वसिष्ठ n. एक ऋषि, जो स्वायंभुव मन्वंतर में उत्पन्न हुए ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक माना जाता है । वसिष्ठ नामक सुविख्यात ब्राह्मणवंश का मूलपुरुष भी यही कहलाता है । यह ब्राह्मणवंश सदियों तक अयोध्या के इक्ष्वाकु राजवंश का पौराहित्य करता रहा।
वसिष्ठ n. यह ब्रह्मा के प्राणवायु (समान) से उत्पन्न हुआ था
[भा.३.१२.२३] । दक्ष प्रजापति की कन्या ऊर्जा इसकी पत्नी थी । इस प्रकार यह दक्ष प्रजापति का जमाई एवं शिव का साढ़ू था । दक्षयज्ञ के समय दक्ष के द्वारा शिव का अपमान हुआ, जिस कारण क्रुद होकर शिव ने दक्ष के साथ इसका भी वध किया।
वसिष्ठ n. वसिष्ठवंश के सारे इतिहास में एक उल्लेखनीय घटना के नाते, इन लोगों का विश्र्वामित्र वंश के लोगों के साथ निर्माण हुए शत्रुत्व की अखंड परंपरा का निर्देश किया जा सकता है । देवराज वसिष्ठ से ले कर मैत्रावरुण वसिष्ठ के काल तक, प्राचीन भारत के इन दो श्रेष्ठ ब्राह्मण वंशों में वैर एवं प्रतिशोध का अग्नि सदियों तक सुलगता रहा। प्राचीन भारतीय राजवंशो में भार्गव वंश (परशुराम जामदग्न्य) एवं हैहयों का, तथा द्रुपद एवं द्रोण का शत्रुत्व इतिहासप्रसिद्ध माना जाता है । उन्हीके समान पिढीयों तक चलनेवाला ज्वलंत वैर, वसिष्ठ एवं विश्र्वामित्र इन दो ब्राह्मणवंशो में प्रतीत होता है ।
वसिष्ठ n. इसकी कुल दो पत्नियॉं थीः---१. ऊर्जा, जो दक्ष प्रजापति की कन्या थी; २. अरुन्धती, जो कर्दम प्रजापति के नौ कन्याओं में से आठवी कन्या थी । इनके अतिरिक्त इसकी शतरूपा नामक अन्य एक पत्नी भी थी, जो स्वयं इसकी ही ‘अयोनिसंभवा’ कन्या थी । (१) ऊर्जा की संतति---ऊर्जा से इसे पुंडरिका नामक एक कन्या, एवं ‘सप्तर्षि’ संज्ञके निम्नलिखित सात पुत्र उत्पन्न हुए थेः - दक्ष (रत्न), गर्त, ऊर्ध्वबाहु, सवन, पवन, सुतपस्, एवं शंकु। भागवत में ऊर्जा के पुत्रों के नाम चित्रकेतु आदि बताये गये है
[भा. ४.१.४१] । इसकी कन्या पुंडरिका का विवाह प्राण से हुआ था, जिसकी वह पटरानी थी । प्राण से उसे द्युतिमत् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । इसके पुत्र ‘रत्न’ का विवाह मार्कंडेयी से हुआ था, जिससे उसे पश्र्चिम दिशा का अधिपति केतुमत् ‘प्रजापति’ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ।
[ब्रह्मांड. २.१२.३९-४३] । इनके अतिरिक्त इसे हवीद्र आदि सात पुत्र उत्पन्न हुए थे । सुकात आदि पितर भी इसीके ही पुत्र कहलाते है । २) शतरूपा की संतति---इसकी ‘अयोनिसंभवा’ कन्या शतरूपा से इसे वीर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । वीर का विवाह कर्दम प्रजापति की कन्या काम्या से हुआ था, जिससे उसे प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे । इनमें से प्रियव्रत को अपनी माता काम्या से ही सम्राट, कुक्षि, विराट एवं प्रभु नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए। उत्तानपाद को अत्रि ऋषि ने गोद में लिया था
[ह.वं १.२] ।
वसिष्ठ n. पार्गिटर के अनुसार, कालानुक्रम से देखा जाये तो, वसिष्ठ के वंश में उत्पन्न निम्नलिखित व्यक्ति प्राचीन भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैः - (१) वसिष्ठ देवराज, जो अयोध्या के त्रय्यरुण, त्रिशंकु एवं हरिश्र्चंद्र राजाओं का समकालीन था (वसिष्ठ देवराज देखिये) । (२) वसिष्ठ आपव, जो हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन का समकालीन था (वसिष्ठ अथर्वनिधि १. देखिये) । (३) वसिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम), जो अयोध्या के बाहु राजा का समकालीन था (वसिष्ठ अथर्वनिधि १. देखिये) । (४) वसिष्ठ श्रेष्ठभाज, जो अयोध्या के मित्रसह कल्माषपाद सौदास राजा का समकालीन था (वसिष्ठ श्रेष्ठभाज देखिये) । (५) वसिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय), जो अयोध्या के दिलीप खट्वांग राजा का समकालीन था (वसिष्ठ अथर्वनिधि २. देखिये) । (६) वसिष्ठ, जो अयोध्या के दशरथ एवं राम दशरथि राजाओं का समकालीन था (वसिष्ठ २. देखिये) । (७) वसिष्ठ मैत्रावरुण, जो उत्तर पांचाल देश के पैजवन सुदास राजा का समकालीन था, एवं जिसका निर्देश ऋग्वेद आदि वैदिक ग्रंथों में प्राप्त है (वसिष्ठ मैत्रावरुण देखिये) । (८) वसिष्ठ शक्ति, जो वसिष्ठ मैत्रावरुण का पुत्र था (वसिष्ठ शक्ति देखिये) । (९) वसिष्ठ सुवर्चस्, जो हस्तिनापुर के संवरण राजा का समकालीन था (वसिष्ठ सुवर्चस् देखिये) । (१०) वसिष्ठ, जो अयोध्या मुचकुंद राजा का समकालीन था (वसिष्ठ ३. देखिये) । (११) वसिष्ठ, जो हस्तिनापुर के हस्तिन् राजा का समकालीन था (वसिष्ठ ४. देखिये) । (१२) वसिष्ठ ‘धर्मशास्त्रकार,’ जो ‘वसिष्ठस्मृति’ नामक धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ का कर्ता माना जाता है (वसिष्ठ धर्मशास्त्रकार देखिये) ।
वसिष्ठ n. महाभारत एवं पुराणो में वसिष्ठ ऋषि की तीन विभिन्न वंशावलियॉं प्राप्त हैः- १, अरुंधती-शाखा; २. घृताचीशाखा; ३. व्याघ्रीशाखा। इनमें से अरुंधती एवं घृताची क्रमशः ब्रह्ममानसपुत्र वसिष्ठ एवं वसिष्ठ मैत्रावरुण ऋषियों की पत्नियॉ थी । व्याघ्री कौनसे वसिष्ठ की पत्नी थी, यह निश्र्चित रूप से नही कहा जा सकता। (१) अरुंधतीशाखा---वसिष्ठ (अरुंधती)---शक्ति (स्वागज अथवा सागर)---पराशर (काली)---कृष्ण---द्वैपायन (अरणी)---शुक (पीवरी)---भूरिश्रवस्, प्रभु, शंभु, कृष्ण, गौर, एवं कीर्तिमती (ब्रह्मदत्त की पत्नी) । (२) घृताची शाखा---वसिष्ठ मैत्रावरुण (घृताची) - इंद्रप्रमति अथवा कुणीति अथवा कुशीति - वसु (पृथुसुता) - अपमन्यु
[ब्रह्मांड. ३.८०.९०-१००] ;
[वायु. ७१.८३-९०] ;
[लिंग. १.६३.७८-९२] ;
[कूर्मत्र १.१९] ;
[मत्स्य. २००] । (३) व्याघ्री शाखा---वसिष्ठ को व्याघ्री से व्याघ्रपाद मन्ध, बादलोम, जाबालि, मन्यु, उपमन्यु, सेतुकर्ण आदि कुल 19 गोत्रकार पुत्र उत्पन्न हुए
[म. अनु. ५३.३०-३२ कु.] ।
वसिष्ठ n. वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकारों में एक प्रवारात्मक (एक प्रवरवालेः), एवं त्रिप्रवरात्मक (तीन प्रवरोंवाले) ऐसे दों प्रमुख प्रकार है । (१) एक प्रवरात्मक गोत्रकार---वसिष्ठकुल के निम्न लिखित गोत्र एकप्रवरात्मक हैं, जिनका वसिष्ठ यह एक ही प्रवरा होता हैः - अलब्ध, अपास्थूण (ग), उपावृद्धि, औपगव (अपगवन, ग) औपलोम (अपष्टोम, ग), कठ (ग), कपिष्ठल (ग), गौपायन (गोपायन, ग) गौडिनि (जौडिलि), चौलि, दाकव्य (ग), पालिशय (ग), पौडव (खांडव), पौलि, बालिशय (ग), बाहुरि (ग), बोधप (ग), ब्रह्मवल, ब्राह्मपुरेयक (ब्रह्मकृतेजन, ग), याज्ञवल्क्य (याज्ञदत्त), लोमायन (ग), वाग्ग्रंथि, वाडोहलि, वाह्यक (ग), वैक्लव (ग), वौलि, व्याघ्रपाद (ग), शठ (ग) (पटाकुर, शठकठ), शांडिलि, शाद्वलायन (ग), शीतवृत्त (ग), श्रवस् (श्रवण), सुमन, (ग), स्तस्तिकर (ग) । (२) त्रिप्रवरात्मक गोत्रकार---वसिष्ठकुल के निम्नलिखित गोत्रकार त्रिप्रवरात्मक हैं, जिनके इंद्रप्रमदि (चंद्रसंमति), भगीवसु (भर्गिवसु) एवं वसिष्ठ ये तीन प्रवर होते हैः- उद्राह (उद्घाट, ग), उपलव (ग), उहाक (ग), औपमन्यव, कपिंजल (ग), काण्व (ग), कालशिख, कोरकृषा (कौरकृष्ण, ग), कौरव्य, कौलायन (कौमानरायण), क्रोडोदरायण, क्रोधिन, गोरथ (ग), तर्पय, डाकायन, पन्नागारि (पर्णागारि), पालंकायन, (पादपायन), प्रलंबायन (ग), बलेक्षु (दलेषु, ग), बालवय, ब्रह्ममालिन् (ग), भागवित्तायन (ग) (भागवित्रासन), महाकर्ण, मातेय (ग), माषशरावय (ग), लंबायन (ग), वाकय (ग), वालखिल्य (ग), वेदशेरक (ग), शाकधिय, शाकायन (ग), शाकाहार्य (ग), शैलालय (रौरालय, शैवलेय), श्यामवय, सांख्यायन, सुरायण। वसिष्ठकुल के निम्नलिखित गोत्रकार भी त्रिप्रवरात्मक ही है, किंन्तु उनके कुंडिन, मित्रावरुण एवं वसिष्ठ ये तीन प्रवर होते हैः- औपस्थल (जपस्वस्थ, ग), कुंडिब, त्रैशृंगायण (त्रैशृंग, ग), पैप्पलादि, बाल (घव), मक्षति (ग), माध्यंदिन, लोहलय (हाल-हल का पाठभेद), विचक्षुष (विवर्धक), सैबल्क (सर्वसैलाब), स्वस्थलि (ग) । वसिष्ठकुल के निम्नलिखित गोत्रप्रकार अत्रि, जातुकर्ण एवं वसिष्ठ इन तीन प्रवरों के होते हैः- आलंब (ग), क्रोडोदय, दानकाय (ग), नागेय (ग), परम (ग), पादप, महावीर्य (ग), वय, वायन, शिवकर्ण (शवकर्ण) ।
वसिष्ठ n. वसिष्ठगोत्रीय लोगों में ‘जातुकर्ण्य’ पैतृक नाम धारण करनेवाले लोग प्रमुख थे । इसी नाम के एक ऋषि ने व्यास को वेद एवं पुराणों की शिक्षा प्रदान की थी । इसी कारण जातुकर्ण्य को अठ्ठाईस द्वापारों में से एक युग का व्यास कहा गया है
[वायु. २३.११५-२१९] ।
वसिष्ठ n. वसिष्ठकुल के मंत्रकारों की नामावलि वायु, मत्स्य एवं ब्रह्मांड पुराणों में प्राप्त है
[वायु. ५९.१०५-१०६] ;
[मत्स्य. १४५.१०९-११०] ;
[ब्रह्मांड. २.३२.११५-११६] । इनमें से वायु में प्राप्त नामावलि, मत्स्य, एवं ब्रह्मांड में प्राप्त पाठान्तरों के सहित नीचे दी गयी हैः- इंद्रप्रमति (इंद्रप्रतिम,), कुंडिन, पराशर, बृहस्पति, भरद्वसु, भरद्वाज, मैत्रावरुण (मैत्रावरुणि), वसिष्ठ, शक्ति, सुद्युम्न।
वसिष्ठ (अथर्वनिधि) n. एक ऋषि, जो अयोध्या के हरिश्र्चंद्र राजा के आठवें पिढी में उत्पन्न हुए बाहु राजा का राजपुरोहित था । हैहय तालजंघ राजाओं ने कांबोज, यवन, पारद, पह्लव आदि उत्तरीपश्र्चिम प्रदेश में रहनेवाले लोगों की सहाय्यता से बाहु राजा को राज्यभ्रष्ट किया। आगे चल कर बाहु राजा के पुत्र सगर ने इन सारे शत्रुओं का पराजय कर पुनः राज्य प्राप्त किया। सगर राजा इन सारे लोगों का संहार ही करनेवाला था किन्तु वसिष्ठ ने इसे इस पापकर्म से रोंक दिया। इसने सगर को परशुराम की कथा कथन की थी । इसने सगर के पुत्र अंशुमत् को यौवराज्याभिषेक किया
[ब्रह्म. ३.३१.१,४७.९९] । ब्रह्मांड एवं बृहन्नारदीय पुराणों में इसे क्रमशरु आपव एवं अथर्वनिधि कहा गया है
[ब्रह्मांड. ३.४९.४३] ;
[बृहन्नारदीय. ८.६३] । महाभारत में, इसके नंदिनी नामक गाय के द्वारा शक, कांबोज, पारद आदि म्लेंच्छ जाति के निर्माण होने का, एवं उनकी सहाय्यता से इसके द्वारा विश्र्वामित्र का पराजय होने का निर्देश प्राप्त है
[म. आ. १६५] ;
[वा. रा. बा. ५४.१८-५५] । किन्तु वहॉं वसिष्ठ अथर्वनिधि को वसिष्ठ देवरात समझने की भूल की गई सी प्रतीत होती है, क्यों कि, विश्र्वामित्र ऋषि का समकालीन वसिष्ठ देवरात था, वसिष्ठ अथर्वनिधि उससे काफी पूर्वकालीन था ।
वसिष्ठ (अथर्वनिधि) II. n. एक ऋषि, जो अयोध्या के दिलीप खट्वांग राजा का पुरोहित था । इसीके ही सलाह से दिलीप राजा ने नंदिनी नामक कामधेनु की उपासना की, जिसकी कृपा से उसे रघु नामक सुविख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ
[र. वं. १-३] ;
[पद्म उ. २०२-२०३] ; दिलीप खट्वांग देखिये ।
वसिष्ठ (आपव) n. एक ऋषि, जिसका आश्रम हिमालय पर्वत में था । हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने इसका आश्रम जला दिया, जिस कारण इसने उसे शाप दिया
[वायु. ९४.३९-४७] ;
[ह. वं. ३३.१८८४] । ब्रह्मांड पुराण में इसके ‘मध्यमा भक्ति’ का निर्देश प्राप्त है
[ब्रह्मांड. ३.३०.७०, ३४.४०-४१] । मत्स्य में इसे ब्रह्मवादिन् कहा गया है
[मत्स्य. १४५.९०] । वायु में इसे वारुणि कहा गया है
[वायु. ९४. ४२-४३] । इसका पैतृक नाम आपव था, जिससे यह अप् (जल) का पुत्र होने का संकेत मिलता है । इस प्रकार इसके वारुणि एवं आपव ये दोनों पैतृक नाम समानार्थी प्रतीत होते है ।
वसिष्ठ (चौकितानेय) n. एक आचार्य, जो स्थिरक गार्ग्य नामक आचार्य का शिष्य था
[वं. ब्रा. २] । गौतमी आरुणि नामक आचार्य से वादसंवाद करनेवाला चैकितानेय वसिष्ठ एवं यहा दोनों संभवतः एक ही होंगे
[जै. उ. ब्रा. १.४.२.१] ।
वसिष्ठ (देवराज) n. एक ऋषि, जो अयोध्या के त्रय्यारुण, सत्यव्रत त्रिशंकु एवं हरिश्र्चंद्र राजाओं का पुरोहित था । हरिश्र्चंद्र के यज्ञ में यह ‘ब्रह्मा’ था
[ऐ. ब्रा. ७.१६] ;
[सां.श्रौ. १५.२२.४] ;
[श. ब्रा.१२.६.१.४१, ४.६.६.५] । इसका त्रिशंकु राजा से हुआ विरोध एवं उसीके ही कारण इसका विश्र्वामित्र ऋषि से हुआ भयानक संघर्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास में सुविख्यात है (त्रिशंकु देखिये) । सत्यव्रत त्रिशंकु के राज्यकाल में शुरु हुआ इसका एवं विश्र्वामित्र ऋषि का संघर्ष सत्यव्रत के पुत्र हरिश्र्चंद्र, एवं पौत्र रोहित के राज्यकाल में चालू ही रहा। सत्यव्रत के सदेह स्वर्गारोहण के पश्र्चात् उसके पुत्र हरिश्र्चंद्र ने विश्र्वामित्र को अपना पुरोहित नियुक्त किया। किंतु उसके राजसूय-यज्ञ में बाधा उत्पन्न कर, वसिष्ठ नें अपना पौरोहित्यपद पुनः प्राप्त किया (हरिश्र्चंद्र देखिये) हरिश्र्चंद्र के ही राज्यकाल में, उसके पुत्र रोहित के बदले विश्र्वामित्र के रिश्तेदार शुनःशेप को यज्ञ में बलि देने का षड्यंत्र देवराज वसिष्ठ के द्वारा रचाया गया, किंतु विश्र्वामित्र ने शुनःशेप की रक्षा कर, उसे अपना पुत्र मान लिया (रोहित देखिये) ।
वसिष्ठ (देवराज) n. $वसिष्ठ धर्मशास्त्रकार-- एक स्मृतिकार, जिसका तीस अध्यायों का ‘वसिष्ठस्मृति’ नामक स्मृतिग्रंथ आनंदश्रम के ‘स्मृतिसमुच्चय’ में प्राप्त है । उसमें आचार, प्रायश्र्चित्त, संस्कार, रजस्वला, संन्यासी, आततायि आदि के लिए नियम दिये है । उसी प्रकार दत्तप्रकरण, साक्षिप्रकरण, प्रायश्र्चित्त आदि विषयों का भी विवेचन किया है । व्यंकटेश्र्वर प्रेस के सस्करण में भी उपर्युक्त विषयों का विवेचन करनेवाली इसकी स्मृति उपलब्ध है, परन्तु वह केवल २१ अध्यायों की है । वह तथा जीवानन्द संग्रह की प्रति एक ही है । दोनों प्रतियों में प्रायः एक सौ ही श्र्लोक है । इसकी ९-१० अध्यायोंवाली भी एक स्मृति है, जिसमें वैष्णवों के दैनिक कर्तव्यों का विवेचन किया गया है (उ. उ.) ।
वसिष्ठ (देवराज) n. गौतमधर्मसूत्र के सूत्रों से बहुत से विषयों में मिलते जुलते है । उसी तग्ह बौधायनधर्मसुत्रों के बहुत से सूत्रों से वसिष्ठधर्मसूत्र के सूत्रों का साम्य है । वसिष्ठधर्मसूत्र ऋग्वेद का है । तन्त्रवार्तिक में भी पुरातन गृह्यसूत्रकार के रूप में वसिष्ठ का उल्लेख है
[तन्त्र.१.३.२४] । मिताक्षरादि ग्रंन्थों में वसिष्ठ के धर्मशास्त्र से उद्धरण लिये गये हैं । उसी तरह बृहदारण्यकोपनिषद के शंकराचार्यभाष्य में भी वसिष्ठ के धर्मसूत्र के बहुत से सूत्र लिये गये है । वसिष्ठ ने अपने ग्रंन्थों में वेद तथा संहिता से उद्धरण लिए है । निदानसूत्रों की भाल्लविन द्वाराविरचित एक गाथा भी वसिष्ठ ने अपने स्मृति में दी है । इसके अतिरिक्त मनु, हरीत, यम एवं गौतम आदि धर्मशास्त्रप्रकारों के मत भी कई बार दिये गये है । मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्यस्मृति में वसिष्ठस्मृति का उल्लेख प्राप्त है । ‘वृद्धवसिष्ठ’ नामक अन्य एक ग्रंथ की रचना इसने की थी, जिसका निर्देश विश्र्वरूप
[विश्र्व.१.१९,] एवं मिताक्षरा
[मिता. २.९१] में प्राप्त हैं । इसके ‘ज्योतिर्वसिष्ठ’ नामक ग्रंथ के कुछ उद्धरण ‘स्मृतिचंद्रिका’ में लिये गये है ।
वसिष्ठ (देवराज) n. उपर्निर्दिष्ट ग्रंथों के अतिरिक्त, इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त हैः-- १. वसिष्ठ-कल्प; २. वसिष्ठतंत्र, ३. वसिष्ठपुराण, ४. वसिष्ठ लिंगपुराण, ५. वसिष्ठशिक्षा, ६. वसिष्ठश्राद्धकल्प, ७. वसिष्ठसंहिता, ८. वसिष्ठ होमप्रकार (उ. उ.)
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. एक ऋषि, जो उत्तरपांचाल के सुविख्यात सम्राट् पैजवन सुदास राजा का पुरोहित था । वैदिक परंपरा के सर्वाधिक प्रसिद्ध पुरोहित में से यह एक माना जाता है । ऋग्वेद के सातघे मंडल के प्रणयन का श्रेय इसे दिया गया है
[ऋ. ७.१८.३३] । ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी में, ऋग्वेद के नवम मंडलारंगत सत्तानवे सूक्त के प्रणयन का श्रेय भी वसिष्ठ एवं उसके वंशजो को दिया गया है । इस ग्रंथ के अनुसार, इस सूक्त की पहली तीन ऋचाओं का प्रणयन स्वयं वसिष्ठ ने किया, एवं इस सूक्त के चार से तीस तक की ऋचाओं का प्रणयन, वसिष्ठ ऋषि के कु ल में उत्पन्न निम्नलिखित नौ वसिष्ठों के द्वारा किया गया थाः- इंद्रप्रमति-ऋचा ४-६; वृषगण-ऋचा ७-९; मन्यु-ऋचा १०-१२; उपमन्यु-ऋचा १३-१५; व्याघ्रपाद - ऋचा १६-१८; शक्ति-ऋचा १९-२१; कर्णश्रुत-ऋचा २२-२३; मृलीक - ऋचा २५-२७; वसुक्र-ऋचा २८-३) । इस सूक्त में से ३१-४४ ऋचाओं की रचना पराशर शाक्त्य (शक्ति पुत्र) के द्वारा की गई थी, जो स्वयं वसिष्ठपुत्र शक्ति का ही पुत्र था । किन्तु पार्गिटर के अनुसार, इन अंतिम ऋचाओं की रचना वसिष्ठकुलोत्पन्न पराशर के द्वारा नही, बल्कि शंतनु राजा के समकालीन किसी अन्य पराशर के द्वारा हुई होगी
[पार्गि. पृ. २१३] ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. ऋग्वेद में वसिष्ठ ऋषि को वरुण एवं उर्वशी अप्सरा का पुत्र कहा गया है
[ऋ. ७.३३.११] । ऋग्वेद के इसी सूक्त में इसे मित्र एवं वरुण के पुत्र अर्थ से ‘मैत्रा वरुण’ अथवा ‘मैत्रावरुणि’ कहा गया है । एक बार मित्र एवं वरुण ने उर्वशी अप्सरा को देखा, जिसे देखते ही उनका रेत स्खलित हुआ। उन्होंनें उसे एक कुंभ में रख दिया, जिससे आगे चल कर वसिष्ठ एवं अगत्स्य ऋषिओं का जन्म हुआ
[ऋ. ७.३३.१३] । इसी कारण, इन दोनों को ‘कुंभयोनि’ उपाधि प्राप्त हुई, एवं उनके वंशजो को ‘कुण्डिन’, ‘कुण्डिनेय’ एवं ‘कौण्डिन्य’ नाम प्राप्त हुए
[ऋ. सर्वानुक्रमणी. १,१६६] ;
[नि. ५.१३] । ऋग्वेद में अन्यत्र वसिष्ठ का जन्म कुंभ में नही, बल्कि उर्वशी के गर्भ से होने का निर्देश प्राप्त होता है
[ऋ. ७.३३.१२] । पार्गिटर के अनुसार, ‘मैत्रावरुण’ वसिष्ठ का पैतृक नाम न हो कर, उसका व्यक्तिनाम था, जो मित्रावरुण का ही अपभ्रष्ट रूप था
[पार्गि. पृ. २१६] ;
[बृहद्दे. ४.८२] । हसी कारण, वसिष्ठ के ‘मैत्रावरुण’ पैतृक नाम का स्पष्टीकरण देने के लिए, इसकी जो जन्मकथा ऋग्वेद में प्राप्त है, वह कल्पनारम्य प्रतीत होती है । वसिष्ठ मित्रावरुण का पुत्र कैसे हुआ इसके संबंध में, अपनी पूर्वजन्म में इसने विदेह के निमि राजा के साथ किये संघर्ष की जो कथा बृहद्देवता एवं पुराणों में प्राप्त है, वह भी कल्पनारम्य है
[बृहद्दे.५.१५६] ;
[मत्स्य. २०१.१७-२२] ; निमि विदेह देखिये ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. वसिष्ठ ऋषि का विश्र्वामित्र के प्रति विरोध का स्पष्ट निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है । वसिष्ठ ऋषि के पूर्व सुदास का पुरोहित विश्र्वामित्र था
[ऋ. ३.३३.५३] । किन्तु उसके इस पद से भ्रष्ट होने के पश्र्चात्, वसिष्ठ भरत राजवंश का एवं सुदास राजा का पुरोहित बन गया। तदोपरान्त विश्र्वामित्र ऋषि सुदास के शत्रुपक्ष में शामिल हुआ, एवं उसने सुदास के विरुद्ध दाशराज्ञ युद्ध में भाग लिया था । गेल्डनर के अनुसार, ऋग्वेद में वसिष्ठ एवं विश्र्वामित्र के शत्रुत्व का नहीं, बल्कि वसिष्ठपुत्र शक्ति के साथ हुए विश्र्वामित्र के संघर्ष का निर्देश प्राप्त है । ऋग्वेद के तृतीय मंडल में ‘वसिष्ठ द्वेषिण्य;’ नामक वसिष्ठविरोधी मंत्र प्राप्त है, जो वसिष्ठपुत्र शक्ति को ही संकेत कर रचायें गये थे
[ऋ. ३.५३.२१-२४] । कालोपरांत शक्ति से प्रतिशोध लेने के लिए, विश्र्वामित्र ने सुदास राजा के सेवकों के द्वारा उसका वध किया
[तै. सं. ७.४.७.१] ;
[पं. ब्रा. ४.७.३] ;
[ऋ. सर्वानुक्रमणी ७.३२] । किंतु उपर्युक्त सारी कथाओं में, वसिष्ठ का सुदास राजा के साथ विरोध होने का निर्देश कहॉं भी प्राप्त नहीं है । ऐतरेय ब्राह्मण में, वसिष्ठ को सुदास राजा का पुरोहित एवं अभिषेकर्ता कहा गया है
[ऐ. ब्रा. ७.३४.९] । फिर भी सुदास राजा की मृत्यु के पश्र्चात्, विश्र्वामित्र पुनः एक बार सुदास के वंशजो (सौदासों) का पुरोहित बन गया
[नि. २.२४] ;
[सां. श्रौ. २६.१२.१३] । तत्पश्र्चात् अपने पुत्र के वध का प्रतिशोध लेने के लिए, वसिष्ठ ने सौदासों को परास्त कर पुनः एक बार अपना श्रेष्ठत्व स्थापित किया। किंतु सौदासों के साथ वसिष्ठ का यह शुत्रुत्त्व स्थायी स्वरूप में न रहा। भरत राजकुल एवं राज्य का कुलपरंपरागत पुरोहित पद वसिष्ठवंश में ही रहा, जिसके अनेकानेक निर्देश ब्राह्मणग्रंथों में प्राप्त हैं
[पं. ब्रा. १५.४.२४] ;
[तै. सं. ३.५.२.१] ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. शतपथ ब्राह्मण में एक यज्ञकर्ता आचार्य के नाते वसिष्ठ का निर्देश अनेकबार प्राप्त है । यज्ञ के समय, यज्ञकर्ता पुरोहित ने ‘ब्रह्मन् के रूप में कार्य करना चाहिए’ यह सिद्धांन्त वसिष्ठ के द्वारा ही सर्वप्रथम प्रस्थापित किया गया। शुनःशेप के यज्ञ में वसिष्ठ ब्रह्मन् बना था
[ऐ. ब्रा. ७.१६] ;
[सां. श्रौ. १५.२१.४] । एक समय, केवल वसिष्ठगण ही ‘ब्रह्मन्’ के रूप में कार्य करनेवाले पुरोहित थे, किन्तु बाद में अन्य सारे पुरोहितगण भी इस रूप में कार्य करने लगे
[श. ब्रा. १२.६.१.४१] ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. वसिष्ठ ने सुदास पैजवन राजा को सों के विशेष सांप्रदाय की दीक्षा दी, जिस कारण सुदास को समस्त राजर्षियों में ऊँचा पद प्राप्त हुआ। एक बार यह तीन ददिनों तक भूखा रहा। चौथे दिन अपनी क्षुधा को शांत करने के लिए, इसने वरुण के भोजनगृह में घुसने का प्रयत्न किया। किन्तु रसोईघर के द्वार पर कुत्ते थे, जिन्होंनें इसे अंदर जाने को मना किया। उन रक्षक कुत्तों को सुलाने के लिए इसने कुछ ऋचाएँ कही। ऋग्वेद की यही ऋचाएँ ‘निद्रासूक्त’ नाम से प्रसिद्ध है
[ऋ. ७.५५] । ऋग्वेद में प्राप्त सुविख्यात ‘महामृत्युंजय’ मंत्रों की रचना भी वसिष्ठ के द्वारा ही की गयी है
[ऋ. ७.५९.१२] । मित्रावरुणों से उत्पन्न होने के कारण इसे स्वयं का गोत्र नहीं था । इस कारण इसने पैजवन सुदास राजा के ‘तृत्सु’ गोत्र को ही अपना लिया। इसी कारण, ऋग्वेद में इसे अनेकबार ‘तृत्सु’ कहा है
[ऋ. ७.१०४] । इस सूक्त में वसिष्ठ अपने पर गंदे आक्षेप करनेवाले लोगों को गालीगलीज दे रहा है, ऐसी इस सूक्त की कल्पना है । बृहद्देवता के अनुसार, इस सूक्त का संदर्भ वसिष्ठ-विश्र्वामित्र के विरोध से जोड़ा गया है
[बृहद्दे. ६.२८-३४] । तैत्तिरीय संहिता में प्राप्त ‘एकोनपंचाशद्रात्रयाग’ का जनक वसिष्ठ माना गया है
[तै. सं. ७.४.७.] । उसी संहिता में प्राप्त ‘स्तोमभाग’ नामक मंत्रों का भी प्रवर्तक यही है
[तै. सं. ३.५.२] ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. विपाश नदी के किनारे वसिष्ठ का ‘वसिष्ठशिला’ नामक आश्रम था । इसका ‘कृष्णशिला’ नामक अन्य एक आश्रम भी था, जहॉं इसने तपस्या की थी
[गो. ब्रा. १.२.८.] । इसी तपस्या के कारण, यह पृथ्वी के समस्त लोगों का पुरोहित बन गया
[गो. ब्रा. १.२.१३] ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. वसिष्ठ एवं विश्र्वामित्र के विरोध की कथा वैदिकोत्तर साहित्य में भी प्राप्त है । बृहद्देवता के अनुसार, वसिष्ठ वारुणि के सौ पुत्रों का सौदासस् (सुदास) राजा ने वध किया, जिस कारण क्रुद्ध हो कर, इसने उसे राक्षस बनने का शाप दिया
[बृहद्दे. ५.२८, ३३-३४] । लिंग के अनुसार, विश्र्वामित्र के द्वारा निर्माण किये गयें राक्षसों ने कल्माषपाद सौदास राजा को घिरा लिया, एवं उसके द्वारा शक्ति आदि वसिष्ठ के सौ पुत्रों का वध किया। शक्ति की मृत्यु के पश्र्चात् उसकी पत्नी अद्दश्यन्ती को पराशर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ
[लिंग. १.६३.८३] । किंतु पार्गिटर के अनुसार, अयोध्या के कल्माषपाद सौदास के द्वारा मारे गये कसिष्ठपुत्रों का पिता वसिष्ठ मैत्रावरुणि न हो कर, इससे काफी उत्तरकालीन वसिष्ठ श्रेष्ठभाज् नामक वसिष्ठकुलोत्पन्न अन्य ऋषि था, एवं अयोध्या के सुदास राजा के द्वारा वसिष्ठ मैत्रावरुणि के शक्ति नामक केवल एक ही पुत्र का वध हुआ था
[पार्गि. २०९] ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. इन ग्रंथों के अनुसार, निमि राजा के द्वारा शाप दिया जाने पर वायुरूप में वसिष्ठ ब्रह्मा के पास गया, तथा ब्रह्मा की इच्छा से, उर्वशी को देख कर स्खलित हुए मित्रावरुणों के वीर्य से यह कुंभ में उत्पन्न हुआ
[वा. रा. उ. ५७] ;
[मत्स्य. ६०.२०-४०, २००] ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. एक बार विश्र्वामित्र ऋषि इसके आश्रम में इसे मिलये आया। कामधेनु की सहायता से विश्र्वामित्र का उत्कृष्ट आतिथ्य वसिष्ठ ने किया। तब उसने कामधेनु मॉंगी। किन्तु इसने अनाकानी की, तब उसने कामधेनु को जबरदस्ती ले जाने का प्रयत्न किया। परंतु धेनु के शरीर से शक, पल्लव इत्यादि म्लेंच्छ उत्पन्न हुए, जिन्होंनें विश्र्वामित्र को पराजित किया। परजित हो जाने के उपरांत, विश्र्वामित्र ने यह अनुभव किया कि, क्षत्रियबल की अपेक्षा ब्राह्मणबल श्रेष्ठ है, तथा तपश्र्चर्या करना आरंभ किया। विश्र्वामित्र ने वसिष्ठ से ब्रह्मर्षि कलहाने का काफी प्रयत्न किया था । उक्त कथा संभवतः वसिष्ठ देवराज की होगी। बाद में क्रोध से विश्र्वामित्र ने वसिष्ठ के सौ पुत्र राक्षसों के द्वारा भक्षण करवाये। इससे यह जीवन से विरक्त हो कर नदी में प्राण देने गया, किन्तु बच गया। इसीलिए उस नदी को विपाशा नाम दिया गया
[म. व. १३०.८-९] । क्यों कि, उस नदी ने वसिष्ठ को पाशमुक्त कर के उसे बचाया था, उसे शतद्रु नाम प्राप्त हुआ। उसे यह नाम क्यों प्राप्त हुआ उसका कारण यही है कि, जब यह यातद्रु (आधुनिक सतलज नदी) में व्याकुल होकर कूद पड़ा, तब वह नदी इसे अग्नी के समान तेजस्वी समझ कर सौकडों धाराओं में फूट कर इधर उधर भाग चली। शतधा विद्रुत होने से उसका नाम ‘शतद्र’ हुआ
[म. आ. १६७.९] । वसिष्ठ ने जब विश्र्वामित्र पर सौ पुत्रों के समाप्त करने का अरोप लगाया, तब पैजवन के समक्ष शपथपूर्वक उसने यह बात अमान्य की
[मनु. ८.१०] । किन्तु कालद्दृष्टि से यह कथा असंगत प्रतीत होती है (शक्ति देखिये) ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. कक्षसेन ने इसे अपनी संपत्ती दी थी
[मत्र अनु. २००.१५. कुं.] । इसने पक्षवर्धिनी एकादशी का व्रत किया था
[पद्म. उ. ३६] । इसने बकुला-संगम पर परमेश्र्वर की सेवा की थी
[पद्म. उ. १३९] । इन्द्रप्रस्थ के सप्ततीर्थ के प्रभाव से इसे महापवित्र पुत्र हुए थे
[पद्म. सृ. ३४] । इसने भीष्मपंचक व्रत किया था
[पद्म. उ. १२४] । यह एक व्यास भी था (व्यास देखिये) ।
वसिष्ठ (मैत्रावरुणि) n. ऋग्वेद के अनुसार, इसे शक्ति नामक एक पुत्र था
[ऋ. ३.५३.१५-१६] । उसी ग्रंथ में अन्यत्र शतयातु एवं पराशर को क्रमशः इसका पुत्र एवं पौत्र कहा गया है
[ऋ. ७.१८.२१] । पुराणों में प्राप्त जानकारी के अनुसार, वसिष्ठ के पुत्र नामक शक्ति, एवं पौत्र का नाम पराशर शाक्त्य था, जो कृष्ण द्वैपायन व्यास का पिता था । इन्ही ग्रंथों में वसिष्ठ की पत्नी का नाम कपिंजली घृताची दिया गया है, जिससे इसे इंद्रप्रमति (कुणि अथवा कुणिति) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । इंद्रप्रमति को पृथु राजा की कन्या से वसु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसके पुत्र का नाम उपमन्यु था । इस प्रकार वसिष्ठ, शक्ति, वसु, उपमन्यु एवं अन्य छः वसिष्ठ के वंशजो से ‘वसिष्ठवंश’ का प्रारंभ हुआ।
वसिष्ठ (मित्रयु) n. एक आचार्य, जो व्यास के छः पुराणप्रवक्ता शिष्यों में से एक था
[वायु. ६१.५६] ;
[ब्रह्मांड. २.३५.६५] ।
वसिष्ठ (वैडव) n. एक आचार्य, जिसने ‘वसिष्ठ साम’ नामक साम की रचना कर, सुखसमृद्धि एवं ऐश्र्वर्य प्राप्त किया
[पं. ब्रा. ११.८.१४] । वीड का पुत्र होने के कारण, इसे ‘वैडव’ पैतृक नाम प्राप्त हुहा था ।
वसिष्ठ (श्रेष्ठभाज्) n. एक ऋषि, जो अयोध्या के मित्रसह कल्माषपाद राजा का पुरोहित था
[म. आ. १६७.१५,१६८.१०] । महाभारत में अन्यत्र इसे ‘ब्रह्मकोश’ उपाधि प्रदान की गई है । कल्माषपाद राजा ने एक दुष्टबृद्धि राक्षस के वशीभूत हो कर इसे नरमांसयुक्त भोजन खिलाया, जिस कारण इसने उसे नरमांसभक्षक होने का शाप दिया। बारह वर्षों के पश्र्चात कल्माषपाद राजा शापयुक्त हुआ। तत्पश्र्चात् इसने उसकी पत्नी मदयन्ती को अश्मक नाम पुत्र उत्पन्न हो का वर दिया
[ब्रह्मांड. ३.३६.१५] ;
[वा. रा. सुं. २४.१२] ।
वसिष्ठ (सुवर्चस्) n. एक ऋषि, जो हस्तिनापुर के संवरण राजा का पुरोहित था
[म. आ. ८९.३६-४०] । यह सुदास राजा के पुरोहित वसिष्ठ ऋषि का पुत्र था, एवं इसके भाई का नाम शक्ति था । पांचाल देश के राजा सुदास ने संवरण राजा को राज्य भ्रष्ट किया। तदुपरान्त वसिष्ठ की सहाय्यता से ऋक्षपुत्र संवरण ने पुनः राज्य प्राप्त किया, एवं इसीकी सहाय्यता से विवस्वत् की कन्या तपती से उसका विवाह हुआ
[म. आ. १८०] । कालोपरान्त संवरण के राज्य में अकाल छा गया, जिस समय उसके न होते हुए भी इसने बारह वर्षो तक हस्तिनापुर के राज्य का कारोबार योग्य प्रकार से चलाया
[म. आ. १६०-१६४] । तारकामय युद्ध के बाद, सृष्टि में महान अकाल आ गया, जिस समय इसने फल-मूल-औषधि आदि का निर्माण कर देव, मनुष्य एवं पशुओं के प्राणें की रक्षा की
[ब्रह्मांड. ३.८.८९.९०] ;
[म. शा. २२६.२७] ;
[अनु. १३७.१३] ।
वसिष्ठ (हिरण्यनाभ कौशल्य) n. एक आचार्य, जो जैमिनि नामक आचार्य का शिष्य था । जैमिनि ने इसे वेदों की पॉंच सौ संहिताएँ सिखायी थी, जो आगे चल कर इसने अपने याज्ञवल्क्य नामक शिष्य को प्रदान की
[वायु. ८८.२०७] ।
वसिष्ठ II. n. एक आचार्य, जो अयोध्या के दशरथ एवं राम दशरथि राजाओं का पुरोहित था । एक नितिविशारद प्रमुख मंत्री, एवं पुरोधा के रूप में इसका चरित्रचित्रण वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है । यह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी, एवं तपस्वियों में श्रेष्ठ था
[वा. रा. बा. ५२.१, २०] । अपनी तपस्या के बल पर इसने ब्रह्मर्षिषद प्राप्त किया था । यह अत्यधिक शांतिसंपन्न, क्षमाशील एवं सहिष्णु था
[वा. रा. बा. ५५-५६] । दशरथ राजा के पुरोहित के नाते, उसके पुत्रकामेष्टि यज्ञ में यह प्रमुख ऋत्विज बना था । राम एवं लक्ष्मण का नामकरण भी इनसे ही किया था । राम दशरथि को यौवराज्याभिषेक की दीक्षा भी इसके ही हाथों प्रदान की गयी थी (राम दशरथि देखिये) ।
वसिष्ठ III. n. एक ऋषि, जो अयोध्या के मांधातृ राजा के पुत्र मुचकुंद राजा का पुरोहित था
[म. शां. ७५.७] ।
वसिष्ठ IV. n. एक ऋषि, जो भरतवंशीय सम्राट रंतिदेव सांकृत्य का पुरोहित था । रंतिदेव राजा हस्तिनापुर के हस्तिन् राजा का समकालीन था । उसने इसे ब्रह्मर्षि मान कर अर्ध्यप्रदान किया था
[म.शा. २६.१७] ;
[अनु. २००.६] ।
वसिष्ठ IX. n. १. एक ऋषि, जो वारुणि यज्ञ के ‘वसुमध्य’ से उत्पन्न हुआ था । इसी कारण इसे ‘वसुमत्’ कहते थे । आगे चल कर, इसीसे ही सुक्रात नामक पितर उत्पन्न हुए
[ब्रह्मांड. ३.१.२१] ;
[मत्स्य. १९५.११] ।
वसिष्ठ V. n. रैवत मन्वंतर का एक ऋषि। ६.सावर्णि मन्वंतर का एक ऋषि। ७.ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर का एक ऋषि।
वसिष्ठ VI. n. धर्मनारायण नामक शिवावतार का एक शिष्य।
वसिष्ठ VII. n. एक ऋषि, जो श्राद्धदेव का पुरोहित था । श्राद्धदेव को कोई भी पुत्र न था, जिस कारण इसने मित्रवरुणों को उद्देश्य कर एक यज्ञ का आयोजन किया। श्राद्धदेव की पत्नी श्रद्धा की प्राप्ती हो। इस इच्छा के अनुसार, इसके यज्ञ से उसे इला नामक कन्या प्राप्त हुई। किन्तु श्राद्धदेव पुत्र का कांक्षी था, जिस कारण इसने उस कन्या का सुद्युम्न नामक पुत्र में रुपांतर किया
[भा. ९.१.१३-२२] । अंबरीष राजा के अश्र्वमेघ यज्ञ में भी यह उपस्थित था
[मत्स्य. २४५. ८६] ।
वसिष्ठ VIII. n. ०. आठवा वेदव्यास, जिसे इंद्र ने ब्रह्मांड पुराण सिखाया था । आगे चल कर, यही पुराण इसने सारस्वत ऋषि को सिखाया
[ब्रह्मांड. २.३५.११८] । इसका आश्रम उर्ज्जन्त पर्वत पर था
[ब्रह्मांड. ३.१३.५३] ।
वसिष्ठ X. n. २. बृहत्कल्प के धर्ममूर्ति राजा का पुरोहित
[मत्स्य. ९२.२१] । इसने त्रिपुरदहन के हेतु शिव की स्तुति की थी
[मत्स्य. १३३.६७] ।
वसिष्ठ XI. n. ३. एक शिल्पशास्त्रज्ञ
[मत्स्य. २५२.२] ।
वसिष्ठ XII. n. ४. एक ऋषि, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से मिलने के लिए उपस्थित हुआ था
[भा. १.९.७] । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय भी यह उपस्थित था
[भा. १०.७४.७] ।
वसिष्ठ XIII. n. ५. अगस्त्य ऋषि का छोटा भाई, जो विदेह देश के निमि राजा का पुरोहित था वसिष्ठ मैत्रावरुणि देखिये;
[मत्स्य. ६१.१९] । महाभारत के अनुसार, यह ब्रह्माजी के मानसपुत्रों में से एक था । भगवान् शंकर के शाप से ब्रह्माजी के सारे पुत्र दग्ध हो कर नष्ट हो गयें। वर्तमान मन्वन्तर के प्रारंभ में ब्रह्माजी ने उन्हें पुनरु उत्पन्न किया। उनमें से वसिष्ठ एक था । यह अग्नि के मध्यम-भाग से उत्पन्न हुआ था । इसकी पत्नी का नाम अक्षमाला था
[म. उ. ११५.११] । एक बार निमि राजा से इसका झगड़ा हो गया, जिसमें दोनों ने एक दूसरे को विदेह (देहरहित) बनने का शाप दिया । उन शापों के कारण इन दोनों की मृत्यु हुयी (निमि देखिये) ।