यायनि, लालाटि (ललाटि,) लिंबुकि, लुब्ध, लोलाक्षि, लौक्षिण्य, लौहवैर्णि, वांगायनि, वात्स्य (वत्स्य), वाह्ययन (महाभाग), विरुपाक्ष विष्णु, वीर्तिहव्य वैकर्णिनि (वैकर्णेय), वैगायन, वैशंपायन, वैश्वानरि, वैहीनरि, व्याधाज्य, शारद्वतिक,शार्कराक्षि, शाङ्गरव, शिखावर्ण, शौनक, शौनकायन-जीवन्ति (शौनकायन जीवंतिक), सकौवाक्षि (सकौगाक्षि), सगालव, संकृत्य,सात्यायनि, सार्पि, सावर्णिक, सोक्रि, सौचाक, सौधिक, सौह, स्तनित एवं स्थलपिंड । भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार भी पंचप्रबरात्मक ही हैः; किंतु उन आप्नवान्, आर्ष्टिपेण, च्यवन, भृगु एवं रुपि ये पॉंच प्रवर होते हैः---आपस्तंबि, आर्ष्टिषेण, अश्वायनि, कटायनि, कटायनि, कपि, कार्दमायनि, गार्दभि, ग्राम्यायणि, नैकशि, बिल्वि (भल्ली), भृगुदास, मार्गपथ एवं रुपि ।
भृगु (वारुणि) n. भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार चतुःप्रवरात्मक है, जिनके भृगु, रैवस, वीतिहव्य एवं वैवस ये चार प्रवर होते हैः---काश्यपि, कौशापि गार्गीय, चालि, जाबालि, जैवन्त्यायनि, तिथि,द अम (मोदम,सदमोदम), पिलि, पौष्णायन, बालपि, भागवित्ति, भातिल, मथित (माधव), मौज्म यस्क, रामोद, वीतिहव्य, श्रमदागेपि और सौर ।
भृगु (वारुणि) n. भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार त्रिप्रवरात्मक हैं, जिनके आपनवान्, च्यवन, एवं भृगु ये तीन प्रवर होते हैः---उभयजात, और्वेय (ग), कायनि, जमदग्नि, पौलस्त्य, बिद, बैजभृत, मारुत (ग), और शाकटायन । भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार भी त्रिप्रवरात्मक है, किन्तु उनके दिवोदास, भृगु एवं वध्र्यश्व ये तीन प्रवर होते हैः---अपिकायनि, अपिशि (अपिशली), खांडव, द्रोणायन, मैत्रेय, रौक्मायणि (रौक्मायण), शाकटाक्ष, शालायनि, और हंसजिह्र ।
भृगु (वारुणि) n. भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार द्विप्रवरात्मक हैं, जिनके गृत्समद एवं भृगु ये दो प्रवर होते हैः---एकायन, कार्दमायनि, गृत्समद, चौक्षि, प्रत्युह (प्रत्यूह), मत्स्यगंध, यज्ञपति, शाकायन, सनक और सौरि
[मत्स्य.१९५] ।
भृगु (वारुणि) n. भृगुकुल मे मंत्रकारों की नामावलि मत्स्य, वायु, एवं ब्रह्मांड में प्राप्त है
[मत्स्य.१४५.९८-१००] ;
[वायु.५९.९५-९७] ;
[ब्रह्मांड.२.३२.१०४-१०६] । उनमें से ब्रह्मांड में प्राप्त नामावलि निम्नलिखित है, जिसमें वायु एवं ब्रह्मांड में उपलब्ध पाठ कोष्ठक में क्रमशः दिये गये हैः---आत्मवत्, आर्ष्टिषेण (अद्विषेण), ऊर्व (और्व), गृत्स (गृत्समत्), च्यवन, जमदग्नि, दधीच (ऋ.चीक), दिवोदास, प्रचेतस, ब्रह्मवत (वाध्र्यश्व) भृगु, युधाजित्, वीतहव्य, वेद (विद), वैन्य (पृथु) ‘शौनक, सारस्वत, सुवेधस् (सुवर्चस्, सुमेधस्) । इनके अतिरिक्त, अपर, नम, प्रश्चार नामक मंत्रकारों का निर्देश केवल वायु में; कवि नामक मंत्रकार का निर्देश वायु एवं ब्रह्मांड में; एवं च्यवन और युधिजित् का निर्देश केवल मत्स्य में प्राप्त है ।
भृगु II. n. कश्यपकुल का गोत्रकार ऋषिगण ।