भरत (जड) n. (स्वा.नाभि.) एक महायोगी एवं गुणवान् राजर्षि, जो ‘जडभरत’ नाम से सुविख्यात हैं । अजनाभवर्ष का राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव को इन्द्र की कन्या जयन्ती से सौ पुत्र हुए, जिनमें यह ज्येष्ठ था । पहले इस देश का नाम अजनाभ वर्ष था । बाद में इसीके नाम से इस देश का नाम भारववर्ष हुआ
[भा.५.४.९] ;
[वायु.३३.५२] ;
[ब्रह्मांड.२.१४.६२] ;
[लिंग.१.१४७.२४] ;
[विष्णु.२.१.३२] । वायु के अनुसार, इसके पूर्व इस देश का नाम ‘हिमवर्ष’ था । बहुत दिनों तक राज्य करने के उपरांत, इसका पिता राजा ऋषभ इसका राज्याभिषेक कर वन चला गया । पित के द्वारा राज्यभार सौप देने के उपरांत, इसने विश्वरुप की कन्या पंचजनी का वरण किया । यह अपने पिता की ही भॉंति प्रजापालक, दयालु एवं धार्मिक प्रवृत्ति का राजा था । इसकी प्रजा भी निजधर्म का पालन करती हुयी सुख के साथ जीवन निर्वाह करती थी । इसने यज्ञकर्मो के ‘प्रकृति विकृतियो’ का पूर्ण ज्ञान संपादित कर, बडे बडे यज्ञों को कर यज्ञपुरुष की आराधना की थी । इस प्रकार भक्तिमार्ग का अवलंबन करता हुआ इसने एक कोटि वर्षो तक राज्य किया । तदोपरांत राज्य को छोडकर यह तप के लिए पुलहाश्रम चला गया
[भा.५.७.८] ।
भरत (जड) n. पुलह का आश्रम गंडकी नदी के किनारे बडे सुन्दर स्थान पर बना था । वहाँ जाकर यह सूर्यमंत्र का जाप कर तपस्या करने लगा । एक दिन इसने एक गर्भवती हरिणी देखी, जो तृषित होकर श्लथ शरीर बडी जल्दी जल्दी पानी पी रही थी । इतने में सिंहगर्जना से भयत्रस्त होकर वह एकदम भगी । वैसे ही उसके गर्भ में स्थित शावक गिर कर पानी के प्रवाह में बह गया, तथा वह त्रस्तनयनों से देखती कुंजो में विलीन हो गयी । भरत ने शावक को पानी से निकाला, तथा इसे आश्रम ले आया । इस हरीणशावक के प्रति इसकी स्नेह भावना इतनी बढ गयी, कि उसी मोह में नित्य होनेवाली दिनचर्या तथा अपनी तपस्या से भी वह उदासीन हो गया । उन्हें चौबीस घन्टे मृगशावक ही याद रहता तथा उसी की ही चिन्ता । यहा तक कि, मुत्यु के समय भी इसे यही चिन्ता थी कि, मेरे बाद इस शावक का क्या होगा? इसी कारण मृत्योपरांत इसे मृतजन्म ही प्राप्त हुआ । मृगयोनि में इसे अपने पूर्वजन्म का पूर्णज्ञान था । अतएव अपने मातापिता के मोह का परित्याग कर, यह उसी पुलहआश्रम में आकर, शाल वृक्षों की पवित्र छाया में एकाग्रचित्त होकर तपस्या करने लगा । जब इसे पता चला कि इसकी मृत्यु निकट आ गयी है, तब गंडकी नदी के पवित्र जल में गले डूबकर इसने अपने मृग शरीर का त्याग किया ।
भरत (जड) n. मृगयोनि के उपरांत, इसने अंगिराकुल के एक सद्गुणसम्पन्न ब्राह्मण की दूसरी पत्नी के गर्भ से जन्म लिया । इस जन्म में इसे ‘जड भरत’ नाम प्राप्त हुआ । इस जन्म में भी इसे अपने पूर्वजन्मो का ज्ञान था, तथा यह भी पता था कि मेरा यह अन्तिम जन्म है । अतः कही फिर जन्म न लेना पडे इस कारण, यह मोहमाया को छोडकर सब से अलग रहने लगा । इसका विचार था, ‘यदि मैं किसी से, किसी प्रकार का सम्पर्क सम्बन्ध तथ प्रेमभाव रखूँगा तो लोग भी मुझसे सम्बन्ध बढायेंगे, तथा इसप्रकार मायामोह के बन्धनों में उलझ कर मुझे जन्म मरण के वन्धनों में बार बार बन्धना पडेगा’। इसीलिए वह इस प्रकार का आचरण दिखाने लगा कि, लोक इसे मूर्ख, मंदबुद्धि, अंधा तथा बहरा समझे । इसप्रकार कर्मबन्धनों से अलग रहकर, दत्तचित्त होकर यह ब्रह्मचिन्तन में सदैव निमग्र रहने लगा । इसको इस प्रकार उदासीन देखकर भी, इसके पिता ने गृहस्थाश्रम के उपनयनादि सभी संस्कारों को कर के इसे वेदशास्त्रों की शिक्षा आदि का भी ज्ञान कराया । किन्तु यह तो अपने राग में ही मस्त रहा । इसकी यह उदासीनता तथ उपेक्षित भाव देखकर इसके पिता पुत्र दुःख में ही मर गये । इसकी माता भी उसीके साथ सती हो गयी; किन्तु इसमें कोई अन्तर न आया । आगे चलकर, इसके भाइयों ने भी इसे जड समझ कर, इसकी पढाईलिखायी बन्द कर, इससे सम्बन्ध तोड लिए । यह भी भक्तिभावना में निमन्ग कभी बेगारी करता, कभी भिक्षा मॉंगता, तथा कभी मजदूरी कर के अपना पेट पालता । एक बार यह वीरासन में बैठा खेत की रक्षा कर रहा था, की राजदूतों ने इसे देखा, तथा पकड कर बलि देने के लिए भद्रकाली के मन्दिर ले गये । किन्तु देवी ने इसकी परम प्रतिभा को पहचान कर, इसका संरक्षण कर लिया, एवं उन राजदूतों का नाश किया
[भा.५.९-१०] ;
[विष्णु.२.१३-१६] । एक बार सिंधु-सौवीर देश का राजा रहूगण कपिलाश्रम में ब्रह्मज्ञान का उपदेश सुनने के लिए जा रहा था । जाते जाते वह इक्षुमती के तट पर आ पहुँचा । उसने वहॉं के अधिपति से पालकी ले जाने के लिए कहारों को मँगाने के लिए कहा । पालकी ले जाने के लिए जब कोई दीख न पडा, तो बेगार रुप में राजा की पालकी उठाने के लिए इससे कहा गया । यह बिना हिचकिचाहट के तैयार हो गया । पालकि ले जानेवाले सभी कहार तेज चलते थे । किंतु यह राह में धीरे धीरे इस प्रकर कदम रखता, कि कहीं कोई क्रीडा मकोडा इसके पैंर से कुचल कर मर न जाये । इस प्रकार, इसके धीरे चलने से राजा को पालकी के अंदर झटके लगने लगे । उसने जब इसका कारण पूछा, तब उसे पता चला की, इसमें जडभरत का ही दोष है, अन्य का नहीं ।
भरत (जड) n. राजा ने पालकी से झॉंक कर इसको देखते ही कहा, ‘तुम दिखते तो हृष्टपुष्ट हो, किंतु पालकी ले जानें मे इतने सुस्त क्यों’? तब जड भरत ने उत्तर दिया, ‘मजबूती शरीर की नहीं, आत्मा की होती है, तथा मेरी आत्मा अभी इतनी पुष्ट कहॉं? पश्चात्, इसे तत्त्वज्ञानी समझ कर, राजा पालकी से उतर लिया, एवं उसने इससे आत्मबोध के संबंध में उपदेश ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त की । इसने राजा को अपने पूर्वजन्म की घटनाओं के साथ साथ उसे अन्य बातें भी बतायी थी । इस प्रकार उसे ज्ञान प्रदान कर यह बन को चला गया
[भा.५.११-१४] ;
[नारद.१.४८-४९] ;
[विष्णु.२.१३-१६] । भागवत के अनुसार, इसका इतना महान् चरित्र था, कि अनुकरण करना तो दूर रहा, किसी में इतना सामर्थ्य नहीं कि, वह इस प्रकार के त्यागमय जीवन को अपना ने की बात सोचे, तथा यदि वह सोचे भी, तो यह उसीके प्रकार की बात होगी कि, कोई नीच मक्खी गरुड की बराबरी के लिए प्रयत्नशील हो
[भा.५.१४.४२] ।
भरत (जड) n. ऋषभपुत्र के जन्म में, इसे अपने पंचजनी नामक पत्नी से निम्नलिखित पॉंच पुत्र हुएः---सुमति, राष्ट्रभृत्, सुदर्शन, आवरण, एवं धूम्रकेतु । पुलह ऋषि के आश्रम में जाने के पूर्व, इसने अपना संपूर्ण राज्य अपने पुत्रों में बॉंट दिया था
[भा.५.७.१-१३] ।
भरत (दाशरथि) n. (सू.इ.) अयोध्या के राजा दशरथ का पुत्र । इसकी माता का नाम कैकयी था । कुशध्वज जनक की कन्या मांडवी इसकी पत्नी थी । जिस समय राम को राज्याभिषेक होनेवाला था, यह शत्रूघ्न के साथ अपने मामा के घर गया था । अयोध्या का राज्य इसे दिलाने के लिए इसकी मॉं कैकेयी ने दशरथ से वरदान प्राप्त किया कि, राम को वनवास, तथा भरत को अयोध्या का राज्य दिया जाय । दशरथ कैकेयी से पूर्ण वचनबद्ध थे । वह जब चाहे वरदान प्राप्त कर सकती थी । इसी आधार पर उसने उक्त वरदान ऐसे विचित्र अवसर पर मॉंग कि, दशरथ ने अपनी प्रतिज्ञा तो पूरी की; किन्तु राम के वनगमनोपरांत में प्राण त्याग दिया । राम वन चले गये थे, दशरथ भी इस संसार में न रहे, अतएव राज्य की व्यवस्था संभालने के लिए सिद्धार्थ नामक मंत्री से भरत को बुला लाने के लिए भेजा गया । इधर भरत अपने ननिहाल में नित्यप्रति अनिष्टकारी स्वप्नों देखने के कारण, अत्यंत दुःखी एवं चिंतित था । सिद्धार्थ इसे लेने के लिए आया, और विना कुछ बताये अयोध्या वपस बुला लाया । अयोध्या आकर इसे अपनी मॉं के द्वारा सभी समाचार ज्ञात हुए ।
भरत (दाशरथि) n. राज्यप्राप्ति के लिए, मॉं केकैयी द्वारा रचे गये इस षड्यंत्र को देख कर भरत क्रोधाग्नि में पागल हो उठा, और अपनी मॉं की कटु आलोचना करते हुए उसकी घोर निर्भत्सना की । भरत को अपनी मॉं की इस राज्यलिप्सा तथा अधिकार प्राप्ति की भावना से इतना अधिक दुःख हुआ कि, यह वहॉं ठहर न सका, और सीधे कौसल्या से मिलने के लिए उसके महल की ओर चल पडा । कौसल्या भी इससे मिलने के लिए विह्रल थी, क्योंकि उसकी धारणा थी कि, शायद यह समस्त जाल भरत के सन्मति से ही बिछाया गया है । भरत के आते ही कौसल्या ने बुरा भला कहते हुए अपने व्यंग बाणों से इसके हृदय को विदीर्ण कर दिया । अन्त में शोक विह्रल भरत को हाथ जोड कर शपथ खाकर कहना पडा कि, इस जाल फरेब से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, उसक नाम व्यर्थ में जोड कर उसे पापी ठहराया गया है । इसके आने के दूसरे दिन गुरु वसिष्ठ ने राजा दशरथ को क्रियाकर्म करने के लिये कहा । तब भरत ने भी गुरु की आज्ञा मान कर, तेल की कढाई में रक्खें गये दशरथ के सुरक्षित शव को निकाल कर्म, विधिपूर्वक अग्निहोत्राग्नि देकर, पिता की अन्तिम क्रिया पुरी की
[वा.रा.अयो.७०.७७] । चौदह दिनोपरांत, जब यह अपने मृत पिता के अंतिम संस्कारों से निवृत्त हुआ, तब राज्याधिकारियों एवं मंत्रियों ने इसे सिंहासन स्वीकार कर के राज्य संचालन की प्रार्थना की । इसने सब को समझाते हुए कहा, ‘राज्य का अधिकारी मृत पिता का ज्येष्ठ पुत्र ही हो सकता है, मैं नहीं । राजा होने का अधिकार केवल राम को हीं है, कारण वह हमारे सभी भाइयों में ज्येष्ठ एवं योग्य हैं । हमें चाहिये कि, राम जहॉं कहीं हो हम अपने सम्पूर्ण साज-बाज के साथ वहॉं जाकर राज्यभार उन्हें सौंप कर उनका राज्याभिषेक करें’। भरत के इस आवेशपूर्ण उत्तर को सुनकर वसिष्ट आदि लोगो ने बहुविध भावों से भरत को समझाया, किन्तु यह अपनी वाणी पर अटल रहा । यहीं नहीं, भरत ने यहॉं तक कह डाला, ‘अगर राम वापस नहीं आयेंगे, तो मैने भी निश्चय कर रक्खा है कि, मै राज्य को स्वीकार न करके लक्ष्मण के समान स्वयं वनवासी हो कर, राम की सेवा करते हुए अपने धर्म का निर्वाह करुँगा’। यह कह कर भरत ने राज्याधिकारियों को आज्ञा दी कि, राजपथों को ठीक किया जाये, तथा शीघ्रातिशीघ्र जाने की सभी तैयारियॉं शुरु की जाये ।
भरत (दाशरथि) n. राम से मिलने के लिये भरत अपने परिवार, प्रजा, गुरुजनों के साथ अयोध्या से यात्रा के लिए निकल पडा । सब से पहला विश्राम, भरत ने गंगा के किनारे श्रुंगवेरपुर के पास किया । वहॉं इसने गुह से भेंट की, तथा राम के संबंध में अनेकानेक सूचना ओं को प्राप्त कर्म, उसकी ही सहायता से अपने परिवार सहित गंगा को पार कर ‘भरद्वाज आश्रम’ की ओर चल पडा । मार्ग में संपूर्ण परिवार के साथ चैत्रमुहुर्त में यह प्रयाग वन पहुँचा । वहॉं कुछ देर विश्राम करने के उपरांत, कुछ चुने हुए व्यक्तियों को लेकर यह भरद्वाज आश्रम की ओर चल पडा, तथा शेष व्यक्तियों से वहीं ठहराने की आज्ञा दी । भरत जब गुह से मिला था, तो उसे भी इसे देख कर पहले शंका हुयी थी । यही हाल भरद्वाज का भी हुआ । भरत को देखते ही उसके हृदय में यह बात दौड गयी कि, कहीं राम का कंटक हमेशा के लिए मार्ग से दूर करने के लिए भरत तो नहीं आया? भरत के मिलते ही भरद्वाज ने स्पष्ट शब्दों नें अपनी धारणा प्रकट की । किन्तु भरत के बार बार कहने तथा वसिष्ठ द्वारा विश्वास दिलाये जाने पर, भरद्वाज मुनी को इस पर विश्वास हुआ । उन्होंने इसका तथा इसकी सेना का उत्कृष्ट भोजनादि दे कर आदर सत्कार करते हुए बताया, ‘राम इस समय चित्रकूट में निवास कर रहे हैं, और तुम उनसे भेंट कर सकते हो’। भरत ने भरद्वाज मुनि से कौसल्या तथा के कैकयी का जो परिचय दिया है, वह एक ओर करुणा से ओतप्रात है तथा दूसरी ओर घृणा, क्रोध एवं आत्मग्लानि से परिपूर्ण है । कौसल्या का परिचय देते हुए भरत ने कहा, ‘शोक तथा उपवास से कृश तथा दीनहीन बनी हुयी, मेरे पिता की पटरानी कौसल्या को आप देख रहे है । इसीने सिंह के समान पराक्रमी राम को जन्म दिया है’ । अपनी मॉं को घृणापूर्ण दृष्टि से देखते हुए भरत ने कहा, ‘यह क्रोधी, अविचारिणी, अभिमानिनी, स्वयं को भाग्यशालिनी समझनेवाली, ऐश्वर्यलुब्ध सज्जन के समान दिखनेवाली, परन्तु दुर्जन, दुष्ट, तथा दुर्बुद्धि, मेरी माता कैकेयी हैं’। भरत ने भरद्वाज आश्रम में एक दिन निवास किया । उसके उपरांत भरद्वाज ने राम की पर्णकुटी की ओर जानेवाले यमुना तट का मार्ग समझाकार आदरपूर्वक इसे बिदा किया
[वा.रा.अयो.९२] । भरद्वाज के द्वारा निर्देशित मार्ग पर चल कर यह चित्रकूट पहुँचा । भरत के आने की सूचना मिलते ही लक्ष्मण आग बबूला हो उठा; उसे पूर्ण विश्वास हुआ कि भरत ससैन्य राम से युद्ध करने आ रहा है । किन्तु राम के अत्यधिक समझाने पर उसका वह संदेह दूर हुआ ।
भरत (दाशरथि) n. भरत आ कर, अतिविह्रलता के साथ राम से लिपट गया एवं अपने हृदय की समस्त आत्मग्लानि को प्रकट करते हुए बार बार उससे माफी मॉंगने लगा । इसने राम को घर की सारी परिस्थिति बतलाते हुए आग्रह किया कि, वह अयोध्या चल कर राज्यभार ग्रहण करे । इसके साथ जाब्नालि तथा वसिष्ठ आदि ने भी बार बार निवेदन किया । किन्तु राम ने पिता के वचनों को सत्य प्रमाणित करने के लिये कहा, ‘मुझे पिता के आन प्यारी है । मेरा कर्तव्य है कि मैं पिता आज्ञा को स्वीकार कर उनके पण की रक्षा करुं । इसलिए मैं न अयोध्या जाउँगा, और न राज्य सिंहासन ही स्वीकार करुँगा’। राम की यह वाणी सुन कर इसने उनके आश्रम के सामने सत्याग्रह करने की योजना बनायी । किन्तु राम ने कहा कि, ‘यह क्षत्रियों का मार्ग न होकर ब्राह्मणों का मार्ग है’ यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है । अन्त में भरत को समझाते हुए राम ने कहा--- लक्ष्मीश्चन्द्रादपेयाद्वा हिमवान् वा हिमं त्यजेत् । अतीया त् सागरो वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः॥ कामाद्वा तात लोभाद्वा मात्रा तुभ्यमिंद कृतगों । न तन्मनसि कर्तव्यं विर्तितव्यं च मातृवत् ॥
[वा.रा.अयो.११२.१८-१९] । अन्त में राम के अत्याधिक समझाये जाने पर इसने उनकी पादुकाओं को ले कर कहा, ‘मैं इन पादुकाओं के नाम से चौदह वर्ष तक राज्य चलाऊँगा, तथा जिस प्रकार तुम वन में रह कर जटायें एवं वस्त्र धारण करते हो, उसी प्रकार मैं भी जीवन व्यतीत करुँगा, तथा फलफूलों को खा कर ही अपना जीवन निर्वाह करुँगा । यदि तुम चौदह वर्षो के उपरांत वापस न आये, तो मैं अग्नि में प्रवेश कर, अपना शरीर त्याग दूँगा’। इतना कहकर राम की पादुकाओं को लेकर यह वापस आया ।
भरत (दाशरथि) n. अयोध्या आ कर पादुकाओं को लेकर, यह नन्दिग्राम में वनवासी की भॉंति रह कर राज्य करने लगा । इस प्रकार राज्यसंचालन करते समय छत्रचामर, उपहार सभी चीजें पादुकाओं को ही अर्पित की जाती थी, तथा यह निमित्तमात्र बन कर राम की अमानत समझ कर अयोध्या के राज्य का संचालन करता रहा । राम के वनवास के चौदह वर्षो तक नन्दिग्राम में रह कर यह राजकाज देखता रहा । अन्त में राम ने हनुमान् के द्वारा अपने आने की सूचना भरत के पास भिजवायी । जिस समय हनुमान आया, उसने देखा कि वल्कल तथा कृष्णाजिन धारण करनेवाल, आश्रमवासी, कृश, दीन, जटाधारी, शरीर की पर्वाह न करनेवाला, फलफूल पर जीनेवाला तपस्वी भरत भावनिमग्न बैठा है । इसे देखते ही हनुमान् ने सश्रद्ध भरत के पास आकर राम के आगमन की सूचना इसे दी । हनुमान् द्वारा रामागमन की सूचना सुनकर भरत् अत्यंत प्रसन्न हुआ, एवं अनेकानेक पारितोषिक प्रदान कर इसने उसका आदरसत्कार किया । दिये गये पारितोषिकों में सोलह सुन्दर स्त्रियों के देने का भी उल्लेख प्राप्त है । बाद में, भरत तथा शत्रुघ्न ने उत्तम प्रकार से नगर का शृंगार कर राम का स्वागत किया, तथा बडे समारोह से, राम का राज्यभिषेक कर, अपने पास अमानत के रुप में रक्खे हुए अयोध्या के राज्य को राम को वापस दिया । राम ने राज्यभार की स्वीकार कर, अपना युवराज लक्ष्मण को बनाने की इच्छा प्रकट की, क्यों कि, राम के उपरांत ज्येष्ठ होने के कारण उसका ही नाम आता है । लेकिन लक्ष्मण के स्वीकार न करने पर, भरत का यौवनराज्यभिषेक किया गया
[वा.रा.यु.१२५-१२८] ;
[पद्म. पा.१-२] ।
भरत (दाशरथि) n. भरत के सम्पूर्ण जीवन में सम्भवतः एक बार ही युद्ध में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ । राम के राज्यकाल में, भरत के कैकयाधिपति मामा के पास से राम को संदेश मिला, ‘मैं गन्धर्वो से घिर गया हूँ तथा आपकी सहायता चाहता हूँ’। अतएव उसको गन्धर्वो से मुक्त करने के लिए राम ने इसके नेतृत्व में अपनी सेना भेजी थी । इस सेना में भरत के दो पुत्र तक्ष तथा पुष्कल भी थे । भरत ने अपनी सेना के साथ जा कर सिन्धु के दोनों तटों पर स्थित उपजाउ प्रदेश में रहनेवाले गंधर्वो को पराजित किया, तथा दो नगरो की स्थापना की । एक का नाम ‘तक्षशिला’ रख कर वहॉं का राज्यधिकारी तक्ष को नियुक्त किया, तथा दूसरी नगरी का नाम ‘पुष्कलावत’ रख कर वहॉं का राज्य पुष्कल को सौंपा । इस युद्ध को जीतने तथा राज्यादि की स्थापना में भरत को पॉंच वर्ष लगे । बाद को यह अयोध्या वापस लाया
[वा.रा.उ.१०१] । अन्त में इस महापुरुष ने, राम के उपरांत अयोध्या से डेढ कोस की दूरी पर स्थित ‘गोप्रतारतीर्थ’ में देहत्याग किया
[वा.रा.१०९.११,११०.२३] ।
भरत (दाशरथि) n. रामचरित-मानस में तुलसीदास जी ने भरत का समस्त रुप--- पुलह गात हिय सिय रघूबीरु, जीह नामु जप लोचन नीरु, में प्रकट कर दिया है । ‘मानस’ में भरत का चरित्र सभी से उज्ज्वल कहा गया है । ‘लखन राम सिय कानन बसहीं, भरत भवन बसि तपि तनु कसहीं कोउ दिसि समुझि करत सब लोगू, सब विधि भरत सराहन जोगू’। तुलसी ने अपनी भक्तिभावना भरत के रुप में ही प्रकट की है । भरत त्यात, तपस्या, कर्तव्य तथा प्रेम के साक्षात् स्वरुप हैं । इसकी चारित्रिक एकनिष्ठा एवं नैतिकता के साथ कवि इतना अधिक एकात्म्य स्थापित कर लेता है, कि स्वयं भरत की प्रेमनिष्ठा कवि की आत्मकथा बन जाती है । भरत का यह साधु चरित ‘पउम चरिउ’ (स्वयंभुव) ‘भरत-मिलाप’ (ईश्वरदास), गीतावली (तुलसीदास), ‘साकेत’ (मैथिलीशरण गुप्त), एवं ‘साकेत-सन्त’ (बलदेवप्रसाद मिश्र) आदि प्रसिद्ध हिन्दी काव्यों में भी भारतीय संस्कृति के आदर्श प्रतीक के रुप में चित्रित किया गया है ।
भरत (दौःषन्ति) n. (सो.पूरु.) एक सुविख्यात पूरुवंशीय सम्राट, जो दुष्यन्त राजा का शकुन्तला से उत्पन्न पुत्र था
[म.आ.९०.३३,८९,१६] ;
[वायु.४५ ८६] । महाभारत में निर्दिष्ट सोलह श्रेष्ठ राजाओं में इसका निर्देश प्राप्त है
[म.शां.२९.४०-४५] । इससे भरत राजवंश की उत्पत्ति हुयी, एवं इसीसे शासित होने के कारण इस देश का नाम भारतवर्ष पडा
[म.आ.२.९६] । बचपन में बडे बडे दानवों, राक्षसों तथा सिंहों का दमन करने के कारण, कण्वाश्रम के ऋषियों ने इसका नाम सर्वदमन रक्खा था
[म.आ.६८.८] । इसे ‘दमन’ नामांतर भी प्राप्त था । शतपथ ब्राह्मण में इसे ‘सौद्युम्नि’ कहा गया है
[श.ब्रा.१३.५.४.१०] । कण्व ऋषि के आश्रम में शकुन्तला रहती थी, उस समय सुविख्यात पूरुवंशीय राजा दुष्यन्त ने उससे गान्धर्वविवाह किया था, एवं उसी विवाह से भरत का जन्म हुआ । जब भरत तीन साल का हो गया, तब इसके युवराजाभिषेक के लिए कण्व ऋषि ने शकुन्तला को पुत्र तथा अपने कुछ शिष्यों के साथ प्रतिष्ठान के लिए बिदा किया । दुष्यन्त ने इसे तथा शकुन्तला को न पहचान कर इसका तिरस्कार किया, एवं शकुन्तला को पत्नीरुप में स्वीकार करने के लिए राजी न हुआ । शकुन्तला ने बहुत कुछ कहा, किन्तु कुछ फायदा न हुआ । ऐसी स्थिति देखकर आकाशवाणी हुयी, ‘शकुन्तला तुम्हारी स्त्री एवं भरत तुम्हारा पुत्र है, इन्हें स्वीकार करो’। आकाशवाणी की आज्ञा की अनुसार, दुष्यन्त ने भरत को पुत्र रुप में स्वीकार कर, उसका युवराज्यभिषेक किया । राज्यपद प्राप्त होने पर भरत ने दीर्घतमस् मामतेय ऋषि को अपना पुरोहित बनाकर गंगा नदी के तट पर चौदह, एवं यमुना नदी के तीर पर तीन सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कराये । इसी के साथ ‘मष्णार’ नामक यज्ञ कर्म कर सौ करोड कृष्णवर्णीय अलंकारो से विभूषित हाथियों को दान में दिया
[म.शां.२९.४०-४५] । ऐतरेय ब्राह्मण में, करोड सौ गौयें इसके द्वारा दान देने का निर्देश है, एवं इसके अश्वमेधों की संख्या भी विभिन्न रुप में दी गयी है
[ऐ.ब्रा.८.२३] । महाभारत में, इसके द्वारा सरस्वती नदी के तट पर तीन सौ अश्वमेध यज्ञ करने का निर्देश प्राप्त है
[म.द्रो.परि.१.क्ज्र.८.पंक्ति.१४४] ;
[शां.२९.४१] । पश्चात् अपने रथ को तैतीस सौ अश्व जोतकर इसने दिग्विजयसत्र का प्रारंभ किया । दिग्विजय कर, शक, म्लेच्छों तथा दानवों आदि का नाश कर अनेकानेक देवस्त्रियों को कारागृह से मुक्ति दिलाई । इसने अपने राज्य का विस्तार उत्तर दिशा की ओर किया । सरस्वती नदी से लेकर गंगा नदी के बीच का प्रदेश इसने अपने अधिकार में कर लिया था । इसके पिता दुष्यन्त के समय इसके राज्य की राजधानी प्रतिष्ठान थी, किन्तु आगे चल कर इसके राज्य की राजधानी का गौरव हस्तिनापुर को दिया गया, तथा प्रतिष्ठान नगरी वत्स राज्य में विलीन हो गयी । यही नही, हस्तिनापुर नगर इसके द्वारा बसाया भी गया । बाद को इसके वंश के पॉंचवे पुरुष हस्तिन् ने उसे और उन्नतिशील बना कर उसे अपने नाम से प्रसिद्ध किया
[वायु.९९.१६५] ;
[मत्स्य.४९.४२] । शतपथ ब्राह्मण में श्रेष्ठ सम्राट भरत द्वारा सात्वत राजा का अश्वेमेधीय अश्व पकड लेने का निर्देश है
[श.ब्रा.३.५.४,९,२१] । शतपथ ब्राह्मण के इस निर्देश में दुष्यन्तपुत्र भरत एवं दशरथपुत्र भरत के बीच में भ्रान्ति हो गयी है, क्योंकि, सात्वत राजा राम दाशरथि का समकालीन था ।
भरत (दौःषन्ति) n. इसे कुल चार पत्नियॉं थी, जिनमें काशिराज सर्वसेन की कन्या सुनन्दा पटरानी थी । इसकी शेष पत्नीयॉं विदर्भ देश की राजकन्याएँ थी । शादी के उपरांत विदर्भ कुमारियों से भरत को एक एक पुत्र हुए । पर इन तीन रानियों के तीनों पुत्र, पिता की भॉंति बल तथा योग्यता में ऐश्वर्यपूर्ण न थे, अतएव उनकी माताओं ने उन्हें मार डाला
[ब्रह्म.१३.५८] ;
[ह.वं.१.३२] ;
[भा.९.२०३४] । आगे चल कर एक गहन समस्या आ पडी, की भरत का उत्तरधिकारी कोन हो?। पुत्रप्राप्ति के लिए भरत ने अनेकानेक यज्ञ किये, अन्त में मरुतों को प्रसन्न होकर बृहस्पति के लिए ‘मरुस्तोम’ यज्ञ भी किया । मरुतों ने प्रसन्न होकर बृहस्पति के पुत्र भरद्वाज को इसे पुत्र के रुप में प्रदान किया। संभव है, यहॉं मरुत् देवता का संकेत न होकर, वैशालिनरेश मरुत्त अभिप्रेत हो (मरुत्त देखिये) । भरद्वाज पहले ब्राह्मण था, किन्तु इसके पुत्र होने के उपरांत क्षत्रिय कहलाया । दो पिताओं का पुत्र होने के कारण ही भरद्वाज को ‘द्वमामुष्यायण’ नाम प्राप्त हुआ (भरद्वाज देखिये) । भरत के मृत्योपरान्त भरद्वाज ने अपने पुत्र वितथ को राज्याधिकारी बना कर, वह स्वयं वन में चला गया
[मत्स्य.४९.२७-३४] ;
[भा.९.२०] ;
[वायु९९.१५२-१५८] । महाभारत मे इसकी पत्नी सुनन्दा से इसे भूमन्यु नामक पुत्र होने का निर्देश प्राप्त है
[म.आ.९०.३४] । पर वास्तव में भूमन्यु इसका पुत्र न होकर पौत्र (वितथ का पुत्र) था । भविष्य के अनुसार, इसने पृथ्वी को नानाविध देशविभागों में बॉंट दिया, एवं इसीके कारण इस देश को ‘भारतवर्ष’ नाम प्राप्त हुआ
[भवि.प्रति.१.३] ।
भरत (दौःषन्ति) n. इसके वंश में उत्पन्न सारे पुरुष ‘भरत’ अथवा ‘भारतवंशी’ कहलाते है
[ब्रह्म.१.५७] ;
[वायु.९९ १३४] । इसके वंश में पैदा हुए पॉंचवे पुरुष हस्तिन् को अजमीढ एवं द्विमीढ नामक दो पुत्र थे । उनमें अजमीढ ने हस्तिनापुर का पूरुवंश नामक दो पुत्र थे । उनमें से अजमीढ ने हस्तिनापुर का पूरुवंश आगे चलाये, एवं द्विमीढ ने आधुनिक बरेली इलाके में अपने स्वतंत्र द्विमीढ वंश की स्थापना की । अजमीढ की मृत्यु के बाद, उसका पुत्र ऋक्ष हस्तिनापुर का सम्राट बना एवं उसके बाकी दो पुत्र नील एवं बृहदिषु ने उत्तर पांचाल एवं दक्षिण पांचल के स्वतंत्र राजवंशों की स्थापना की । इस तरह भरतवंश ने शाखाओं में फैलकर, उत्तर भारत के शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली । भरद्वाज ब्राह्मण था । भरतपुत्र होकर वह क्षत्रिय हुआ, इस प्रकार भरतवंश की एक शाखा क्षत्रियब्राह्मण नाम से प्रसिद्ध हुयी । उस शाखा में उरुक्षय वंश के महर्षि एवं काप्य, सांकृति, शैन्य गार्ग्य आदि क्षत्रियब्राह्मण प्रमुख थे (भरद्वाज देखिये) ।
भरत II. n. (स्वा.नाभि.) एक महायोगी राजर्षि, जो ऋषभ राजा का पुत्र था (भरत ‘जड’ देखिये) ।
भरत III. n. एक सुविख्यात मानवसमूह । ऋग्वेद के तीसरे एवं सातवें मण्डल में सुदास एवं तृत्सुओं के सम्बन्ध में इनका निर्देश प्राप्त है
[ऋ.३.३३.११-१२,७.३३.६] । ऋग्वेद में विश्वामित्र को ‘भरतों का ऋषभ’ अर्थात भरतों में श्रेष्ठ कहा गया है । विपाश् एवं शतुद्री नदियों के संगम के उस पार जाने के लिए विश्वामित्र ने भरतों को मार्ग बताया था
[ऋ.३.३३.११] । ऋग्वेद में अन्यत्र, भरतों की एक पराजय एवं वसिष्ठ की सहायता से उनकी रक्षा होने का स्पष्ट निर्देश प्राप्त है
[ऋ.७.८.४] । ऋग्वेद के छठवें मण्डल में इन्हें दिवोदास राजा का सम्बन्धी बताया गया है
[ऋ.६.१६.४-५] । सम्भव है, सुदास एवं दिवोदास यह दोनों राजा स्वयं भरतगण के थे
[ऋ.६.१६.१९] । ऋग्वेद में दूसरे स्थान पर भरतगण एवं तृत्सुओ को पूरुओं के शत्रु के रुप में वर्णित किया गया है । इस प्रकार तृत्सुओ तथा भरतों का घनिष्ट सम्बन्ध अवश्य था, चाहे उसका कारण कुछ भी रहा हो । गेल्डनर तृत्सुओं को इनके परिवार का कहता है, तथा ओल्डेनबर्ग भरतों के पारिकारिक गायक वसिष्ठ को ही तृत्सुगण कहते है
[वेदिशे. स्टूडियन. २.१३६] । हिलेब्रान्ट तृत्सुओं तथा भरतों के सम्बन्ध में दोन जातियों के मिश्रण का आभास देखता है
[वेदिशे माइथौलोजी १.१११] । भरतगण का उल्लेख यज्ञकर्ता राजाओं के रुप में कई ग्रन्थों में आया है । शतपथ ब्राह्मण में, अश्वमेध यज्ञ करनेवाले राजा के रुप में ‘भरत दौःषन्ति’ तथा ‘शतानीक सात्रजित’ नामक अन्य भरतों का उल्लेख प्राप्त है
[श.ब्रा.१३.५.४] । ऐतरेय ब्राह्मण में, दीर्घतमस् मामतेय द्वारा अपना राज्याभिषेक करानेवाले ‘भरत दौःषन्ति’, तथा सोमशुष्मन् वाजरत्नायन नामक पुरोहित के द्वारा अभिषिक्त हुए ‘शतानीक’ का विवरण प्राप्त है
[ऐ.ब्रा.८.२३] । इन भरत राजाओं ने काशी के राजाओं को जीत कर, गंगा तथा यमुना के पवित्र तटों पर यज्ञ किये थे
[श.ब्रा.१३.५.४,११.२१] । महाभारत में कुरु राजवंश के राजाओं को भरतवंशीय से माना गया है । इससे प्रतीत होता है कि, ब्राह्मण ग्रन्थों के काल तक भरतगण कुरु पांचालजाति में विलीन हो चुके थे
[श.ब्रा.१३.५.४] । ऋग्वेद में एक जगह सुदास एवं दिवोदास, तथा पुरुकुत्स एवं त्रसदस्यु इन दोनों की मित्रता का निर्देश मिलता है । ओल्डेनबर्ग के अनुसार, ये निर्देश भरत, पूरु तथा कुरु राजवंशों के सम्मीलन की निशानी माननी चाहिये
[ऋ.१.११२.१४,७.१९.८] । ऋग्वेद में ‘अग्नि भारत’ को भरतों की अग्नि के अर्थ में, तथा ‘भारती’ का प्रयोग भरतों की देवी के रुप में हुआ है
[ऋ.२.७.१,१.२२.१०] । इस मानववंश में उत्पन्न हुए राजा (जैसे, सुदास एवं दिवोदास) सूर्यवंशी थे अथवा नहीं, यह कहना कठिन है । वायुपुराण में मनु राजा को ‘लोगो का पोषण करनेवाला’ अर्थ से ‘भरत’ कहा गया है, एवं उसीके नाम से इस देश तया यहॉं के निवासियों को ‘भारत’ नाम, प्राप्त होने का निर्देश है
[वायु.४५.७६] ।
भरत IV. n. नाट्यशास्त्र का प्रणयन करनेवाला सुविख्यात आचार्य, जिसका ‘भारतीयनाटयशास्त्र’ नामक ग्रंथ नाटयलेखन एवं नाटयप्रयोगशास्त्र का सर्वप्रथम एवं प्रमाण ग्रंथ माना जाता है । इसके द्वारा लिखित नाटयशास्त्र में, ‘नंदिभरत संगीत पुस्तकों’ ऐसा निर्देश प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है की, इसका नाम नंदिभरत होगा । नंदिभरत के नाम पर ‘अभिनदर्पण’ नामक अभिनयशास्त्र क एक ग्रन्थ, एवं संगीतशास्त्र पर अन्य एक भी उपलब्ध है । विष्णु पुराण में ‘गंधर्ववेद’ नामक संगीतशास्त्रीय ग्रंथ का भी इसे कर्ता कहा गया है
[विष्णु३.६.२७] । पिशेल ने अपने नाटयशास्त्र के जर्मन अनुवाद में ‘भरत’ शब्द का अर्थ ‘अभिनेता’ ऐसा किया है, एवं इसे देवों द्वारा अभिनीत नाटयप्रयोगें का निर्देश कहा है । नाटयप्रयोग में अभिनय करनेवाले अभिनेताओं को मार्गदर्शक करनेवाले ‘नटसूत्र’ पाणिनिकाल में अस्तित्व में थे
[पा.४.३.११०] । भरत ने इन्ही नटसूत्रों का विस्तार कर, अपने नाट्यशास्त्र की रचना की । इसके ग्रंथ में नाटयभिनय, नृत्य, संगीत, नाटयगीत एवं काव्यशास्त्र का विस्तारशः परामर्श लिया गया है । दुर्भाग्यवश भरत के द्वारा रचित मूल ‘नाटयशास्त्र’ आज उपलब्ध नही है । सांप्रत उपलब्ध नाटयशास्त्र का बहुतसारा भाग प्रक्षित है; एवं वह एक ग्रंथकार की नही, बल्की अनेक ग्रंथकारों की रचना प्रतीत होती है । उसमें से कई श्लोक अनुष्टुभ वृत्त में, एवं कई आर्या वृत्त में रचे गये है; एवं कई भाग गद्यमय है ।
भरत IV. n. भरत के नाटयशास्त्र के कुल ३८ अध्याय है, जिसमे से पहिले एव एवं आखिरी तीन अध्यायों में नाटयशास्त्र की उत्पत्ति की कथा दी गयी है । उस कथा के अनुसार, एक बार इंद्रादि सारे देव ब्रह्मा के पास गये, एवं उन्होने प्रार्थना की, ‘नेत्र एवं कान इन दोनों को तृप्त करे ऐसे कोई कलामाध्यम का निर्माण करने की आप कृपा करे’। देवों की इस प्रार्थना के अनुसार, ब्रह्मा ने ‘नाटयवेद’ नामक पॉंचवे वेदे का निर्माण किया । ‘नाटयवेद’ में निर्दिष्ट तत्त्वों के अनुसार निर्माण किये गये प्रथम नाटयप्रयोग का आयोजन इंद्र ने असुरों पर प्राप्त किये विजय के सम्मानार्थ, भरत मुनि द्वारा इंद्र के राजप्रासाद में किया गया । इस नाट्यप्रयोग का कथाविषय ‘देवासु संग्राम’ ही था, जिसे देख कर उपस्थित असुरगण संतप्त हो उठा । उन्होनें अपने राक्षसी माया से नाटयप्रयोगें में भाग लेनेवाले अभिनेताओं की वाणी, स्मृति एवं अभिनयसामर्थ्य पर पाश डालना शुरु किउया, जिससे नाट्यप्रयोग, में बाध्या आ गयी । राक्षसों के इस असंमजस व्यवहार का कारण ब्रह्मा के द्वारा पूछा जाने पर राक्षस कहने लगे, ‘भारतमुनि निर्मित नाट्यकृति में राक्षस का चित्रण देवों की अपेक्षा गिरे हुए खलनायक के रुप में किया गया है । यह हमे पसंद नही है’। फिर ब्रह्मा ने जवाब दिया, ‘देव एवं असुरों की सुष्टता एवं दुष्टत दर्शाने के लिये नाटयवेद का निर्माण मैने किया है । मानवी जीवन की सत्कार प्रतिमा दर्शकों के सामने प्रगट करना, इस कला का मुख्य ध्येय है । जीवन के सारे पहलू, यथातथ्य रुप में प्रगट कर, एवं दुनिया के उत्तम, मध्यम एवं नीच व्यक्तियों को दिखा कर, दशकी को ज्ञान एवं मनरंजन एकसाथ ही प्रदान करना नाटयमाध्यम का मुख्य उद्देश्य है । इसी कारण दुनिया का सारा कलाज्ञान, शास्त्र, धार्मिक विचार एवं यौगिक सामर्थ्य का दर्शन इस कला में तुम्हे प्राप्त होगा’।
भरत IV. n. स्वर्ग में स्थित इंद्र प्रासाद में सर्वप्रथम निर्मित भरत की नाटयकृति पृथ्वी पर कैसी अवतीर्ण हुयी, इसकी कथा भी ‘भरत नाटयशास्त्र में’ दी गयी है । इस कथा के अनुसार, इस नाट्यकृति में भाग लेनेवाले अभिनेताओं ने उपस्थित ऋषियों का व्यंजनापूर्ण हावभावों से उपाहास किया, जिस कारण ऋषिओं ने कृद्ध होकर नाट्यव्यवसायी लोगो को शाप दिया, ‘उच्च श्रेणी के कलाकार हो कर भी समाज की दृष्टि से तुम नीच एवं गिरे हुए होकर रहोगे । अपनी स्त्रिया एवं पुत्रों के सहारे तुम्हे जीना पडेगा’। ऋषिओं के इस शाप के कारण नाटयकला नष्ट न हो, इस हेतु से भरत ने यह कला अपने पुत्र एवं स्वर्ग की अप्सराओं को सिखायी, एवं उन्हे पृथ्वी पर जा कर उसका प्रसार करने के लिये कहा । पृथ्वी जाने से पहले ब्रह्मा ने उन्हे वर प्रदान किया, ‘तुम्हारी कला सदैव लोगों को प्रिय, अतएव अमर रहेगीं। मस्त्य के अनुसार, भरतमुनि रचित ‘लक्ष्मी स्वयंवर’ नामक नाट्यकृति में लक्ष्मी की भूमिका करनेवाली उर्वशी अप्सरा से कुछ त्रुटी हो गयी, जिस कारण भरत ने उसे पृथ्वी पर जाने का, पुरुरवस् राजा की पत्नी बनने का शाप दिया
[मत्स्य.२४.१-३२] । भारतीय नाटयशास्त्र एवं मत्स्य में प्राप्त इन कथाओं से ज्ञात होता है कि, उस समय नाटयकाल आज की भॉंति लोकप्रिय थी, एवं जनमानस में उसके परति अतीव आकर्षण था ।
भरत IV. n. भरतरचि नाट्यशास्त्र में नाट्यकृति का केवल साहित्यिक दृष्टि से नही, बल्की कला, संगीत, नृत्य, अभिनय आदि सर्वांगीण दृष्टि से विचार किया गया है । उस ग्रन्थ में नाट्यप्रयोग संबंधी निम्नलिखित विषयों का परामर्श लिया गया हैः---रंगमंच की रचना, एवं उसके उद्धाटन के लिये आवश्यक धार्मिक विधि (अ.२-३); नृत्य एवं अभिनय में शारीरीक चलनवलन से वसंत, ग्रीष्मादि ऋतु, एवं त्वेष, दुःख हर्षादि भावना कैसी सूचित करे (अ.४-५); नानाविध रस, भावना, एवं अलंकार आदि का नाट्यकृतिमें आविष्कार (अ.६-८,१६), पात्रों की भाषा उनका देश एवं व्यवसाय के अनुसार कैसी बदल देना चाहिये (अ.१७); नाटयकृतिओं के दस प्रकर, एवं उनके वैशिष्टय (अ.१८); नाटयकृति की गतिमानता बढाना (अ.१९); नाटयशैली के विभिन्न प्रकार (अ.२०) देव, दानव, मनुष्यों के पात्रचित्रण के लिये नानाविध वेषभूषा, रंगभूषा आदि (अ.२१), नाटयकृति के नायक, नायिका, खलनायक आदि पात्रों के विभिन्न प्रकार (अ.२२-२४); अभिनेताओं की नियुक्ति एवं शिक्षा (अ.२६,३५), नाट्य-प्रयोग का समय, स्थल एवं प्रसंग की. नियुक्ती (अ.२७), नाटयसंगीत एवं नृत्य (अ.२८-३४) । भरत के नाट्यशास्त्र में, नाट्यकृतिओं के निम्नलिखित दस प्रकार माने गये हैः---नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डीम, व्यायोग, समवकार, वीथी, उश्रुटठांक एवं इहामृत । अग्निपुराण में भरत नाट्यशास्त्र के काफी उद्धरण लिये गये है
[अग्नि.३३७-३४१] । किंतु वहॉं नाट्यकृतिओं के सत्ताईस प्रकार दिये गये है । भरत के नाट्यशास्त्र में, निम्नलिखित आठ रसों का विवरण प्राप्त हैः---शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स,एवं अद्भुत । इस नामावलि में शांतरस का अंतर्भाव नही किया गया है, क्यो कि, वह विदग्ध काव्य का रस माना जाता है । नाटयकृति का संविधानक (वस्तु,इतिवृत्त), नायक एवं नायिकाओं के विभिन्न प्रकार भी भरत नाट्यशास्त्र में दिये गये है । विंटरनिट्स के अनुसार, भरत की नाट्यकृति में रस, नायक आदि की वर्गीकरणपद्धति अधिकतर ग्रांथिक पद्धति की है, व्यवहारिक उपयोगिता एवं नये विचारों का दिग्दर्शन उसमें कम है ।
भरत IV. n. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार, उपलब्ध नाट्य शास्त्र् का काल ई.स .दुसरी शताब्दी मान लेना चाहिये । संभव है, नाट्यशास्त्र में अंतर्गत अभिनयसंबंधी कारिका इससे पुरानी हो । देवदत्त भांडारकर के अनुसार, इस ग्रंथ में प्राप्त संगीतसंबंधी अध्याय काफी उत्तरकालीन, अतएव चौथी शताब्दी का प्रतीत होता है । महाकवि भास के काल में भरत का नाट्यशास्त्र सुविख्यात ग्रन्थ था । कालिदास को भे भरत एवं उसके नाट्यशास्त्र से काफी परिचय था ‘विक्रमोवर्शीयम्’ में भरत नाट्यनिर्देशक के नाते इंद्र के राजप्रासाद में प्रवेश करता हुआ दिखाया गया है, एवं उक्त नाट्यकृति में भरत के ‘अष्टरस’ संबंधी सिद्धांत का विवरण प्राप्त है ।
भरत IX. n. ०. वाराणसी क्षेत्र में रहनेवाला एक योगी, जिसने गीत के चौथे अध्याय का पाठ कर बदरी (बेर) बनी हुई दो अप्सराओं का उद्धार किया था
[पद्म.उ.१७८] ।
भरत V. n. मगधाधिपति इंद्रद्युम्न राजा के दरबार एक धर्मज्ञ ऋषि । इंद्रद्युम्न राजा की पत्नी ने इंद्र नामक ब्राह्मण से व्यभिचार किया । पश्चात् राजा के द्वारा प्रार्थना करने पर, इसने इंद्र ब्राह्मण को शाप दे कर उसका नाश किया
[यो.वा.३.९०] ।
भरत VI. n. एक अग्नि, जो शंभ्यु नामक अग्नि का द्वितीय पुत्र था । इस ऊर्ज नामांतर भी प्राप्त था । पौर्णमास याग के समय, इसे सर्व प्रथम हविष्य एवं घी अर्पण किया जाता है
[म.व.२०९.५] ।
भरत VII. n. एक अग्नि, जो अद्भुत नामक अग्नि का पुत्र था । यह मरे हुए प्राणियों के शव का दाह करता है । इसका अग्निष्टो में नित्य वास रहता है; अतः इसे ‘नियत’ भी कहते है
[म.व.२१२.७] ।
भरत VIII. n. एक अग्नि, जो शंभुपुत्र भरत नामक अग्नि का पुत्र था
[म.व.२०९-६-७] । इसे पुष्टीमति नामांतर भी प्राप्त था
[म.व.२११.१] ; पुष्टीमति देखिये ।
भरत X. n. १. शूद्रवृत्ति से रहनेवाला एक दुराचारी ब्राह्मण । इसके भाई का नाम पुंडरीक था । इस मृत मनुष्य के शव को अग्नि देने का पुण्यकर्म करने के कारण, यह मुक्त हो गया
[पद्म.उ.२१८-२१९] ।
भरत XI. n. २. एक राजा, जो भौत्य मनु के पुत्रों में से एक था ।
भरत XII. n. ३. (सो. तुर्वसु.) करंधमपुत्र मरुत्त राजा का नामांतर (मरुत्त १. देखिये) ।